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बुधवार, 4 अगस्त 2021

विषयों का उपभोग किस रूप में-सदगुरु मेंहीं

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
 विषयों का उपभोग किस रूप में?
 (साभार – सत्संग-सुधा सागर)

बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
आपलोग अपने-अपने जीवनकाल में बरत रहे हैं। 
यह जीवनकाल कबतक रहेगा, कोई ठिकाना नहीं। सम्भव है कोई 50 वर्ष, कोई 80 वर्ष, कोई 100 वर्ष और कोई ज्यादे भी रहे। 
किंतु इस जीवन-काल के पहले भी समय समाप्त हो जाय, संभव है। यह जीवनकाल एक शरीर का है। 
आप शरीर नहीं हैं। 
बाहर की इन्द्रियाँ नहीं, भीतर की इन्द्रियाँ भी नहीं हैं। समस्त इन्द्रियों और शरीर के परे आप हैं।
इन्द्रियाँ सह शरीर जड़ हैं। किसी भी मृत शरीर में ज्ञान नहीं रहता है। जीवित शरीर में ज्ञान रहता है। 
यह ज्ञानमय पदार्थ चेतन आत्मा है।

 गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है –
 ईश्वर अंश जीव अविनाशी। 
चेतन अमल सहज सुखरासी।।

आप ईश्वर-अंश हैं, अविनाशी हैं, चेतन हैं। एक शरीर का जीवन बहुत थोड़ा है। आप अजर, अमर, अविनाशी हैं। इस मरणशील शरीर में आपका रहना है, यह रहना कबसे है, ठिकाना नहीं।
 आपने एक ही शरीर को नहीं, अनेक शरीरों को भोगा है। प्रत्येक शरीर का जीवनकाल कुछ-न-कुछ रहा है। आपने अनेकों शरीर को भोगा है और फिर इस शरीर को भोग रहे हैं। एक शरीर का जीवन सौ, सवा सौ वर्ष का है और आपका जीवन अनंत है। 
एक शरीर के जीवन में जीवन भर आप सुखी रहना चाहते हैं। परंतु दुःख आए बिना बाज नहीं रहता। जैसे दिन के बाद रात, रात के बाद दिन, इसी तरह सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख अनवरत रूप से आते रहते हैं। 
इन दुःखों को छुड़ाने के लिए लोग बहुत उपाय करते हैं; किंतु दुःख पीछा नहीं छोड़ता।

एक शरीर के दुःख को दूर करने का काम करते हैं, यह अच्छा करते हैं। किंतु आपके स्वयं का जो जीवन है, उस सुख के लिए भी सोचें।
 इसके लिए लोग ख्याल नहीं करते।
लोग एक पहर, आधे पहर के दुःख को पसन्द नहीं करते हैं, उसे अच्छा नहीं कहते हैं; तब लम्बे जीवन के दुःख को मिटाने के लिए कोशिश नहीं की जाय, ठीक नहीं।
यह शरीरवाला जीवन इहलोक और परलोक में कब तक होता रहेगा, ठिकाना नहीं।
 इस लोक-परलोक से छूटने के लिए जबतक यत्न नहीं किया जाय, तबतक दुःख उठाते रहना होगा। स्वर्ग में भी दुःख नहीं छोड़ता। 
ऊँचे-ऊँचे स्वर्ग-लोक में भी समय बंधा रहता है। जबतक कर्मफल है, तबतक वहाँ का सुख भोगते हैं। 
फिर वह समय बीतने पर वहाँ से लौटाया जाता है। 
इस आवागमन का चक्र बहुत लम्बा है।
 इससे तबतक नहीं छूटते, जबतक शरीर में रहने का जीवन समाप्त न किया जाय। इसलिए 
सबको चाहिए कि अमर जीवन के लिए कोशिश करें।
 यह जीवन शरीर-रहित जीवन है। 
शरीर-रहित जीवन परमात्मा में रहना है। 
वहाँ से कभी हटना नहीं है। कर्मफलों को पार करके ही कोई वहाँ पहुँच सकता है। 
इसका यत्न मनुष्य-शरीर में करना चाहिए।
संसार में जितने शासित देश हैं, सबके शासक चाहते हैं कि हमारे देश के रहनेवाले सुखी रहें। उनके बहुत प्रयास करने पर भी जितना सुख होना चाहिए, उतना सुख नहीं ला सकते। 
केवल हमारा देश ही नहीं, संपूर्ण संसार के लोग पूर्ण सुखी नहीं हैं।
 केवल इसी युग में नहीं, सब युगों की बात है।
भगवान श्रीराम त्रेतायुग में राज्य करते थे। उनका इतना सुन्दर प्रबंध था कि प्रजा सुखी थी। किंतु वहाँ दुःख नहीं था, ऐसी बात नहीं। 
इतना अधिक सुख था कि उस सुख में दुःख बिला जाता था। इन सुखों को ही भगवान श्रीराम ने पूर्ण नहीं समझा। इसलिए उन्होंने सबलोगों को बुलाकर शिक्षा दी।
आजकल भी लोग समझने लगे हैं कि केवल भौतिक सुख से पूर्ण सुखी कोई नहीं हो सकता।
 आध्यात्मिक सुख से पूर्ण सुखी होंगे। आध्यात्मिक सुख वह है, जो इन्द्रियों के सुख में नहीं है। वह परमात्मा का सुख है।
इन्द्रियों और शरीरों के भोग में वह सुख नहीं है। वह चेतन आत्मा से भोगने में सुख है। उस ओर चलने के लिए अपने को बहुत पवित्र करके रहना पड़ता है। यह केवल शारीरिक पवित्रता नहीं। 
शारीरिक पवित्रता के सहित मन-बुद्धि की पवित्रता है, मन में कुविचार न आवे, मन बुराई की ओर न जाए, तब अंतःकरण की पवित्रता है, ऐसा समझना चाहिए।
 अंतःकरण की पवित्रता में यह गुण है कि इससे संसार में भी प्रतिष्ठा होती है। यदि मन बुरे-बुरे कर्मों को करना चाहे, इन्द्रियों को बुरे-बुरे कर्मों की ओर प्रेरण करता है तो वह बहुत झंझट में पड़ता है। 
धनीमानी होते हुए भी उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती। किंतु जो अंतःकरण की पवित्रता से रहता है, तो धनी नहीं होने पर भी, विद्वान नहीं होने पर भी लोग उनकी प्रतिष्ठा करते हैं। अंतःकरण की शुद्धिवाले को संसार में और परलोक में-दोनों में सुख होगा। 
भगवान श्रीराम ने इन्हीं बातों को समझकर आध्यात्मिक शिक्षा दी है।
 भगवान श्रीराम ने कहा -
बड़े भाग मानुष तनु पावा। 
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा।।
 अर्थात्‌ बड़े भाग्य से मनुष्य-शरीर मिला है। यह शरीर देवताओं को दुर्लभ है, ऐसा सद्ग्रंथों ने भी गाया है। ऊँचे कुल, धनवान, बलवान हैं, इसलिए आपका बड़ा भाग्य है, ऐसा नहीं कहा। बल्कि मनुष्य-शरीर मिला है, इसलिए बड़ा भाग्य है।
 लोग समझते होंगे कि मनुष्य देवता को पूजते हैं, देवता मनुष्य शरीर क्यों चाहेंगे। उपनिषद्‌ की एक कथा है। उपनिषद्‌ उसको कहते हैं, जिसमें प्राचीनकाल के ऋषियों ने अपना विचार प्रकट किया था।
 उपनिषद्‌ की कथा इस प्रकार है -
 एक समय ब्रह्माजी के पास देव, दानव और मानव तीनों गए। तीनों ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि हमलोगों को उपदेश दिया जाय। 
ब्रह्माजी ने तीनों को अपने उपदेश में मात्र 'द’ कहा।
 इसमें ब्रह्माजी ने देवों को ‘दमन’ अर्थात्‌ इन्द्रिय-दमन, दानव को ‘दया’ और मानव को ‘दान’ की शिक्षा दी। मनुष्य से देवता माया की शक्ति अधिक रखते हैं।
 किंतु दमनशील का स्वभाव उनमें नहीं है। 
इसीलिए मनुष्य का शरीर वे चाहते हैं कि मनुष्य शरीर मिलने से इन्द्रिय-दमन होगा।
 अर्जुन स्वर्ग गए थे। उनकी सुन्दरता देखकर वहाँ की अप्सरा उन पर मोहित हो गई। उसने एकान्त में अपनी मनोभावना अर्जुन के सामने प्रस्तुत की, परंतु अर्जुन अविचल रहे। इसपर उस अप्सरा ने असंतुष्ट होकर अर्जुन को शाप दिया।
 देवताओं को इन्द्रिय-दमन की शक्ति नहीं है। यहाँ ही देखिए, जिसको धन है, वे किस तरह रहते हैं। हो सकता है, कोई-कोई धनवान संयमी हों।
जिनको भोग्य पदार्थ विशेष मिलते हैं, उनको विषय-विलास विशेष रहता है।
 देवताओं में इन्द्रियों के भोग भोगने की शक्ति विशेष है। इसलिए इन्द्रियों के भोग में बहुत प्रवृत्त होते हैं।
जब मनुष्य ब्रह्मा के पास गए तो, उनको ब्रह्मा ने द' की शिक्षा दी। मनुष्य ने समझा कि ब्रह्मा ने 'द’ कहकर दान देने की शिक्षा दी है। 
हम मनुष्यों में बड़ी कृपणता है। तनबल, बुद्धिबल, धनबल सबको चुराते हैं। तन, मन, धन से दूसरों की भलाई नहीं करते हैं।
इसीलिए ब्रह्माजी ने इन कृपणता को दूर करने के लिए द' कहकर दान देने कहा। फिर आपने भगवान राम के उपदेश में सुना - 'साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।' अर्थात्‌ 
यह शरीर साधन का घर है। जो साधन करना चाहे, इस शरीर में रहकर हो सकता है।
 जिस तरह एक कोई भण्डार हो, उससे जो लेना चाहो, ले लो। उसी तरह यह शरीर साधनों का भण्डार है। इससे जो कीजिए, सो होगा। आप सर्कसवाले को देखते होंगे, कैसा-कैसा खेल दिखाता है, यह सब साधन उन्होंने किया है। यह तो स्थूल साधन है। हमारे यहाँ ऋषि, मुनि, योगी लोग हो गए हैं। 
उन लोगों ने इन्द्रियों को दमन किया है, जिनको दमन करना कठिन है। इस शरीर में मोक्ष का द्वार भी है।
 शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। जब हम स्थूल शरीर में रहते हैं, तो हम स्थूल संसार में रहते हैं। उसी तरह से 
सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि शरीरों के भी जिस तल पर रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर रहते हैं। शरीर के जिस तल को छोड़ते हैं, संसार के भी उस तल को छोड़ते हैं।
जो शरीर के सभी तलों से ऊपर उठ जाते हैं, वे संसार के सभी तलों से परे हो जाते हैं।
 जो शरीर से निकलता है, वह संसार से भी छूट जाता है।
 जाग्रत से जब हम स्वप्न अवस्था में जाते हैं तो स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, तो स्थूल संसार का भी ज्ञान नहीं रहता है। पिण्ड को पार करो तो ब्रह्माण्ड को भी पार कर जाओगे। 
इसलिए ऐसा कोई रास्ता मिले, जिससे इस शरीर से, संसार से छूटा जाय। इस शरीर में छोटे-छोटे बहुत छिद्र हैं, बड़े-बड़े नौ - आँख के दो, नाक के दो, कान के दो, मुँह का एक और मल-मूत्र के दो छिद्र हैं। 
छोटे-छोटे छिद्र झरोखे हैं। यह शरीर नौ द्वारों का घर है। नौ द्वारों में से एक भी द्वार ऐसा नहीं है, जिससे शरीर से छुटकारा मिले, मोक्ष मिले। 
ये सब द्वार भीतर से बाहर जाने को हैं और वह द्वार जिससे भीतर प्रवेश कर सकते हैं, दसवाँ द्वार है।
 वह आपकी आँख के पास है।
 आपलोग शिवजी की प्रतिमा में तीन आँखें देखते होंगे। 
शिवनेत्र इसलिए कहलाता है कि जो उसको प्राप्त करता है, उसका कल्याण होता है।
 यह रास्ता ब्रह्म की ओर जाने का है।
गुरु नानक साहब ने कहा -
 नउ दरवाजे नवै दर फीके रसु अमृतु दसवै चुअीजै।
और - 
नउ दर ठाके धावतु रहाए दसवैं निज घरि वासा पाये।
 इन नौ द्वारों में रहते हुए आप कल्याण नहीं पाते हैं, दसवें द्वार में जाए, तब बहुत कल्याण होगा। 
दसवें द्वार में जाने के लिए बड़ी एकाग्रता की जरूरत होती है।
 एकाग्रता में शान्ति आती है।
 आपलोग जब जगने से सोने के लिए कोशिश करते हैं तो एक अवस्था आती है, जिसको तन्द्रा कहते हैं, उस समय शरीर कमजोर होता जाता है, शक्ति भीतर की ओर खिंचती जाती है। उस समय कुछ सुनते हैं और कुछ भूलते हैं। किसी इन्द्रिय का वहाँ स्वाद नहीं है। अंदर सरकाव में चैन मालूम होता है।
 सोने के समय मन की चंचलता छूटती है। यदि मन में कोई चिन्ता लगी हो तो नींद नहीं आवेगी।
 सोने के समय अंदर प्रवेश करते समय सब ख्याल छूटते जाते हैं, एक चैन मालूम होता है, यह तो स्वाभाविक सबको होता है। 
जो कोई भजन करता है, उसको विचित्र आनंद मालूम होता है।
 संत कबीर साहब ने कहा है –
भजन में होत आनंद आनंद।
 बरसत बिसद अमी के बादर, भींजत है कोइ संत।।
 जो अंतर की ओर चलता है, वह संसार की ओर से छूटता है, जो संसार की ओर से छूटता है, वह परमात्मा की ओर जाता है।
 जो उस दसवें द्वार से गुजरता है, वह मोक्ष की ओर जाता है, वह भक्ति करता है। दसवें द्वार की ओर जाना भक्ति करनी है। 
जिसने इस मनुष्य शरीर को पाकर अपना परलोक नहीं सुधारा, वह दुःख पाता है। परलोक दो तरह के होते हैं - एक स्वर्गादि और दूसरा मोक्ष।
 यहाँ परलोक स्वागादि के लिए है। 

इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा -
 सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय।
 कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय।।
 अर्थात्‌ जो मनुष्य-शरीर पाकर अपना कल्याण नहीं कर लेते हैं, वे अंत में दुःख पाते हैं और सिर धुन-धुनकर पछताते हैं। वे काल, कर्म और ईश्वर को झूठ ही दोष देते हैं। 
ईश्वर की बड़ी कृपा है कि मनुष्य का शरीर मिला है।
 ईश्वर की विशेष कृपा को आप प्राप्त कर सकते हैं, जब आप परमात्मा का भजन कीजिए। काल आपके अधिकार में है। 
समय को सोकर, बैठकर खो सकते हैं, कुछ काम करके बिता सकते हैं, ईश्वर-भजन करके बिता सकते हैं। समय किसी को कुछ करने में रोकता नहीं है।
कर्म का भी दोष देना बेकार है। अपने प्रारब्ध को अपने से ही बनाना होता है। 
इसलिए काल, कर्म, ईश्वर को दोष देना उचित नहीं। 

फिर भगवान श्रीराम ने कहा -
एहि तन कर फल विषय न भाई। 
स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 स्वर्ग में भी पुण्य के अंत में दुःख ही होता है। 
विषय-सुख से अपने को निवृत्त करो।
 स्वर्ग-सुख का लालच भी छोड़ो।
 पशुओं के शरीर में भी इन्द्रियों के सुख का भोग है। मनुष्य भी यदि इन्द्रियों के भोगों में बरते तो पशु से क्या विशेषता हुई?
 भगवान राम ने कहा - 
पंच विषयों से पर पदार्थ के लिए चेष्टा करो अर्थात्‌ परमात्मा को प्राप्त करने कहा।
 भगवान राम ने कहा -
नरतन पाइ विषय मन देहीं। 
पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई।
 गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
 मनुष्य-शरीर पाकर जो विषय में मन लगाता है, वह अमृत छोड़कर विष लेता है। 

आगे भगवान श्रीराम कहते हैं -
आकर चारि लाख चौरासी।
 जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
अंडज, पिण्डज, स्वेदज और ऊष्मज; इन चार खानियों में 84 लाख योनियाँ हैं।
 माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव, गुण के घेरे में पड़कर सदा अविनाशी जीव घूमा करता है।
 मनुष्य 84 लाख योनियों को भोगते हुए आया है। इसलिए इससे छूटने का उपाय करो।
 इससे छूटने का उपाय है - वायु, नाव और मल्लाह। ईश्वर की कृपा 'सन्मुख मरुत’ या अनुकूल पवन है। अनुकूल इसलिए कि नाव को पश्चिम जाना चाहिए, किंतु नदी का बहाव पूरब की ओर ले जाता है।
 यदि पुरबैया हवा चल पड़े तो वह हवा उसको पूरब की ओर जाने से रोकती है। 
उस नाव पर मल्लाह पाल टाँग देता है, तब नाव भाठे से सिरे की ओर चली जाती है। 
मनुष्य-शरीर नाव है, ईश्वर की कृपा अनुकूल वायु है और सद्गुरु मल्लाह हैं। 
सद्‌गुरु वह है, जो सद्ज्ञान में बरते, जो दूसरों को सद्ज्ञान देता हो, सत्स्वरूप परमेश्वर का भजन करता हो और दूसरों को भजन करने का प्रेरण देता है।

 मुक्ति मारग जानते साधन करते नित्त।।
 साधन करते नित्त सत्त चित्त जग में रहते।
 दिन दिन अधिक विराग प्रेम सत्संग सो करते।।
 दृढ़ ज्ञान समुझाय बोध दे कुबुधि को हरते। 
संशय दूर बहाय संतमत स्थिर करते।।
 'मेँहीँ‘ ये गुण धर जोई, गुरु सोई सतचित्त।
 मुक्ति मारग जानते साधन करते नित्त।।

 सदगुरु मल्लाह हैं। जो इन साज-सामानों को पाकर अपना कल्याण नहीं कर लेते हैं, वे कृत-निन्दक, मंदमति और आत्महत्या के दोष को पाते हैं।
 इसलिए लोगों को चाहिए कि भगवान श्रीराम के उपदेश को मानें और विषय को छोड़कर निर्विषय की ओर चलें।

 जैसे दवाई की मात्रा के अनुसार दवाई-सेवन करते हैं, इसी तरह संसार में रहने के लिए दवाई के रूप में विषयों का उपभोग कीजिए, उसमें आसक्त नहीं होइए।
संत लोग जो कहते हैं, उनके अनुकूल चलना चाहिए। यदि भला भी होना चाहो और बुराई भी करो तो कैसे हो सकता है।
 इत्रदान में गोबरवाली अंगुलि देना ठीक नहीं। 
ईश्वर का भजन करना चाहते हो, तो अपने अंतःकरण को शुद्ध करो।
 अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए अपने को पापों से बचाओ। पापों से बचने के लिए झूठ छोड़ो। 
झूठ ऐसा झोला है, जिसमें सब पाप छिपा रहता है।
 कोई पाप चुराकर करो तो वह प्रकट हो जाएगा। रामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है कि 
पाप और पारा को कोई हजम नहीं कर सकता है।
 जैसे कोई छिपकर पारा खा ले तो वह शरीर को फोड़कर निकल जाता है। उसी तरह से छिपकर किया हुआ पाप भी कभी-न-कभी प्रगट हो ही जाता है। 
चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार मत करो।
 स्त्री-पुरुष का अनैतिक संबंध जोड़ना व्यभिचार है। वैवाहिक मर्यादा को तोड़कर अनैतिक संबंध जोड़ने- वाली नारी व्यभिचारिणी है और अनैतिक संबंध जोड़नेवाला पुरुष व्यभिचारी है। 
तम्बाकू भी नशा है। 
संत कबीर साहब ने कहा है –
भाँग तम्बाकू छूतरा, अफयूँ और शराब।
 कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार।।

इतना ही नशा नहीं है।
मद तो बहुतक भाँति का ताहि न जानै कोय। 
तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय।।
 विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द। 
इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द।।

झूठ को तुरत छोड़ो। ऐसा नहीं कि आज पाँच झूठ बालते हैं, तो कल चार झूठ बोलेंगे। हिंसाओं से बचो।

 अष्टघातक मनुजी ने बताए हैं –
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।

अर्थात् 1. पशुवध की आज्ञा प्रदान करनेवाला, 
2. शस्त्र से मांस काटनेवाला,
 3. मारनेवाला, 
4. बेचनेवाला, 
5. मोल लेनेवाला, 
6. मांस पकानेवाला, 
7. परोसने के लिए लानेवाला, 
8. खानेवाला; ये आठो घातक हिंसा करनेवाले ही कहलाते हैं। 
हिंसा के सिलसिले में मत्स्य-मांस नहीं खाओ। 
दूसरी बात यह है कि आपका शरीर पवित्र है और पशु-पक्षी का शरीर अपवित्र है।
पवित्र शरीर में अपवित्र जीव-जन्तुओं का मांस लेना ठीक नहीं। संसार में इतने मीठे-मीठे फल हैं, मिठाइयाँ हैं कि मनुष्य उतने खा नहीं सकते।
हिंसा दो तरह की है - वार्य और दूसरा अनिवार्य। 
वार्य हिंसा से बचा जा सकता है। 
अनिवार्य हिंसा से कोई बच नहीं सकता।
 कृषि कर्म में जो हिंसा होती है, वह अनिवार्य है।
 कृषि द्वारा यदि अन्न का उत्पादन नहीं हो तो लोग भूखों मर जायँ। लोग कहा करते हैं कि 
बिना मत्स्य-मांस खाए शरीर स्वस्थ नहीं रहता; लेकिन इस विचार को महात्मा गांधी ने नहीं माना।
 एक बार कस्तूरबा गांधी बीमार हो गई थी। उनको इतनी कमजोरी आ गई थी कि जिसके लिए डॉक्टर ने गोश्त का शिरवा खाने के लिए कहा था।
 गांधीजी ने कहा - ‘कस्तूरबा स्वतंत्र है, वे अपनी जीवनरक्षा के लिए गोश्त का शिरवा लेना चाहें, ले सकती हैं।’ 
लेकिन जब महात्मा गांधी ने उनसे पूछा तो कस्तूरबा गांधी ने कहा - ‘मैं आपकी गोद में मर जाऊँगी, लेकिन गोश्त का शिरवा नहीं खा सकती।’ 
गांधीजी ने स्वयं कस्तूरबा का प्राकृतिक इलाज किया, जिससे वे बहुतांश में स्वस्थ हो गईं। 
लेकिन भोजन में नमक का छोड़ना आवश्यक था। कस्तूरबा गांधी छोड़ने में असमर्थ थी। 
महात्मा गांधी ने कहा - ‘अब मैं भी नमक नहीं खाऊँगा।’ उन्होंने स्वयं नमक खाना छोड़ दिया। 
लाचार होकर कस्तूरबा ने भी नमक खाना छोड़ दिया। फिर वे पूर्ण स्वस्थ हो गई।
मांस-मछली खाने से बलवान होंगे, यह बात मानने योग्य नहीं।
 मथुरा के चौबे मत्स्य-मांस नहीं खाते। 
उनका थप्पड़ किसी को कान में लग जाय, तो बहरा ही बना देगा।
 मारवाड़ी लोग आपके यहाँ हैं। वे मत्स्य-मांस नहीं खाते, कितने अच्छे-अच्छे शरीरवाले हैं। 
बिना मत्स्य-मांस के ही उनके रोगों का इलाज होता है।
 किसी के घर में चोर-डाकू आवे तो उससे लड़ना चाहिए। देश के काम के लिए हमारे योग्य बलवाले उस दुष्ट को रोकें। 
जिस हिंसा की मनाही है, वह वार्य हिंसा के लिए है, अनिवार्य हिंसा से बचने के लिए नहीं। 
शौक से हिंसा मत करो।
 बकरे मारनेवाले को देखा कि मरने के छह महीने पूर्व उनको ऐसा भ्रम होने लगा कि बकरी सींग से मारने आती है। एक शौकीन हिंसा करनेवाले के लिए दो लाख रुपये खर्च किए गए, लेकिन वे बचे नहीं। 
कर्मफल अमिट है।

 संत कबीर साहब ने कहा है -
 *कहता हूँ कहि जात हूँ कहा जो मान हमार। 
जाका गर तू काटिहौ, सो फिर काट तोहार।। 
मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत।
 सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत।।
 यह कूकर को खान है, मानुष देह क्‍यों खाय।
 मुख में आमिख मेलता, नरक पड़े सो जाय।।

 किसी की चीज बिना उसके दिए मत लो। चोरी-डकैती मत करो। पंच पापों से यदि बचकर रहो, तो देश में चैन हो जाय। पाप करने के कारण ही देश में चैन नहीं है। 
चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि पाप करते रहने से कैसे चैन हो सकता है।
 भारत में पहले घर में ताला नहीं लगाया जाता था। आज क्‍या हो गया है? 
स्वराज्य हुआ, लेकिन सुराज नहीं हुआ है। 
पंच पापों को छोड़िए और ईश्वर-भजन कीजिए। 
तभी कल्याण होगा।
 संतों ने सबके उपकार के लिए कहा है। पसंद पड़े तो कीजिए, नहीं पसंद हो तो नहीं कीजिए।
 उसका जो फल होगा, वह भोगिए। 
मेरा कोई बल नहीं है कि जबर्दस्ती कहेंगे कि कीजिए ही।
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 यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ नगर, कुशहा तेलियारी ग्राम में दिनांक 28.6.1955 ई० को अपराह्न सत्संग में हुआ था।
श्री सद्गुरु महाराज की जय

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