कितनों ने हार मान ली कितने तो मरने मजबूर हुए।।
सपना को सोच सोच कर अपनों से दूर हुए
समाज से कटकर तन्हा में जीना स्वीकार किये।।
नेप्टोनिज्म के आग ने कितने घर जला दिए
गरीब मां, बहन की कोख को पल भर में सूना कर दिए।।
समानता की बात करते करते सदियों बीत गए
कितनों के घर चूल्हा नहीं जल रहा कितना आगे बढ़ गए।।
उंच नीच का जाति पांति घर घर में जहर घोल दिए
आज भी forward, backward की बात घर में बच्चों को सिखा रहे।।
तरूण लानत है ऐसे समाज को जो आज भी पुरानी ख्यालात में जी रहे
आगे बढ़ने वाले का सरेआम टांगें खींच रहे।।
~© तरूण यादव रघुनियां मधेपुरा, बिहार
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