दत्तात्रेय जी महाराज ने राजा से कहा देखो राजा मैं जिससे जो शिक्षा ग्रहण किया हूं उसको मैं अपना गुरु मान लिया हूं आज मैं अपने 24 गुरुओं के बारे में सबसे पहले प्रथम गुरु के बारे में बताने जा रहा हूं मैंने प्रथम गुरु पृथ्वी को माना हूं क्योंकि पृथ्वी जैसा सहनशील दुनिया में कोई नहीं है और उससे मैंने यही शिक्षा पाया कि दुनिया के जितने भी हैं जी सब उसी पर अपना सुख पाते हैं तरह-तरह का कष्ट देते हैं और सभी तरह का कष्ट भोगने के बावजूद भी वह हमेशा क्षमा करता है हमेशा दया करता है और हमेशा अपने पथ पर अग्रसर रहता है तो मैंने भी अपने प्रथम गुरु पृथ्वी से यही शिक्षा पाया हूं कि चाहे कितना भी विकास विकट परिस्थिति क्यों ना जाए हमेशा धैर्य के साथ तटस्थ रहना चाहिए और आगे हमेशा बढ़ने की कोशिश करना चाहिए चाहे कितनी ही विकट परिस्थिति क्यों ना आ जाए और इन्होंने की कोई कितना भी आपको तकलीफ दे उससे विचलित नहीं होगा अपने लक्ष्य की ओर हमेशा अग्रसर रहें तो आपको अवश्य सफलता मिलेगी और इतना ही नहीं वही आदमी आगे तक जाता है जो कष्ट सहता है तो हे राजन् मैंने इसलिए पृथ्वी को अपना गुरु माना और उसमें भी प्रथम गुरु मैंने पृथ्वी को ही माना जो बहुत ही सहनशील है बहुत ही प्यारी है बहुत ही हरी-भरी है जो हमेशा दूसरों के लिए जीती है उपकार के लिए जीती है हमेशा परोपकार करती है और हमेशा दया करती है और हमेशा सेवा की भावना रखती है पृथ्वी को सबसे ज्यादा तकलीफ तो पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य देते हैं तरह-तरह की यातनाएं देते हैं तरह-तरह का उस पर व्यवहार करते हैं फिर भी अगर उसमें फसल लगाते हैं वह अच्छा उपज देती है और खुशी-खुशी सुख देती है और हमेशा दया करती है और कभी नहीं मनुष्यों पर वह अपना कुर्ता दिखाती है ठीक उसी तरह मैंने भी इससे यही सीखा हूं कि हमेशा दया क्षमा करना चाहिए और अपने पथ पर अग्रसर रहना चाहिए क्योंकि पृथ्वी में हम को क्षमाशील बनना सिखाया दया करना सिखाया और हमेशा अपने पथ पर आगे बढ़ना सिखाया चाहे कितना भी कोई कष्ट में समय क्यों ना हो
शुक्रवार, 24 मई 2019
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