सज्जनों आप लोगों को आज महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की मोक्ष ज्ञान का भाग 5 लेकर आया हूं अगर आप पिछला 4 भाग तक नहीं पढ़े हैं तो आप उस अंश को भी पढ़ सकते हैंं। निचा में सब दिया हुआ है।
59. सृष्टि के जिस मंडल में जो रहता है उसके लिए प्रथम
उसी मंडल के तत्व का अवलंब ग्रहण कर सकना
स्वभाव अनुकूल होता है ।
स्थूल मंडल के निवासियों को प्रथम स्थूल का ही अवलंब लेना
स्वभाव अनुकूल होने के कारण सरल होगा।
अतः मन के सिमटाव के लिए प्रथम परम प्रभु सर्वेश्वर केे किसी वर्णनात्मक नाम के मानस जप का तथा परम प्ररभु सर्वेश्वर के किसी उत्तम स्थूल विभूति रूप के मानस ध्यान का अवलंब लेकर मन के सिमटाव का अभ्यास करना चाहिए ।
परम प्रभु सर्वेश्वर सारे प्रकृति मंडल और विश्व ब्रह्मांड मेंं ओतप्रोत व्यापक है सृष्टि केे तेजवान विभूति वान और उत्तम धर्म वान उनकी विभूतियां है।
उपर्युक्त अभ्यास से मन को समेट मेंं रखने की कुछ शक्ति प्राप्त करके सूक्ष्मता में प्रवेश करने के लिए सूक्ष्म अवलंब को ग्रहण करने का अभ्यास करना चाहिए।।
सूक्ष्म अवलंब बिंदु है। बिंदु को ही परम प्रभु सर्वेश्वर का अनु से भी अनुरूप कहते हैं ।
परिणाम शून्य ,नहीं विभाजित होने वाला चिन्ह को बिंदु कहते हैं। इसको यथार्थतः बाहर मेंं बाल की नोक सेे भी चिन्हित करना असंभव है इसका इसलिए बाहर में कुछ अंकित करके और उसे देखकर उस इसका मानस ध्यान करना भी असंभव है।
इस का अभ्यास अंतर में दृष्टि योग करनेे से होता है ।
दृष्टि योग में और पुतलियों को उल्टा ना और किसी प्रकार इस पर जोर लगाना अनावश्यक है ऐसा करने से आंखों में रोग होते हैं।
दृष्टि देखने की शक्ति को कहते हैं।
दोनों आंखों की दृष्टिओं को मिलाकर मिलन स्थल पर मन को टीका कर देखने से एक बिंदुता प्राप्त होती है इसको दृष्टि योग कहते हैं।
इस अभ्यास से सूक्ष्म व दिव्य दृष्टि खुल जाती है। मन की एकबिंदुता प्राप्त करने के लिए अवस्था में स्थूल और सूक्ष्म मंडलों के संधि बिंदु वा स्थूल मंडल के केंद्र बिंदु से उत्थित नाद का व अनहद ध्वन्यात्मक शब्द सूरत को ग्रहण होना पूर्ण संभव है।
क्योंकि सूक्ष्मता में स्थिति रहने के कारण सूक्ष्म नाद का ग्रहण होना असंभव नहीं है ।
शब्द में अपने उद्गम स्थान पर सूरत को आकर्षण करने का गुण रहने के कारण इस शब्द के मिल जाने पर शब्द से शब्द में सूरत खींचती हुई चलती चलती शब्दातीत पद परम प्रभु सर्वेश्वर तक पहुंच जाएगी।
इसके लिए सद्गुरु की सेवा उनके सत्संग उनकी कृपा और अतिसय ध्यान अभ्यास की अत्यंत आवश्यकता है।
60. दृष्टि योग बिना ही शब्द योग करने की विधि यद्यपि उपनिषदों और भारतीय संतवाणी में नहीं है तथापि संभव है कि बिना दृष्टि योग के ही यदि कोई सुरत शब्द योग का अत्यंत अभ्यास करें तो कभी ना कभी स्थूल का केंद्रीय शब्द उससे पकड़ा जा सके।
और तब उस अभ्यासी के आगे का काम यथोचित होने लगे इसका कारण यह है कि अंतर के शब्द में ध्यान लगाने से यही ज्ञात होता है कि सुनने में आने वाले सब शब्द ऊपर की ओर से आ रहे हैं नीचे की ओर से नहीं।
और वह केंद्रीय शब्द भी ऊपर की ओर से प्रवाहित होता है।
शब्द ध्यान करने से मन की चंचलता अवश्य छूटती है।
मन की चंचलता दूर होने पर मन सूक्ष्मता में प्रवेश करता है ।
सूक्ष्मता में प्रवेश किया हुआ मन उस केंद्रीय सूक्ष्म नाद को ग्रहण करें यह आश्चर्य नहीं है परंतु उपनिषदों की और भारतीय संतवाणी की विधि को ही विशेष उत्तम जानना चाहिए ।।
"शब्द की डगर पर चढ़े हुए की दुर्गति और अधोगति असंभव है"
झूठ ,चोरी ,नशा ,हिंसा तथा व्यभिचार इन पापों से नहीं बचने वाले को वर्णित साधनों में सफलता प्राप्त करना भी असंभव है।
नीचे के मंडलों के शब्दों को धारण करते हुए तथा उनसे आगे बढ़ते हुए अंत में आदिनाद व आदि शब्द या सार शब्द का प्राप्त करना पुनः उसके आकर्षण से उसके केंद्र में पहुंचकर शब्दातीत पद के पाने की विधि उपनिषदों और भारतीय संत वाणी से जानने में आती है।।
तथा यह विधि युक्तियुक्त भी है इसलिए इससे अन्य विधि शब्दातीत अर्थात अनाम पद तक पहुंचने की कोई और हो सकती है मानने योग्य नहीं है ।
और अनाम तक पहुंचे बिना परम कल्याण नहीं।।
61. वर्णित साधनों से यह जानने में साफ-साफ आ जाता है।
कि पहले स्थूल सगुण रूप की उपासना की विधि हुई फिर सूक्ष्म सगुण रूप की उपासना की विधि हुई,
फिर सूक्ष्म सगुण रूप की उपासना की विधि और अंत में निर्गुण निराकार की उपासना की विधि हुई।
62. मानस जप और मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है। एकबिंदुता वह अनु से भी अनुरूप प्राप्त करने का अभ्यास सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है ।
सार शब्द के अतिरिक्त दूसरे सब अनहद नाद ओं का ध्यान सूक्ष्म कारण और महा कारण शगुन अरूप उपासना है।
और सार शब्द का ध्यान निर्गुण निराकार उपासना है ।
सभी उपासना कि यहां समाप्ति है।
परंतु इससे यह नहीं जानना चाहिए कि इसके अतिरिक्त दूसरे सब मायिक शब्दों में के शब्दों का ध्यान करना ही नहीं चाहिए, क्योंकि यह दूसरे शब्द मायावी हैं।
इनके ध्यान से अभ्यासी अत्यंत अधोगति को प्राप्त होगा।
सारशब्द के अतिरिक्त अन्य किसी भी शब्द के ध्यान की उपर्युक्त निषेधात्मक उक्ति उपनिषद और भारती संतवाणी के अनुकूल नहीं है।
और न युक्ति युक्त ही है अतः मानने योग्य नहीं है।
संख्या 44, 45, 46 ,59,60 की वर्णित बातें इस विषय का अच्छी तरह बोध दिलाती है।।
63. दृष्टि योग से शब्द योग आसान है यह वर्णन हो चुका है।
कि एकबिंदुता प्राप्त करने तक के लिए दृष्टि योग अवश्य होना चाहिए
परंतु और विशेष दृष्टि योग कर तब शब्द अभ्यास करने का ख्याल रखना अनावश्यक है ;
क्योंकि इसमें विशेष काल तक कठिन मार्ग पर चलते रहना है।
64.एकबिंदुता प्राप्त किए हुए रहकर शब्द में सूरत लगा देना उचित है दोनों से एक ही और को खींचाव होगा ।शब्द में विशेष रस प्राप्त होने के कारण पीछे बिंदु छूट जाएगा और केवल शब्द ही शब्द में सूरत लग जाएगी तो कोई हानि नहीं यही तो होना ही चाहिए ।।
65.केवल दृष्टि योग से जरात्मक प्रकृति के किसी मंडल के घेरे में पहुंचकर दूसरे किसी शब्द के अभ्यास का सहारा लिए बिना वहां की सार शब्द के पकड़ने का ख्याल युक्तियुक्त नहीं होने के कारण मानने योग्य नहीं है।।
क्योंकि जड़ का कोई भी आवरण सार धाड़ अर्थात निर्मल चेतन धार का अपरोक्ष ज्ञान होने देने में अवश्य ही बाधक है ।
जरात्मक मूल प्रकृति के बनने के पूर्व ही आदि शब्द अर्थात सार शब्द का है उपासनाओं को संपूर्णतः समाप्त किए बिना शब्दातीत पद( अनाम) तक अर्थात परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुंच प्राप्त कर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असंभव है।।
66. निशब्द अथवा अनाम से शब्द अथवा नाम की उत्पत्ति हुई है इसके अर्थात नाम के ग्रहण से इसके आकर्षण में पड़कर इससे आकर्षित हो निःशब्द व शब्दातीत व अनाम तक पहुंचना पूर्ण संभव है।।
67. अनाम के ऊपर कुछ और का मानना व अनाम के नीचे रचना के किसी मंडल में अशब्द की स्थिति मानना बुद्धि -विपरीत है ।
68.उपनिषदों में शब्दातीत पद को ही परम पद कहा गया है ।।
और श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्रज्ञ कह कर जिस तत्व को जनाया गया है ।
उससे विशेष कोई और तत्व नहीं हो सकता है ।
इसलिए उपनिषदों तथा श्रीमद्भगवद्गीता में बताए हुए सर्वोच्च पद से भी और कोई विशेष पद है ऐसा मानना व्यर्थ है ।।
जो ऐसा नहीं समझते और नहीं विश्वास करते उनको चाहिए कि शब्दातीत पद के नीचे रचना के किसी मंडल में निशब्द का होना तथा क्ष त्र ज्ञ से विशेष और किसी तत्व की स्थिति को संसार के सामने विचार से प्रमाणित कर दें परंतु ऐसा करना कर सकना असंभव है ।।
विचार से सिद्ध और प्रमाणित किए बिना ऐसा कहना कि मेरे गुरु ने उपनिषद् आदि में वर्णित पद से ऊंचे पद को बतलाया है ।
ठीक नहीं क्योंकि इस तरह दूसरे भी कहेंगे कि मैं आप से भी ऊंचा पर जानता हूं ।।
69.इसमें संदेह नहीं है कि केवल एक सारशब्द वा आदि शब्द ही अंतिम पद अर्थात शब्दातीत पद तक पहुंचाता उदय हुआ है ।
इसलिए यह शब्द रूप धार निर्मल चेतन धार है।।
70. विविध सुंदर दृश्यों से सजे हुए मंडप में मीठे सुरीले स्वर से गानों और बजाओ को संलग्न होकर सुनते रहने पर भी मंडप के दृश्य का गौन रूप में भी देखना होता ही है।
उसी प्रकार जरात्मक दृश्य मंडल के अंदर शब्द ध्यान में रत होते हुए भी वहां के दृश्य अवश्य देखे जाएंगे।। इसलिए कहा गया है कि
"ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिः"।
केवल शब्द ध्यान भी ज्योति मंडल में प्रवेश करा दें इसमें आश्चर्य नहीं ।
👉ज्योति ना मिले तो उतनी हानि नहीं
जितनी हानि की शब्द के नहीं मिलने से।।
✍ सज्जनों भाग 5 आप लोगों के सामने प्रस्तुत रहा और भाग 6 भी लेकर आ रहा हूं
तब तक आप भाग 1 से 5 तक पूरा पढ़ें जो नीचे दिया गया है ।
और सद्गुरु की अमृतवाणी को एकाग्र चित्त होकर श्रवण मनन करें
और मोक्ष के गुडगूढ़
।।जय गुरु।।
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