-:जय गुरु :-
आज आप लोगों को बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने जो अपने अमृत मयी वाणी को हम मनुष्य को बताया
और जो मोक्ष पद है जिनका अक्षर से पालन करने से मनुष्य अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करता है और बहुत का कल्याण हुआ और बहुतों का उद्धार भी हुआ
तो यह किसके माध्यम से हुआ यह गुरु महाराज के उपदेश और वह सब का एक ही साल है संतमत की परिभाषा सत्संग योग का चौथा भाग गुरु महाराज के अपना अनुभव वाणी है
और इसे मोक्ष दर्शन भी कर सकते हैं
मोक्ष ज्ञान की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं
और इसी से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त भी होता है
तो आइए सज्जनों ध्यानपूर्वक पढ़ें मोक्ष दर्शन का अनुभूति लें
1. शांति स्थिरता व निश्चल ता को कहते हैं ।
2.शांति को जो प्राप्त कर लेते हैं संत कहलाते हैं ।
3.संतो के मतवा धर्म को संतमत कहते हैं।
4. शांति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्य के हृदय में स्वभाविक ही हैं
प्राचीन काल में ऋषि यों ने इसी प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि संतों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया इन विचारों को ही संतमत कहते हैं।
परंतु संतमत की मूल भित्ति तो उपनिषद के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं क्योंकि जिस ऊंचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुंचाने के जिस विशेष साधन नादानुसंधान अर्थात सुरत शब्द योग का गौरव संतमत को है वे तो अति प्राचीन काल की इसी भक्ति पर अंकित होकर जगमग आ रहे हैं भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में संतो के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथकत्व ज्ञात होता है। परंतु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचारा जाए और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाए तो यही सिद्ध होगा कि सब संतों का एक ही मत है।
5. चेतन और जड़ के सब मंडल शांत अंत सहित और अन अस्थिर है ।
6.सारे संतों के पार में अनंत भी अवश्य ही है ।
7.अनंत एक से अधिक कदापि नहीं हो सकता और न इससे भिन्न किसी दूसरे तत्व की स्थिति हो सकती है ।
8.केवल अनंत तत्व ही सब प्रकार अनादि हैं।
9. इस अनादि अनंत तत्व के अतिरिक्त किसी दूसरे अनादि तत्व का होना संभव नहीं है।
10.जो स्वरूप से अनंत हैं उसका अपरंपार शक्ति युक्त होना परम संभव है।
11.अपरा जड़ और परा चेतन दोनोंं प्रकृति के पार में अवगुण और सगुण पर अनादि अनंत स्वरूपी अपरंपार शक्ति युक्त देश कालातीत शब्दा अतीत नाम रूपातीत और अद्वितीय मन बुद्धि और इंद्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मंडल एक महान यंत्र की नई परिचालित होता रहता है जो न व्यक्ति है और ना व्यक्त है जो माइक विस्तृतत्व विहीन है जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है जो परम सनातन परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है
संतमत में उसे ही परम अध्यात्म पद वा परम अध्यात्म स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर कुल मालिक मानते हैं।
12. परा प्रकृति व चेतन प्रकृति व कैवल्य पद त्रयगुण रहित और सच्चिदानंद मय है
और अपरा प्रकृति वा जड़ात्मक प्रकृति त्रयगुणमयी है ।
13.त्रयगुण के सम्मिश्रण रूप को जरात्मक मूल प्रकृति कहते हैं ।
14.परम प्रभु सर्वेश्वर व्याप्य अर्थात समस्त प्रकृति मंडल में व्यापक है
परंतु ब्याप्य को भरकर ही वे मर्यादित नहीं हो जाते हैं वह ब्याप्य के बाहर और कितने अधिक हैं इसकी कल्पना भी नहीं हो सकती क्योंकि वे अनंत है।
15. परम प्रभु सर्वेश्वर अंशी है और सच्चिदानंद ब्रह्म ॐ ब्रह्म और पूर्ण ब्रह्म अगुण एवं शगुन आदि ब्रह्म ईश्वर तथा जीव उसके अटूट है जैसे मठाकाश घटा काश और पटाकाश महदाकाश के अंश हैं ।
16.प्रकृति के भेद रूप सारे व्याप्यों के पार में ,सारे नाम रूपों के पार में और वर्णनात्मक ध्यानात्मक आहत अनाहत आदि सब शब्दों के पड़े आच्छादन विहीन शांति का पद है वही परम प्रभु सर्वेश्वर का जड़ातीत चैतन्दियातीत निज अचित्य स्वरूप है
और उसका यही स्वरूप सारे आच्छादनो में भी अंश रूपों में व्यापक है
जहां अच्छादनों के भेदों के अनुसार परम प्रभु के अंशों के ब्रह्म और जी वादी नाम है
अंश और अंशी तत्व रूप में निश्चय ही एक है परंतु अणुता और विभूता का भेद उनमें अवश्य है
जो अच्छादनों के नहीं रहने पर नहीं रहेगा।
17. परम प्रभु के निज स्वरूप को ही आत्मा व आत्म तत्व कहते हैं और इस तत्व के अतिरिक्त सभी अनाआत्म तत्व है।
18. आत्मा सब शरीरों में शरीर बा सब देहों में देही वा सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ है।
19. शरीर वा देह वा क्षेत्र इसके सब विकार और इसके बाहर और अंतर के सब स्थूल सूक्ष्म अंग प्रत्यंग अनात्मा है ।
20.पड़ा प्रकृति अपरा प्रकृति और इन से बने हुए सब नामरूप पिंड ब्रह्मांड स्थूल सूक्ष्म कारण महाकाल और केवल रहित चैतन्य निर्मल चेतन सब के सब अनात्मा है।
21.अनात्मा के प्रसार को अच्छादन मंडल कहते हैं।
22. जडात्मक अच्छादन मंडलों के केवल पार ह में परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है। जरा आत्मक मंडल चार रूपों में है वह स्थूल सूक्ष्म कारण और महा कारण कहलाते हैं कारण कि खानी को महा कारण कहते हैं इससे आगे अगला अंश में जय गुरु अवश्य पर हैं और जीवन में उतारें और अगला अंश पढ़ने के लिए
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