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शनिवार, 4 अप्रैल 2020

मेंहीं बाबा का मोक्ष ज्ञान भाग 4

संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की अमृतवाणी मोक्ष दर्शन भाग 4 आप लोगों के सामने प्रस्तुत है।
51. स्थूल के फैलाव से सूक्ष्म का फैलाव अधिक होता है ।
अनादि अनंत स्वरूपी से बढ़कर फैलाव और किसी का होना असंभव है।
 इसलिए यह सबसे अधिक सूक्ष्म है।
 स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्व का ग्रहण नहीं हो सकता है ।
बाहर की और भीतर की सब इंद्रियों( हाथ, पैर, मुंह लिंग ,गुदा यह पांच कर्म इंद्रियां है ,और आंख, कान नाक, चमडा,जीभ यह पांच ज्ञानेंद्रियां है; कर्म इंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां बाहर की इंद्रियां है ।
मन ,बुद्धि, चित्त ,और अहंकार यह चार भीतर की इंद्रियां है ।)
जिनके द्वारा बाहर व भीतर में कुछ किया जा सकता है ।
उस अनादि अनंत स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर से स्थूल और अत्यंत स्थूल है ।
इनसे वे ग्रहण योग कदापि नहीं है।।
 इंद्रिय मंडल तथा जड़ प्रकृति मंडल में रहते हुए उसको प्रत्यक्ष रूप से जानना संभव नहीं है।

 "अतः अपने को इनसे आगे पहुंचा कर उनको प्रत्यक्ष पाना होगा"
 इस कारण परम प्रभु सर्वेश्वर को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करने के लिए अपने शरीर के बाहर का कोई साधन करना व्यर्थ है ।
बाहरी साधन से जरात्मक आवरण व शरीरों को पार कर कैवल्य दशा को प्राप्त करना अत्यंत असंभव है।
 और शरीर के अंतर ही अंतर चलने से आवरणो का पार करना पूर्ण संभव है।
 इसके लिए जागृत और स्वप्न अवस्थाओं की स्थितियां प्रत्यक्ष प्रमाण है।
 यह कहना की परम प्रभु सर्वेश्वर सर्वव्यापक है।
 अतः वे सदा प्राप्त ही हैं,  उनको प्राप्त करने के लिए बाहर वा अंतर यात्रा करनी अयुक्त है
 और यह भी कहना कि परम प्रभु सर्वेश्वर अपनी किरणों से सर्व व्यापक है ।
पर अपने निज स्वरूप से एक देशीय ही है।
 इसलिए उन तक यात्रा करनी है यह दोनों ही कथन ऊपर वर्णित कारणों से अयुक्त और व्यर्थ है।
 एक को तो प्रत्यक्ष प्राप्त नहीं है, वह मन मोदक से भूख बुझाता है और दूसरा यह नहीं ख्याल करता की एक देशीय है, वा परिमीत स्वरूप वाले की किरणों का मंडल भी परिणीति ही होगा।
 वह किसी तरह अनादि अनंत स्वरूप नहीं हो सकता है।।
 एक अनादि अनंत स्वरूपी की स्थिति अवश्य है 
यह बुद्धि में अत्यंत थिर है 
अपरिमित पर परिमित शासन करें यह संभव नहीं ।।
परम प्रभु सर्वेश्वर को अनादि अनंत स्वरूपी वा अपरिणीति अवश्य मानना होगा।
 उनको अपरोक्ष रूप से प्राप्त करने के लिए क्यों अंतर में यात्रा करनी है 
इसका वर्णन ऊपर हो चुका है।

52. अंतर में आवर्णों से छूटते हुए चलना परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने के लिए चलना है ।
यह काम परम प्रभु सर्वेश्वर की निज भक्ति है या यह पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का  अव्यर्थ साधन है।
 इस अंतर के साधन को आंतरिक सत्संग भी कहते हैं।।


53. ऊपर कही गई बातों के साथ भक्ति के विषय की अन्य बातों के श्रवण और मनन की अत्यंत आवश्यकता है ।
अतः इसके लिए बाहर में सत्संग करना परम आवश्यक है।

54. अंतर साधन की युक्ति और साधन में सहायता सद्गुरु की सेवा करके प्राप्त करनी चाहिए।
 और उनकी बताई हुई युक्ति से नित्य एवं नियमित रूप से अभ्यास करना परम आवश्यक है।।

55. जागृत से स्वप्न अवस्था में जाने पर अंतर ही अंतर स्वभाविक चाल होती है,
 और इस चाल के समय मन की  चिंताएं छूटती है।तथा विचित्र चैन  सा मालूम होता है,
 अतः चिंता को त्यागने से अर्थात मन को एकाग्र करने से
 व मन को एकबिंदुता प्राप्त होने से 
अंतर ही अंतर चलना तथा विचित्र
 चैन का मिलना पूर्ण संभव है।।

                है कुछ रहनि गहनि की बाता।
                 बैठा रहे चला पुनि जाता।।
                                            (कबीर साहब)

बैठे ने रास्ता काटा चलते ने बाट न पाई।।                                                         (रामास्वामी साहब)

56. किसी चीज का किसी और से सिमटाव होने पर उसकी गति उस ओर कि विपरीत ओर को स्वभाविक ही हो जाती है ।
स्थूल मंडल से मन का सिमटाव होकर जब मन 
एकबिंदुता प्राप्त करेगा ।
तब स्थूल मंडल के विपरीत सूक्ष्म मंडल में उसकी गति अवश्य हो जाएगी।।

57. दूध में घी की तरह मन में चेतन वृत्ति वा सूरत है ।
मन के चलने से सूरत भी चलेगी
 ।मन सूक्ष्म जड़ है।
वह जडात्मक कारण मंडल से ऊपर नही जा सकता है ।यहां तक ही मन के संग सुरत का चलना हो सकता हैं ।
इसके आगे मन का संग छोड़कर सुरत की गति हो सकेगी ।
 क्योंकि जडात्मक मूल प्रकृति मंडल के ऊपर में इसका निज मंडल हैं ।
जहां से आई है।।

58.संख्या 35 में सर्वेश्वर के ध्वन्यात्मक नाम का वर्णन हुआ है ।
ध्वन्यात्मक अनाहत आदि शब्द परम प्रभु सर्वेश्वर का निज नाम वा जाति नाम वा  उनके स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान करा देनेे वाला नाम है।
 और जिन वर्णनात्मक शब्दों से इस ध्वन्यात्मक नाम को परम प्रभु सर्वेश्वर को लोग पुकारते हैं।
 उन सब वर्णनात्मक शब्दों से उपर्युक्त ध्वन्यात्मक नाम का तथा परम प्रभुु गुण वर्णन होता है।
 इसलिए परम प्रभु  के उन वर्णनात्मक शब्दों को परम प्रभुु का  सिफाती कहते हैं ।
इन नामों से परम प्रभु सर्वेश्वर की तथा उनके निज धाम की स्थिति का केवल गुण व्यक्त होते हैं।
 परंतु उनका अपरोक्ष ज्ञान नहीं होता है।।



🗣सज्जनों यह चौथा अंक आप लोगों के सामने रहा और पांचवा अंक भी आप लोगों को के लिए अवश्य लेकर आ रहा हूं और इस को पूरा अध्ययन करें और मनन करें और मोक्ष के बारे में पूरा पूरा जाने और भी जानने के लिए इस ब्लॉग पर और पोस्ट भी है उनको भी अवश्य पढ़ें 
                           🙏 ।।जयगुरू।।🙏

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