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शुक्रवार, 31 मई 2019

दत्तात्रेय जी महाराज के द्वितीय गुरु:-प्राण वायु

दत्तात्रेय जी महाराज के 24 गुरु हुए दत्तात्रेय जी महाराज ने जिस जिस से जो ज्ञान पाया उसको उन्होंने गुरु माना आज दत्तात्रेय जी महाराज के दूसरे गुरु प्राण वायु के बारे में बताने जा रहा हूं दत्तात्रेय जी महाराज ने राजा से कहा राजन मैं अपना दूसरा गुरु प्राण वायु को मानता हूं और उससे मैंने यह सीखा कि जिस तरह से थोड़ा आहार लेने के बाद प्राणवायु संतुष्ट हो जाता है उसी तरह से चाहे कोई भी व्यक्ति क्यों न हो और साधक बंधु भी क्यों ना हो सबों को जितना जीवन में चाहिए उतना पाकर थोड़ा सा में ही संतुष्ट हो जाना चाहिए यही हमको प्राणवायु सिखाता है और बाहर के वायु हमें यह शिक्षा मिला की संसार में अनेकों जगह पड़ गया अनेकों तरह के संपर्क में आया लेकिन किसी भी तरह के विकार को अपने साथ नहीं रखा निर्लेप से रहा उसी तरह से उसी तरह से हमको भी चाहिए कि संसार में रहते हुए संसार का कार्य करते हुए ईश्वर भजन करना चाहिए और संसार से अनासक्त होकर रहना चाहिए यही हमको बाहर की प्राणवायु शिक्षा देती है संसार में अगर अनासक्त भाव से रहेंगे तो सुख और शांति का अनुभव करेंगे अगर आसक्त भाव से रहेंगे तो जरूर ही दुख का अनुभव होता है और वही जब उसका विकार बढ़ता है तो अधिक से अधिक दुख का अनुभव होता है इसलिए हमें प्राणवायु के तरह थोड़ा में ही संतुष्ट होकर रहना सीखना चाहिए और बाहर के प्राण वायु की तरह हमें यह ज्ञात और यह ज्ञान हमेशा याद रखना चाहिए कि अनासक्त भाव से रहे संतुष्ट रहें और इसी पर समझाते हुए दत्तात्रेय जी महाराज ने कहा कि राजन संसार में जितने भी साधक गण है या सामाजिक प्राणी है उसको हमेशा निर्लिप्त भाव से अनासक्त भाव से संसार में जीवन बिताना चाहिए अगर वह अनासक्त भाव से जीवन बिताएंगा तो उसको दुख हरिया विपत्ति आने पर भी दुख और विपत्ति का एहसास नहीं होगा और साधना करने में भी मन लगेगा और जतन भी लगेगा और संतुष्टि रखना थोड़ा सा भी है तो उसमें संतुष्ट रहना यह सबसे बड़ी उपलब्धि है और यह प्राणवायु हमको वही सिखाया और उसी को धारण करके वही ज्ञान को मैंने धारण करके प्राणवायु को दूसरा गुरु माना क्योंकि यह हमें संतुष्टि और अनासक्त भाव से रहने का ज्ञान संसार में देता है

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