सज्जनों और भक्तजनों आइए
मेही बाबा का मोक्ष विज्ञान भाग 6
आप लोगों के सामने प्रस्तुत है
और मोक्ष के गहन विषय को सरल सरल शब्दों में समझें
71.सार शब्द अलौकिक शब्द है।।
परम अलौकिक से ही इसका उदय है।
विश्व ब्रह्मांड तथा पिंड आदि की रचना के पूर्व ही इसका उदय हुआ है।।
इसलिए वर्णनात्मक शब्द जो पिंड के बिना हो ही नहीं सकता।
अर्थात मनुष्य पिंड ही जिसके बनने का कारण है या यूं भी कहा जा सकता है कि लौकिक जिसके बनने का कारण है।।
उसमें सार शब्द की नकल हो सके कदापि संभव नहीं है।
सार शब्द को जिन सब वर्णनात्मक शब्दों के द्वारा बनाया जाता है उन शब्दों को बोलने से जैसी जैसी आवाजें सुनने में आती है ।
सार शब्द उनमें से किसी की भी तरह सुनने में लगे यह भी कदापि संभव नहीं है ।
राधा स्वामी जी के यह दोहे हैं कि:-
"अल्लाहु त्रिकुटी लखा,जाय लखा हा सुन्न।
शब्द अनाहू पाइया, भंवर गुफा की धुन्न।।
हक्क हक्क सरनाम धुन,पाई चढ सच खंड ।
संत फरक बोली युगल,पद दोउ एक अखंड ।।"
राधास्वामी मत में
तिकुटी का शब्द" ओं" शून्य का "ररं"
भंवर गुफा का सोहं और सतलोक अर्थात सचखंड का सतनाम मानते हैं ।और उपर्युक्त दोहों में राधास्वामी जी बताते
हैं कि फरक अर्थात मुसलमान फकीर
त्रिकुटी का शब्द अल्लाहू, शून्य का हा, भंवर गुफा का अनाहू और सतलोक का हक्क हक्क मानते हैं।
उपर्युक्त दोनों के अर्थ को समझने पर यह अवश्य जानने में आता है कि सार शब्द की तो बात ही क्या ,
उसके नीचे के शब्दों की भी ठीक-ठीक नकल मनुष्य की भाषा में हो ही नहीं सकता।
एक सतलोक वा सचखंड के शब्द को सतनाम कहता है
और दूसरा उसी को हक्क हक्क कहता है
और पहला व्यक्ति दूसरे के कहे को ठीक मानता है तो उसको यह अवसर नहीं है कि तीसरा जो उसी को ओं,वा राम कहता है ।
उससे वह कहे कि वह ओं और राम नीचे दर्जे के शब्द है सतलोक के नहीं है।
अतः किसी एक वर्णनात्मक शब्द को यह कहना है कि यही खास शब्द , सार शब्द की ठीक-ठीक नकल है ।
अत्यंत आयुक्त है और विश्वास करने योग्य नहीं है।।
72. बीन ,वेणी(मुरली), मुरली नफीरी, मृदंग, मर्दल,नगाड़ा, मजीरा, सिंगी ,सितार, सारंगी
बादल की गरज और सिंह का गर्जन इत्यादि
स्थूल लौकिक शब्दों में से कई कई शब्दों का
अंतर के एक-एक स्थान में वर्णन किसी-किसी संतवाणी में पाया जाता है।
यह सब में एक ही तरह वर्णन किए हुए नहीं पाए जाते हैं।
जैसे एक संत की वाणी में मुरली का शब्द नीचे के स्थान में वर्णन है तो दूसरे संत की संतवाणी में यही शब्द ऊंचे के स्थान में वर्णन किया हुआ मिलता है।
जैसे:-
भंवर गुफा में सोहं राजे, मुरली अधिक बजाया है।
(कबीर शब्दावली भाग 2)
गगन द्वार दीसे एक तारा।
अनहद नाद सुनो झंकारा।।
के नीचे की 8 चौपाई के बाद और
जैसे मंदिर दीपक बाड़ा। ऐसे जोति होत उजियारा।।
के ऊपर की 3 चौपाइयों के ऊपर में अर्थात दीपक ज्योति के स्थान के प्रथम ही और तारा बिजली और उससे अधिक अधिक प्रकाश के और आगे 5 तत्व के रंग के स्थान पर हैं यानी आज्ञा चक्र के प्रकाश भाग के ऊपर की सीमा में ही वा सहस्त्र दल कमल की निचली सीमा के पास के स्थान पर ही
स्याही सूरत सफेदी होई ।जरत जाति जंगाली सोई।।
तल्ली ताल तरंग बखानी।
मोहन मुरली बजै सुहानी ।।
(घट रामायण)
ऐसे वर्णन को पढ़कर किसी संतवाणी को भूल वा गलत कहना ठीक नहीं है
और इसलिए यह भी कहना ठीक नहीं है कि सब संतों का एकमत नहीं है ।
तथा और अधिक यह कहना अत्यंत और अनिष्टकर है ।
कि जब सब संतों की वाणियों में इन शब्दों की निसबत इस तरह बे-मेल है।
तो सार शब्द के अतिरिक्त इन मायावी शब्दों का अभ्यास करना ही नहीं चाहिए।
वृक्ष के सब विस्तार की स्थिति उसके अंकुर में
और अंकुर की स्थिति उसके बीज में अवश्य ही हैं ।
इसी तरह स्थूल जगत के साडे प्रसार की स्थिति सूक्ष्म जगत में
और सूक्ष्म जगत के सब प्रसार की स्थिति कारण में मानना ही पड़ता है ।
स्थूल मंडल की ध्वनियों की स्थिति सूक्ष्म में और सूक्ष्म की कारण में हैं ।
ऐसा विश्वास करना युक्तियुक्त है ।
अतः मुरली ध्वनि वा कोई ध्वनि नीचे के स्थान में भी और वे ही ध्वनियां ऊपर के स्थान में भी जानी जाए असंभव नहीं है।
एक ने एक स्थान के मुरली नाद का वर्णन किया तो दूसरे ने उसी स्थान के किसी दूसरे नाद का वर्णन किया, इसमें कुछ भी हर्ज नहीं है।।
शब्द अभ्यास करके ही दोनों पहुंचे उसी एक स्थान पर ऐसा मानना कोई हर्ज नहीं
इस तरह समझ लेने पर न किसी संत की शब्द वर्णन विषयक वाणी गलत कही जा सकती है और न यह कहा जा सकता है कि दोनों का मत पृथक पृथक है।
और तीसरी बात यह है कि केवल सार शब्द का ही ध्यान करना और उसके नीचे के मायावी शब्दों का नहीं बिल्कुल असंभव है क्योंकि यह बात न युक्ति युक्त है और ना किसी संतवाणी के अनुकूल है।।
नीचे के माया भी शब्दों के अभ्यास बिना सार शब्द का ग्रहण कदापि नहीं होगा ।
इस पर संख्या 66 में लिखा जा चुका है।।
73. मृदंग, मृर्दल और मुरली आदि की मायिक ध्वनि में से किसी को अंतर के किसी एक ही स्थान की निज ध्वनि नहीं मानी जा सकती है इसलिए उपनिषदों में और दो एक के अतिरिक्त सब संतवाणी में भी अंतर मिलने वाली केवल ध्वनियों के नाम पाए जाते हैं ।
परंतु यह नहीं पाया जाता है कि अंतर के अमुक स्थान की अमुक अमुक ध्वनि है। और साथ ही साथ शब्दातीत पद का वर्णन उन सब में अवश्य ही है
इस प्रकार के वर्णन को पढ़कर यह कह देना कि वर्णन करने वाले को नादानुसंधान सुरत शब्द योग का पूरा पता नहीं था अयुक्त है।
और नहीं मानने योग्य है।।।
74. स्थूल मंडल का एक शब्द जितना मीठा और सुरीला होगा
सूक्ष्म मंडल का वही शब्द उससे विशेष मीठा और सुरीला होगा
इसी तरह कारण और महा कारण मंडलों में जहां तक शब्द में विविधता हो सकती है उस शब्द की मिठास और सुरीलापन उत्तरोत्तर अधिक होंगे।
कैवल्य पद में शब्द की विविधता नहीं मानी जा सकती है।
उसमें केवल एक ही निरूपाधिक आदि शब्द मानना युक्ति युक्त है।
क्योंकि कैवल्य में विविधता असंभव है।
75. शब्दातीत पद का मानना तथा इस पद तक पहुंचने के हेतु वर्णनात्मक शब्द का जप ,मानस ध्यान, दृष्टि योग और नादानुसंधान इन चारों प्रकार के साधनों का मानना संतवाणी में मिलता है।।
अतः संतमत में वर्णित चारों युक्ति युक्त साधनों की विधि अवश्य ही माननी पड़ती है।।
76. नादानुसंधान में पूर्णता के बिना परम प्रभु सर्वेश्वर का मिलना व पूर्ण आत्म ज्ञान होना असंभव है ।।
77.बिना गुरु भक्ति के सुरत शब्द योग द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति में पूर्ण होकर अपना परम कल्याण बना लेना असंभव है।
कबीर पूरे गुरु बिना पूरा शिष्य ना होय।
गुरु लोभी शिष्य लालची दुनी दाझन होय।।
( कबीर साहब)
78.जब कभी पूरे और सच्चे सद्गुरु मिलेंगे तभी उनके सहारे अपना परम कल्याण बनाने का काम समाप्त होगा।।
79. पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है।।
👉 सज्जनों सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का मोक्ष ज्ञान भाग 6 समाप्तत होता है अगला अंकअंक भी भी लेकर आ रहा हूंं
।।जय गुरु।।
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