शनिवार, 12 अप्रैल 2025
आनंद और मंगल की जड़ सत्संग हैं -संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
बीसवीं सदी के महान संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का प्रवचन को पूरा देखें 👇🙏👇
🙏🕉️ *जय गुरूदेव* 🕉️🙏
आनन्द और मंगल की जड़ : सत्संग*
*प्यारे आत्मवत् प्रिय लोगो!*
मुझको बुलावा में कहा गया था कि मैं चलकर सत्संग का उद्घाटन करूँ। सत्संग मुझे बहुत प्रिय है, गोया जीवन का आधार है। इस आधार के लिए बुलावा हो, मैं उपस्थित नहीं होऊँ, तो मेरे लिए बहुत हानि, लज्जा, अपयश और अवनति का काम होगा, इसलिए आया। आते ही वेद-मंत्रों का पाठ होते पाया, तो मैं समझा- वेद-मंत्र से ही उद्घाटन होगा। फिर मुझे कुछ कहना चाहिए, सो कहता हूँ। आजकल आपके प्रान्त में और दूसरे प्रांतों में भी गोस्वामीजी की रामायण का बड़ा प्रचार है। उसमें लोग पढ़ते हैं, आप भी पढ़ते होंगे-
सत्संगति मूद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
अर्थ बहुत सीधा है, तब भी थोड़ा-सा कहता हूँ कि गोस्वामीजी ने यह कह दिया कि मुद कहते हैं-खुशी को। आनन्द और मंगल, दोनों की जड़ सत्संग है। सत्संग आनन्द और शुभ की जड़ है। गोया सत्संग से ही आनन्द औैर शुभ होता है। ऐसा कोई नहीं, जो शुभ नहीं चाहे और आनन्द नहीं चाहे। आनन्द और शुभ की जड़ ही मिल जाए, तब तो कहना ही क्या है! जहाँ सत्संग होता है, वे वहाँ से आनन्द पाते हैं और उनका कल्याण होता है। यह बहुत बड़ी बात है कि उन्होंने कहा-सत्संग की सिद्धि फल है कि सब साधन फूल हैं। फूल हों, फल नहीं लगे तो, पूरी संतुष्टि नहीं हो सकती। सत्संग की सिद्धि फल है, इसको समझाने की कोशिश करूँगा। ‘सत’ कहते हैं, जिसमें परिवर्तन नहीं हो, जिसकी स्थिरता रहे और अत्यन्ताभाव नहीं हो। परिवर्तन=बदल जाना, जैसे हमलोगों को शरीर है। बच्चे लोग बैठे हैं, इसी तरह हमलोगों का शरीर था, सुन्दरता और शक्ति चली गयी, फिर भी शरीर वही है; इस तरह परिवर्तन होता है। शरीर मर भी जाता है। कितने शरीर मर भी गए। कहते हैं कि पाँच तत्त्व का था, पाँचो तत्त्वों में मिल गया, तब भी रहा। कहते हैं प्रलय होता है और महाप्रलय भी होता है। प्रलय में कुछ रहता है और महाप्रलय में अत्यन्ताभाव हो जाता है। अत्यन्ताभाव होगा, तब वह सत्य नहीं है। सत्य क्या है? परिवर्तन हानेवाले पदार्थों में एक जीवनी शक्ति है, जिसको ज्ञानमय कहते हैं। उसको इसलिए चेतन कहते हैं, वह चेतन इस शरीर के अन्दर अंतःकरण के साथ रहता है और ब्रह्मतत्त्व-आत्मतत्त्व से भिन्न कोई रह नहीं सकता। शरीर मर गया, उसको जलाया गया, लेकिन ब्रह्मतत्त्व जलाया नहीं गया। इसी के लिए कहा गया है कि इसको हवा सुखाती नहीं, पानी भिंगाता नहीं, अस्त्र छेदता नहीं, अग्नि जलाती नहीं आदि। यह सत्य रह गया, इसलिए इसको ईश्वर का अंश कहते हैं-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
अपने यहाँ इसका बहुत विश्वास है कि शरीर को जलाया गया, चेतन आत्मा रही। यह अपने कर्मानुसार स्वर्ग-नरक भोगकर संसार में आती-जाती रहती है। शरीर के तरह इसका परिवर्तन नहीं होता। केवल आत्मा का कभी अभाव होता नहीं। कितने लोग चेतन और आत्मा को एक ही समझते हैं, लेकिन ऐसी बात नहीं। चेतन बदलता नहीं, लेकिन सृष्टि का पसार हुआ है, इसकी समाप्ति होगी, उस समय चेतन का भी विलीन हो जाना होगा। कभी-न-कभी अत्यन्ताभाव भी लोग मानते हैं, लेकिन आत्मा का अत्यन्ताभाव कभी होता नहीं।
‘सत्’ परा प्रकृति के नाम से, अक्षर के नाम से विख्यात है। नाशवान पदार्थ को क्षर पुरुष कहते हैं और अनाश को अक्षर पुरुष कहते हैं। इन दोनों से जो उत्तम है, वह पुरुषोत्तम है। गीता में इन तीनों का वर्णन है। पुरुषोत्तम में भी न परिवर्तन होता है, न अत्यन्ताभाव होता है। प्रलय, महाप्रलय में इसका कुछ बिगड़ता नहीं। अक्षर पुरुष, चेतन पुरुष, परा प्रकृति का कभी-न-कभी अत्यन्ताभाव होता है, लेकिन यह भी ‘सत्य’ है। और आत्मतत्त्व का कभी परिवर्तन नहीं होता, न अत्यन्ताभाव होता है, यह भी ‘सत्य’ है। उस सत् का इस सत् से मेल हो, यही है सत्संग का फल। चेतन आत्म-तत्त्व का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करो। शुद्ध आत्म-तत्त्व-ब्रह्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान हो, सत्संग की यही सिद्धि सत्संग करते-करते जड़-चेतन की भी गाँठ जाए; यह जड़ है, यह चेतन है-ठीक-ठीक पहचान में आ जाए और फिर आत्मतत्त्व का भी पहचान हो; यह सत्संग की सिद्धि है। लेकिन यह बाहर नहीं, अन्दर में होगा। और सब साधन फूल हैं, इसलिए कि संसार में यशस्वी होते हैं, यश की सुगन्धि फैलती है, वे संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और यह है कि आत्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसके लिए ध्यान-भजन करना, ज्ञान अर्जन करना, योगाभ्यास करना, भक्ति करनी-ये सब साधन फूल हैं। जो इसको ग्रहण करते हैं तो संसार में सच्चरित्र होते हैं। उनकी सच्चरित्रता की बड़ाई है, वह तमाम होने लगती है। गोया यह है, यह बाहर की सिद्धि है। अंतर में साधन करते-करते जड़-चेतन और शुद्ध आत्मतत्त्व को-तीनों को अलग-अलग कर प्रत्यक्ष जानते हैं, यह फल है। जो बराबर सत्संग करते हैं, उनके लिए है-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ।।
बुद्धि, यश, मुक्ति, ऐश्वर्य और भलपन; जब कभी जहाँ कहीं, जिस किसी उपाय से जिसने पाया है, वह सत्संग के प्रभाव से हुआ, जानना चाहिए। लोक और वेद में इसके मिलने का उपाय नहीं। ये पाँच पदार्थ सत्संग करते-करते मिलते हैं। जिनको ये पाँच चीजें मिल जाएँ, संसार में उसको कुछ बाकी नहीं रह जाता है। वे स्वयं लाभान्वित होते हैं और संसार को लाभ पहुँचाते हैं। सत्संग ज्ञानमयी यज्ञ है। गीता में कहा गया है कि द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है। यहाँ भी होगा। ये शुभ के लिए करते हैं। सबसे बड़ा शुभ है-ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होना। यह भी सभी प्राप्त कर लेंगे, जो सत्संग करते रहेंगे। कबीर साहब ने कहा-
सत्संग से लागि रहो रे भाई । तेरी बनत बनत बन जाई ।।
मैंने जो आन्तरिक सत्संग करने के लिए कहा है, वह बड़ा विस्तार है। वह ध्यान से होता है। स्थूल ध्यान को लोग जानते हैं, सूक्ष्म ध्यान कम लोग जानते हैं। सूक्ष्म ध्यान में भी रूप ध्यान और अरूप ध्यान है। जो कोई जानते हैं, वे करें; जो नहीं जानते हैं, जानकर करें। इन्हीं शब्दों के साथ मैं उद्घाटन करता हूँ, सबका कल्याण चाहता हूँ।
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*यह प्रवचन बाँका जिलान्तर्गत गाँव पैर में दिनांक 8. 4. 1970 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।*
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