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गुरुवार, 9 जनवरी 2025

बाहर फिरत विकल भय धायो-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

मैं तरुण कुमार आपके लिए आराध्य देव का प्रवचन को लेकर हाजिर हूं।एक बार पूरा प्रवचन को जरूर पढ़ें 🙏🕉️ जय गुरूदेव 🕉️🙏 बाहर फिरत विकल भय धायो-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज *धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!* इस समय के सत्संग में मैं ईश्वर-भक्ति के विषय में बोलूँगा। भक्ति के विषय में जो आप पहले से जानते हैं, हो सकता है मैं आपके अनुकूल कहूँ। अथवा उसके अतिरिक्त दूसरी तरह भी कह सकूँ। भक्ति की जानकारी के लिए पहले समझना चाहिए कि ईश्वर स्वरूपतः क्या है? इन्दियज्ञान से ईश्वर दूर है। चेतन आत्मा से ही जो पहचान में आवे, वही ईश्वर है। इन्द्रियों के ज्ञान में ईश्वर- स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता; क्यांकि इन्द्रियज्ञान में जो आता है, सो माया है। माया उसको कहते हैं, जिसकी बदली होती है, जिसका विनाश होता है और जो असत्य है। ईश्वर की बदली नहीं, ईश्वर का विनाश नहीं। माया जड़ है। ईश्वर चेतन को भी चेतन करनेवाला परम चेतन है। केवल चेतन आत्मा से ईश्वर का दर्शन होगा। बाहर में कहीं भी ईश्वर का दर्शन नहीं होगा, क्योंकि बाहर में इन्द्रियों से ही काम होता है। जो इन्द्रियज्ञान में नहीं है, उसको इन्द्रियों से पावेंगे, ऐसी आशा दुराशा मात्र है। ईश्वर का दर्शन बाहर में मानते हैं, तो ज्ञान के खिलाफ होता है और उसकी सत्यता सिद्ध नहीं होगी। बाहर में ईश्वर का दर्शन नहीं होता। यह विचार देकर संतों ने कहा है-ईश्वर को अपने अन्दर खोजो। (गो0 तुलसीदासजी महाराज) जिनका सात काण्ड रामायण है। विनय-पत्रिका में लिखते हैं- एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो । परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,बाहर फिरत विकल भय धायो ।। अर्थात् बाहर में खोजते रहे, तो विकल होते रहे, हैरान होते रहे। कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदासजी की जीवनी में लिखते हैं कि उनको बाहर में भी ईश्वर का दर्शन हुआ था। श्रीराम का दर्शन हुआ था। हनुमानजी से तुलसीदासजी ने प्रार्थना की कि मुझे राम के दर्शन कराइए। चित्रकूट में तब वे रहते थे। एक दिन वे चन्दन घिस रहे थे। उन्होंने देखा कि दो सुकुमार बालक आए हैं और चन्दन लगाने के लिए कह रहे हैं, तुलसीदासजी ने उन दोनों को तिलक लगा दिए, किन्तु वे पहचान न सके कि ये ही श्रीराम और लक्ष्मण हैंं। पुनः हनुमानजी से भेंट होने पर तुलसीदासजी ने कहा-‘मुझे राम के दर्शन नहीं हुए।’ हनुमानजी ने कहा-‘आपने पहचाना नहीं, जिन दो बालकों को आपने तिलक लगाए, वे ही राम और लक्ष्मण थे।’ तुलसीदासजी ने पुनः दर्शन करवाने के लिए उनसे प्रार्थना की। हनुमानजी ने कहा-‘अच्छा, फिर दर्शन होगा।’ उसके बाद तुलसीदासजी ने देखा कि दो सुन्दर किशोर बालक घोड़े पर जा रहे हैं। किन्तु इस बार भी वे पहचान न सके। हनुमानजी से भेंट होने पर उन्होंने समझाया- ‘घोडे़ पर जिन दो बालकों को आपने जाते देखा, वे ही दोनों बालक राम और लक्ष्मण थे।’ इस तरह गोस्वामी तुलसीदासजी राम और लक्ष्मण को देखकर भी पहचान न सके। यथार्थ में क्या ईश्वर-दर्शन ऐसा ही होता है कि ईश्वर-दर्शन हो और ज्ञान नहीं हो कि ईश्वरदर्शन हुआ? बाहर के दर्शन से, इन्द्रियां के ज्ञान से दर्शन होने पर वह परमात्मा का दर्शन नहीं होता। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है- रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।। नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा।। तुलसीकृत रामायण में योग का वर्णन भी किया है- सतगुरु ज्ञान विराग जोग के, विबुध बैद भव भीम रोग के।। मतलब यह कि रामचरितमानस में योग भी है, लेकिन देखने के लिए अन्तर्दृष्टि चाहिए। ‘उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुःख भव रजनीके।।’ इसको भी जानो। बाहर के दर्शन से क्या हुआ। कश्यप और अदिति ब्राह्मण थे और तप करने पर क्षत्रिय हुए। एक पद नीचे चले आए; क्योंकि क्षत्रिय, ब्राह्मण से नीचे होते हैं। माया दर्शन में माया के अंदर बहुत लाभ होता है। चमत्कारिक लोकों में जाना हो सकता है, लेकिन अपना ज्ञान नहीं होता। जबतक अपना दर्शन न हो, तबतक ईश्वर-दर्शन हुआ, कहा नहीं जा सकता। अन्दर में इसलिए दर्शन होगा कि जैसे-जैसे अन्दर जाओगे, बाहर की इन्द्रियों से छूटते जाओगे। स्वप्न में भी बाहर की इन्द्रियों से छूटा जाता है। यह विश्वास करना चाहिए कि अंतर्मुख होने से इन्द्रियों के ज्ञान से छूटते हैं। सुषुप्ति में भी इन्द्रियज्ञान से भिन्न रहते हैं। स्थूल शरीर मेेें जागने से ज्ञान होता है, उसमें तथा स्वप्न के ज्ञान से एवं सुषुप्ति के अचेतपन से भी छूटे रहोगे। यह अनुभूति की बात है, साधन की बात है। यही भक्ति-मार्ग में योग का स्थान आता है। भक्ति कहते हैं- सेवा करने को। किसी की आवश्यकता पूरी करनी, उनकी यह सेवा है। गंगा- सेवन करने लोग जाते हैं। वहाँ गंगा की सेवा क्या करो? गंगा में बकरी का बच्चा फेंकते हैं, लोग उसको लूटते हैं, यह भक्ति नहीं है। गंगाजल का स्पर्श करते हैं, पानी पीते हैं, उसकी हवा में रहते हैं; यह गंगा सेवन है। गंगाजी को कोई इच्छा नहीं, आप क्या सेवा कीजिएगा? जबसे ईश्वर का ज्ञान सुनकर वह ज्ञान प्राप्त करने लगे, तबसे ईश्वर-भक्ति आरम्भ हो गयी। ईश्वर की ज्योति भी आप देख सकें, तो मन पवित्र हो जाएगा। जो सत्संगी इसका यत्न जानते हैं, साधन-भजन करते हैं, अन्दर में कुछ भी पाते हैं, तब मन कैसा होता है, वे जानते हैं। वे पुनः-पुनः वैसा ही देखना चाहते हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, ईश्वर का प्रकाश मिलता गया, गोया ईश्वर का आशीर्वाद आता गया। ईश्वर की खोज में अन्दर-अन्दर चलना ईश्वर की भक्ति है। भक्ति वहाँ समाप्त हो जाती है, जहाँ ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है। तुलसीदासजी को बाहर में दर्शन नहीं हुआ। दर्शन होने पर भी वे पहचान न सके। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहि कोय । सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।। इस पर लोग ध्यान नहीं देते। स्थूल पर ही लौ लगाए रहते हैं, आगे बढ़ना नहीं चाहते। चाहिए कि अंतर्मुखी होकर खोज हो। जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। दृष्टि और मन को स्थिर करो। ‘बैठे ने रास्ता काटा। चलते ने बाट न पाई।।’ अन्दर में असली दर्शन होता है। अमायिक रूप का दर्शन करो। अन्दर चलने के लिए कबीर साहब ने कहा है-‘भक्ति का मारग झीना रे।’ उस पर चलने के लिए केवल चेतन आत्मा है। अपने को स्थूल दृष्टि में रखे हुए लोग सूक्ष्म दृष्टि में अपने को ले जाएँ। गुरु नानकदेवजी ने कहा है- भगता की चाल निराली । चाल निराली भगता केरी विखम मारगि चलणा ।। लबु लोभ अहंकार तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा ।। ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।। कठोपनिषद् में है- क्षूरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति । इसी बारीकी के कारण गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- रघुपति भगति करत कठिनाई । कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।। जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी । सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।। ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै । अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।। सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी । सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।। सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं । तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। सफरी की तरह सूक्ष्म हो जाओ। अपने को बहुत सम्भालो और सूक्ष्म में होकर उस तक पहुँचो। इसके लिए कला (विद्या) है, गुरु से भजन भेद लो और उसका अभ्यास करो। हमलोग अभी संसार के स्थूल तल पर हैं। सूक्ष्म की ओर बढ़ने के लिए शाम्भवी मुद्रा अथवा वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करो। अंदर चलने के लिए साधन लो और करो। संभव नहीं कि सूक्ष्म दृष्टि का अभ्यास नहीं हो सकेगा। अबतक जो ज्ञान हुआ है, साधन किया है, उसमें यह दृढ़ हो गया है। ‘थोड़ा बनिज बहुत ह्वै बाढ़ी उपजन लागे लाल मई ।’ ‘श्रद्धा किं? करिय जहँ प्रीति । लखि न अभाव होइ विपरीती।।’ अभाव होने पर विपरीत नहीं हो, विश्वास डिगे नहीं, करता चला जाय। लेकिन अन्धविश्वासी नहीं बनो। साधन करोगे, तो अन्धी श्रद्धा नहीं रहेगी। कभी कुछ भी सफाई आ जाय, तो अहोभाग्य है। थोड़ी भी शान्ति आ गई तो अहोभाग्य है। यह जल्दबाजी की बात नहीं है। रामचरितमानस की नवधा भक्ति में है- प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।। गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान । चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।। मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।। छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।। सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।। आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।। नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।। संतों का संग, कथा-प्रसंग, गुरु-सेवा, ईश्वर का गुणगान, मंत्र-जप; इस प्रकार पाँच भक्ति तक मन लगाने पर ही जोर है। छठी भक्ति में दमशील बनने कहा। शम-दम छोड़ दो तो योग कहाँ रहा? इन्द्रिय-निग्रह से मन सांसारिक विषयों को छोड़ता हैं सांसारिक विषयों को छोड़ने से निर्विषय की ओर होना होता है। तब ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ हो जाता है। मतलब यह कि छठी भक्ति में इन्द्रिय निग्रह होता है। सातवीं भक्ति है, मनोनिग्रह के लिए। मनोनिग्रह में एकाग्रता होती है और मन से चेतन आत्मा का संग छूट जाता है। यह अन्दर का रास्ता है। इस रास्ते में चलने को भक्ति कहते हैं। इसके अलावा जो भक्ति है, वह मनोनिग्रह के लिए ही है। पहले स्थूल उपासना करो। चाहे आप विष्णु की उपासना करो, शिव की उपासना करो वा शक्ति आदि की उपासना करो। इससे कुछ थोड़ा सिमटाव होता है; क्योंकि जिस रूप का ध्यान करोगे, उसमें कुछ सिमटाव होगा। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा है कि- पहले मेरे सम्पूर्ण शरीर का, बाद में चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करो। दृष्टियोग से रूप का ज्ञान होता है और शब्दयोग से अरूप का ज्ञान होता है। आकाश में बिजली चमकती है, लेकिन ठोकर पहले लगती है। पहले ठोकर लगती है, आवाज होती है, फिर बिजली चमकती है। आदि में शब्द है, फिर ज्योति। कम्प और शब्द ऐसा है कि उसको कोई अलग-अलग नहीं कर सकता। शब्द के अभ्यास में जो खिंचाव है, उससे खिंचकर परमात्मा तक पहुँचा जाता है। चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई । लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।। -दरिया साहब, बिहारी आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह । परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।। -कबीर साहब ईश्वर तक पहुँचने के लिए नाम-भजन करो। नाम-भजन का भेद जानो। श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक वर्णात्मक विधि तीन । त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीण।। भेद जाहि विधि नाम महँ, बिनु गुरु जान न कोइ । तुलसी कहहिं विनीत वर, जां बिरंचि सिव होइ ।। बन्दउँ राम नाम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।। विधि हरिहर मय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।। -गोस्वामी तुलसीदासजी मुँह से, मन से जो कहते-सुनते हो, वह निर्गुण शब्द नहीं है। नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।। -गोस्वामी तुलसीदासजी शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह । जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।। -कबीर साहब वर्णात्मक नाम से ईश्वर की पहचान नहीं होती। जाति नाम और सिफाती नाम राधास्वामी पन्थ के दूसरे गुरु ने कहा था। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों को मत करो। मनुस्मृति में अष्ट घातकों की चर्चा की है अर्थात् मारने की आज्ञा देनेवाला, मारनेवाला, टुकड़ा-टुकड़ा करनेवाला, बेचनेवाला, खरीदनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला; ये अष्ट घातक हैं। पण्डितजी कहते हैं कि खाने में दोष नहीं है, ऐसा भी लिखा है। मैं कहता हूँ- नहीं खाय तो महाफल होगा, ऐसा भी लिखा है। तो खानेवाले तो महाफल से वि०चत रहेंगे। एक योगी ने लिखा कि जल-जन्तु वा पशु के गुण उसके मांस में रहते हैं, उसके खानेवाले में पाशविक वृत्ति हो जाती है। एक महीने मांस-मछली नहीं खाओ और तब तुम्हारा मन कैसा रहता है, देखो और दूसरे महीने में खाकर देखो कि कैसा रहता है? दोनों को मिलाओ तो आप स्वयं छोड़ दोगे। महात्मा गाँधीजी ने अण्डा खाने के लिखा, सो लोगों ने पकड़ लिया। लेकिन अण्डा नहीं खाने के विषय में जो उन्होंने कहा, उसको माननेवाले कोई नहीं। हमलोगों को स्वराज्य प्राप्त है, लेकिन सुराज्य नहीं है। यह सुराज्य लाना जनता के हाथ में है। पंच पापों को छोड़ने से स्वराज्य में सुराज्य होगा। ईश्वर सर्वव्यापक हैं, ऐसा हमलोग मानते हैं। कितनों का ख्याल है कि ईश्वर सर्वव्यापक नहीं हैं। कोई कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म को अपने तईं का भी ज्ञान नहीं हैं। जैसे चार चीजें मिलाकर गण्डा होता है, उसी तरह से बहुत से अणु चैतन्य को मिलाकर ईश्वर होता है।’ ये सब गलत बातें हैं। लोगां को इन प्रचारों से बचना चाहिए। ईश्वर-भक्ति का मोटा प्रचार भी बहुत होता है। मोटी भक्ति भी नहीं छोड़ो और सूक्ष्म भक्ति को भी नहीं छोड़ो। राम के उपासक शिव के उपासक नहीं हैं, ऐसा कहना संकीर्ण बुद्धि का काम है। शिव के उपासक राम के उपासक या भक्त नही हैं, संकीर्णता है। पहले सगुण, पीछे निर्गुण उपासना होती है। अनेक निर्गुणों के ऊपर के निर्गुण को जानो। सांख्य दर्शन के अनेक निर्गुण पुरुषों के ऊपर एक ही एक निर्गुण है। इसीलिए हम उनको जानें। जिस निर्गुण ब्रह्म को अपने तईं का ज्ञान नहीं हैं, ऐसे प्रचार से बचो। निर्गुण तक पहुँचने के लिए निर्गुण शब्द को अवश्य पकड़ो। शब्द की समाप्ति जहाँ हो गई, तब ‘निःशब्दं परमं पदम्’ हो जाएगा। झूठ सब दुर्गुणों का थैला है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पापों से बचो। कोई बड़ा है, लेकिन उसकी झुठाई पकड़ी जाय, तो उसका सारा बड़प्पन दूर हो जाएगा। द *************** *यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 12. 4. 1966 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।* *************** पूरा प्रवचन को पढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और साधुवाद! और अधिक से अधिक शेयर करें

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