सज्जनों संतमत एक पर्सनल कोई मत नहीं है यह सभी संतों का मत है और इसका प्रचार प्रसार बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने किया था और उन्होंने कहा कि मूल रूप से सभी संतों का एक ही मत है एक ही ज्ञान है और एक ही रास्ता है और एक ही लक्ष्य है परमात्मा प्राप्ति और यह ज्ञान उन्होंने संसार में जन-जन तक पहुंचाया और उनके जो प्रधान सचिव हुए उन्होंने भी हमेशा जनकल्याण के लिए कार्य किए आज उसी के कड़ी में "वर्तमान आचार्य हरिनंदन परमहंस जी महाराज की जीवनी"
पर प्रकाश डाल रहा हूं
और उनसे प्रेरणा लेने का यह बहुत ही अच्छा समय है कि एक संत होकर सादा वेशभूषा मेरा कर हमेशा जन कल्याण का कार्य करते रहे हैं
और कर भी रहे हैं
अभी भी इन अवस्थाओं में वह हमेशा मनुष्यों को उनका लक्ष्य के बारे में जन-जन तक समझाने का पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं
तो आइए हम लोग आचार्य श्री के जीवनी से प्रेरणा लें :-
भारत भूमि का बिहार राज्य अपनी विशेषताओं के कारण बहुत ही गौरवशाली है
बिहार के खासकर मिथिलांचल को इनका सबसे अधिक जाता है ।
पूर्व काल से ही मिथिलांचल संत, महर्षि ,महापुरुषों बड़े-बड़े विद्वानों की तपस्या भूमि और उनका अपना कार्यक्षेत्र रहा है।
इसी मिथिलांचल के कोसी क्षेत्र में सुपौल जिला के त्रिवेणीगंज प्रखंड के अंतर्गत मचाहा गांव की बस्ती में इनका जन्म "हुआ।
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के सेवक शिष्य हरिनंदन परमहंस जी महाराज का जन्म इसी गांव में चैत्र शुक्ल के अष्टमी तिथि को 1934 ईस्वी में हुआ था। पूज्य आचार्य श्री का जन्म 23 मार्च 1934 को हुआ था। यादव कुल के स्वर्गीय कैलू प्रसाद यादव जी इनके परम सौभाग्यशाली पिता थे ।स्वर्गीय सुखिया देवी इनकी पूजनीय माताजी थी ।
आपके पिताजी बहुत ही सात्विक विचार, सरल स्वभाव, शांत प्रकृति के धर्मात्मा व्यक्ति थे।
और मिलनसार भी थे।
आपकी पूजनीय माता जी भी बहुत ही शुद्ध ,सरल, एवं कोमल स्वभाव की परम साध्वी और भक्ति मति महिला थी ।
माता-पिता की छाया में सदाचरण का सुप्रभाव आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
जिसने आपको अन्य बालकओं से भिन्न तथा भगवत भक्ति परायण बना दिया।
बालपन में पड़ोस के बच्चों के साथ खेलते हुए रामानंदी संप्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं की तरह वेश बनाकर पूजन आदि किया करते थे।
घर पर बहुत ही पवित्रता और श्रद्धा के साथ खेलते हुए रामानंदी संप्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं का तरह पेश बनाकर पूजन आदि किया करते थे।
घर पर आप दो भाई तथा आपकी तीन बहने हैं।
बड़े भाई स्वर्गीय दरोगी प्रसाद यादव जी थे।
# शिक्षा एवं आध्यात्मिक जीवन:-
उस समय आपके गांव में पढ़े लिखे लोगों की संख्या बहुत ही कम थी।
माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ने लिखने को विशेष रूप से प्रेरित नहीं किया करते थे।
आपके पिताजी ने भी आपको विद्यालय जाने और पढ़ने के लिए नहीं कहा ।
लेकिन दूसरे बच्चों को स्कूल जाता देख कर आप ने स्वयं ही विद्यालय जाने की अपनी इच्छा प्रकट की और पिताजी की आज्ञा लेकर स्कूल जाने लगे।
पढ़ने में आपका मन लगता था पाठ पुस्तकों के अतिरिक्त आपने अन्य विषयों की पुस्तकों पुस्तकालय से लाकर पढ़ना आरंभ कर दिए।
आपकी अभिरुचि तथा संस्कारों ने आपकी क्रमशः अध्यात्मिक पुस्तकों के अध्ययन मनन की ओर अधिक लगा रहा ।
आपकी प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण स्कूल से ही प्रारंभ हुई और माध्यमिक शिक्षा के लिए आप त्रिवेणीगंज पढ़ने जाते थे।
वहां से आपने दसवीं की पढ़ाई की।
आप अपने वर्ग में प्रथम स्थान आते हुए सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते रहे।
स्वयं तथा ग्राम वासियों के लिए कीमती पुस्तकें खरीद कर पढ़ना संभव नहीं यह सोच कर अपने गांव में एक पुस्तकालय की स्थापना करने का निश्चय किया अपने अपने मित्रों के साथ मिलकर इस योजना को कार्य रूप में परिणत करने के लिए प्रयत्न शुरू ही किया गांव वालों ने भी सर्वहित के इस कार्य में आपका भरपूर सहयोग किया स्थानीय सत्संग मंदिर में" पूज्य मोती बाबा" ने इस पुस्तकालय के लिए एक कक्ष प्रदान करने की कृपा की।
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के
नाम इस पुस्तकालय की स्थापना हो गई।
गुरुदेव के शुभ आशीर्वाद के फलस्वरूप थोड़े ही समय में पुस्तकालय की बहुत उन्नति हो गई ।
पुस्तकालय के संचालन का पूरा भार आपने ही उठा लिया
और इसी क्रम में अपना वासा भी सत्संग मंदिर में ही रख लिए
वहां होने वाली स्तुति प्रार्थना में आप नियमित रूप से सम्मिलित होते रहते तथा सत्संग प्रवचन सुनने का सौभाग्य आपको हमेशा प्राप्त होने लगा।
आपका झुकाव सत्संग की ओर अधिक होने लगा अतः आपने अध्यात्मिक ज्ञान की पिपासा के कारण पढ़ाई को वहीं पर स्थगित कर दिए और आपकी प्रवृत्ति और सत्संग के प्रति आप में आकर्षण को देख कर के आपके माता-पिता ने आपका विवाह कर देने का फैसला किया।
किंतु आपने विवाह करना अस्वीकार कर दिया।
इस दिशा में आपके पिताजी के साड़े प्रयास निष्फल रहा।
धीरे धीरे आप का अधिकांश समय सत्संग मंदिर में व्यतीत होने लगा।
जहां आप सत्संग की पुस्तकें तथा अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते रहे भोजन के लिए जब भी आप अपना घर जाना बंद कर दिए तो आपकी माता स्वयं भोजन लेकर सत्संग मंदिर आ जाती थी।
1954 ईस्वी के बाद अक्टूबर माह की बात है उस समय गुरु महाराज शीतलीगढ़ धरहरा में आए थे आपने वहां जाकर उनसे दीक्षा ले ली ।
और घर से विरक्त होकर अधिकांश समय सत्संग मंदिर में साधन भजन करने में लगा।
स्कूली शिक्षा का त्याग कर आप मचहा सत्संग मंदिर में पुस्तकालय का संचालन करते हुए बैरागी साधु की तरह रहने लगे।
तो 2 वर्षों के बाद अप्रैल 1957 में सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज सत्संग प्रचार के सिलसिले में मचहा आए वहां 3 दिनों का सत्संग का आयोजन हुआ।
उस सत्संग में आप भी सम्मिलित हुए
और सद्गुरु के दर्शन प्रवचन से बहुत प्रभावित भी हुए
सत्संग में आपको बहुत ही शांति का अनुभव हुआ अशांत मन को शांत करने का संबल भी मिला ।
सत्संग के दौरान अपने प्रवचन में
गुरु महाराज ने आपको लक्ष करके कहा भी था
👉" जिन्होंने माता-पिता और घर का त्याग कर दिया है ।उनका किसी छोटे कार्य में उलझे रहना ठीक नहीं है। जिस धेय्य की प्राप्ति के लिए माता-पिता के स्नेह बंधन को तोड़ा है
उसके लिए यत्न नहीं किया जाए तो उनका गृह त्याग देना महत्वहीन है।
उनके छोटे-मोटे व बाहरी कार्यों में रहने से कल्याण नहीं होगा।"
सदगुरु महाराज की अमृतवाणी आप के अंतर में बैठ गई
और आपके मन में बैराग की भावना प्रबल हो उठी आपका मन गुरु सेवा के लिए विचलित हो उठा गुरु महाराज के कल्याणकारी संकेतिक वचन से पुस्तकालय प्रभारी के दायित्व से विचलित होकर उसी समय आपने गुरु महाराज से प्रार्थना की कि मुझे अपनी सेवा में रख लेने की कृपा करें
उस समय सदगुरु महाराज की सेवा में पहले से ही दो सेवक पूज्य संतसेवी जी महाराज, भूपलाल बाबा मौजूद थे
किसी अन्य सेवक की उस समय गुरु महाराज को आवश्यकता नहीं थी किंतु आप की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उन्होंने आपको अपने साथ रख लेने की कृपा किए।
तब से आप गुरु महाराज के साथ ही रहने लगे
उस समय गुरु महाराज का संपादित सत्संग योग का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था
जिसमें कई अशुद्धियां रह गई थी उन अशुद्धियों को आप मनिहारी आश्रम में रहकर शुद्ध किया करते थे यह काम 1961 तक चलता रहा।
इसके बाद से आप गुरु महाराज के भंडारी का काम करने लगे
जो 1973 ईसवी तक लगातार चलता रहा।
74 से 75 तक शांति संदेश प्रेस के कार्य का भार का दायित्व अपने अपने ऊपर ले लिया।
1964 में गुरु महाराज ने आपको सन्यासी वस्त्र का अधिकारी मान कर गैरिक वस्त्र प्रदान किया।
साथ ही शब्द भेद की क्रिया भी बता दिए।
एक बार की घटना है
गुरु महाराज किसी का कोई चढ़ाव नहीं लेते थे।
चाहे वस्त्र अन्न रूपये पैसे कुछ भी हो।
गुरुदेव की सेवा करने से वंचित हो जाने के कारण श्रद्धालु भक्तजन व्याकुल थे तब पूज्य श्री हरिनंदन जी महाराज लोगों के बहुत अनुनय विनय पर उनके द्वारा दी गई वस्तुओं और रुपयों को अपने पास रख लेते थे।
ताकि उनकी भक्ति भावना आहत ना हो
और गुरु महाराज को इनकी जानकारी नहीं देते थे ।
1971 में जो गुरु महाराज अस्वस्थ हुए तो हरिनंदन जी महाराज ने भक्तों द्वारा दिए हुए रूपों से पटना में चिकित्सा कार्रवाई और शेष रूपये को पास में ही रहने दिया।।
गुरुदेव तो अंतर्यामी थे
स्वस्थ होने पर उन्होंने पूछा कि मेरी चिकित्सा के लिए रुपए कहां से खर्च हुए
तब गुरुदेव को सारी बातों से अवगत कराया गया
और बताया भी गया कि कुछ रुपए शेष भी है
उन रुपयों को हरिनंदन जी महाराज ने लाकर गुरुदेव के सम्मुख रख दिया
इस पर गुरु महाराज ने कहा :-"तुम्हारा हाथ कभी पैसे से खाली नहीं रहेगा "
विद्यार्थी जीवन से ही अध्ययन और पठन-पाठन का जो क्रम हरिनंदन जी महाराज के साथ चला वह आज भी अनवरत रूप से जारी है अध्यात्मिक ग्रंथों के अतिरिक्त आपने विभिन्न विषयों की अनेकों पुस्तकें पढ़ी और उनसे ज्ञान का संचय किया इसी अध्ययन से आपको प्राकृतिक चिकित्सा का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ और इस चिकित्सा पद्धति पर आपका विश्वास दृढ़ हुआ
1972 ईस्वी में अस्वस्थ होने पर आपने प्राकृत चिकित्सा करवाई थी।
गुरु महाराज के भोजन बनाने के लिए आप ने गुरु प्रसाद दास जी को प्रशिक्षित किये।
और 1 दिन गुरुदेव से प्रार्थना की
" हुजूर मेरी इच्छा हो रही है कि मैं एक बार अपनी प्राकृतिक चिकित्सा करवाऊं
गुरु प्रसाद जी आपके लिए भोजन
बनाना सीख गए हैं ।
जब तक मैं उपचार में रहूंगा
यह आप का भोजन बनाते रहेंगे "
गुरु महाराज ने सहर्ष ही आपको आदेश दे दिया और आप उपचार के लिए रानी पतरा गए
किंतु गुरु महाराज के सानिध्य का लाभ छोड़कर रहने में आपका चित्त विचलित रहने लग गया।
इलाज बीच में ही छोड़कर आप कुपपाघाट आश्रम आ गए और फिर इलाज वही करवाया।
आपके स्वास्थ्य लाभ के बाद गुरु महाराज गुरु प्रसाद जी को वही भेजना चाहते थे
जहां से वह आए थे
किंतु आपकी बिनती पर गुरु महाराज ने उनको भी हमेशा के लिए अपने पास ही रख लिया ।
इस तरह महर्षि हरिनंदन जी परमहंस जी महाराज गुरु महाराज की सेवा में सदा तत्पर रहे।
शाही स्वामी जी महाराज के बाद स्वामी चतुरानंद जी महाराज
" महर्षि मेंही आश्रम कुप्पाघाट"
के व्यवस्थापक का कार्य करते थे।
तत्पश्चात आपके ऊपर आ गया ।
अखिल भारतीय संतमत सत्संग महासभा के निर्णय अनुसार सन 1987 ईस्वी के से आपने भजन भेद देना प्रारंभ किया।
अभी तक आपने कई लाखों संख्या में सत्संगी श्रद्धालुओं को दीक्षित किए हैं ।
परम पूज्य आचार्य श्री हरिनंदन परमहंस जी महाराज बहुत ही ज्ञानी, ध्यानी, सरल ,शांत, चित्त और शांति के प्रतिमुर्ति संत हैं ।
इनका जीवन सादगी और सात्विकता से पूरा भरा पड़ा हुआ है।
और यह संसार के लिए एक प्रेरणा है
और हम सब उसी के प्रेरणा से चलते हैं और उसी से आगे भी जीवन जीने की प्रेरणा लें
और संतमत में अपने आस्था को दृढ़ करें
और
अंत में आचार्य श्री हरिनंदन परमहंस जी महाराज के चरण कमलों में वंदन करता हूं कि
आप अपनी कृपा दृष्टि सभी भक्तों पर बनाए रखें ।
आपकी कृपा हमेशा बरसती रहे
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Jayguru
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