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गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

सदाचार भाग 6:स्वामी व्यासानंद

 श्री सद्गुरु ए नमः 
सज्जनों आज सदाचार भाग 6 जो स्वामी व्यासानंद जी द्वारा द्वारा दिया गया प्रवचन का सारगर्भित भाग है आप लोगों के सामने प्रस्तुत है गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कहा है
"सोई जानइ जेहि देहु जनाई"
और-
तुम्हरिहि कृपा तुम्ही रघुनंदन 
जानहि भगत भगत उर चंदन ।।"
तथा सुग्रीव के मुखारविंद से कहाया है-

"यह गुण साधन ते नहीं होई
तुम्हरिहि  कृपा पाव नही कोई ।।"

तात्पर्य- जिनसे वे मिलना चाहे
 बस वही उनसे मिल पाए बाकी का 
अपना पुरुषार्थ वहां काम नहीं आया 
साथ ही मिले हैं तो समान भाव से सब में
 सबसे नहीं तो किसी से भी नहीं 
लेकिन यह बात मेरे गले नहीं उतरती कि
 परमात्मा बिना कुछ लिए दिए या कुछ किए
 हुए ही मुफ्त में मिल जाते हैं ।
परमात्मा तो लेते हैं इतना कि उतना दुनिया का
 कोई लोभी दामाद भी नहीं ले सकता 
दुनिया में किसी के लेने पर तो आदमी के पास कुछ बचा भी जाता है 
परंतु परमात्मा के लेने पर प्राण तक भी नहीं बचता।
 किसी के बहुत लेने पर भले ही आदमी 
भीख मंगा बन जाए पर मांगने के लिए 
भिक्षा पात्र तो अवश्य बचता है ।
परंतु परमात्मा तो जिनसे लेते हैं उनको बिल्कुल
 करपात्री जी महाराज बना देते हैं अर्थात
 जब भक्त के अंदर और बाहर में कुछ भी नहीं रह 
जाता है तभी परमात्मा मिलते हैं अर्थात 
उसी से परमात्मा मिलते हैं ।
माता कुंती ने ठीक ही कहा है 
"त्वाम अकंचनगोचरण"
 अर्थात तुमको अकिंचन ही देख पाते हैं
तात्पर्य भक्तों से परमात्मा लेते लेते जब 
उनके पास कुछ भी नहीं रहने देते हैं
 तब आकर मिलते हैं अथवा भक्त देते देते जब 
अपने तक को भी दे देते हैं तब उनसे मिल पाते हैं 
यही है आत्म निवेदनम भक्ति ।
जब तक इस प्रकार की लेनदेन नहीं होगी
 तब तक बिना मूल्य के होने पर भी परमात्मा से 
मिलना बहुत मुश्किल है।
 गुरु नानक देव जी महाराज कहते हैं
"
"ऐसी सेवकु सेवा करे
जिसका जिउ तिसु आगे धरै।।"
और 
विटहु कुरबाणु"दोनों एक ही बात है
  एक स्थल पर मीरा कहती है
 मैंने लीनो अमोलक मोल अर्थात 
मैंने अमोल परमात्मा को खरीदा और जब 
उससे पूछा गया कि क्या देकर खरीदी हो तब 
मीरा कहती है वह आवत प्रेम के मोल माई री अर्थात
 वे केवल प्रेम देकर खरीदे जाते हैं और जब 
प्रेम की व्याख्या की जाएगी तो बात वहीं पर
 आ जाएगी जो प्रेमी और प्रियतम के बीच की दूरी को समाप्त कर दे वही उसी को प्रेम कहते हैं ।
अर्थात जब भक्त और भगवान के बीच में कोई
 परत नहीं रह जाता तब असली मिलन होता है 
इसके अलावे जो मिलन होता है वह मिलना नहीं होता है परत वाला मिलन तो राम रावण के से भी हुआ
 और कृष्ण कंस से भी हुआ आदि
 यह कोई मिलन थोड़े हुआ कि 
मिलकर फिर 2 घाट हो गए ।
संत कबीर साहब कहते हैं 
जोग जुगत से रंग महल में  पिय पायो अनमोल रे 
यह भी परमात्मा को अनमोल अर्थात 
अमूल ही बतलाते हैं और कहते हैं कि 
वे वैसे नहीं मिलते हैं ।
जोग जुगत से रंग महल में पिए पायो अनमोल रे
 अर्थात योग की युक्ति से रंग महल में परमात्मा रूपी पति से मिला अर्थात पाया एक ही बात है 
अब यहां पर दो बातें आई है योग की युक्ति से 
और रंग महल में।।
 योग कहते हैं बिछड़े हुए से मिलाने की प्रक्रिया को 
और युक्ति कहते हैं भेद व रहस्य को।।
 भेद का अर्थ प्रकार भी होता है अथवा 
परमात्मा से मिलने की आठ प्रक्रियाएं हैं
 यम ,नियम ,आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा, ध्यान और समाधि 
रहस्य कहते हैं अत्यंत गोपनीय बात को अथवा 
अत्यंत गोपनीय चीज को यह परमात्मा से मिलाने वाली आठ प्रक्रियाएं हैं ।
अत्यंत गोपनीय है और अत्यंत गोपनीय को
 सब कोई नहीं जानते 
कोई मरमी या भेदी ही जानते हैं
 योग के गुप्त रहस्य को कोई योगी ही बतला सकते हैं ।
और रोग के गुप्त रहस्य को कोई वैध हीं बदला सकते हैं।
योग के गुप्त रहस्य को बताने वाले योगी को ही संत कहते हैं अथवा सद्गुरु कहते हैं 
जन्म जन्मांतर हमसे बिछड़े हुए जीव को परमात्मा से मिलाने की प्रक्रिया सद्गुरु बतलाते हैं
 यथा 
पश्चिम दिशा को चलली विरहिन पांच रतन लिए थार भरे।
 अष्ट कमल द्वादश के भीतर सो मिलने की चाहत करें।

 पश्चिम दिशा- पश्चिम की ओर 
संत साहित्य में पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण दिशा का बड़ा ही मार्मिक अर्थ किया गया है
 पूर्व कहते हैं पहले को प्रथम को
 सबसे पहले जब अभ्यासी आंखों को बंद कर 
अंदर में देखता है तो उसे अंधकार दिखलाई देता है
 यह अंधकार पूर्व दिशा है
 और पूर्व का उल्टा अर्थात विपरीत पश्चिम होता है
 तो पश्चिम दिशा प्रकाश कहलाया
 परमात्मा से मिलाने वाली जो सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया है
 वह समाधि और 
समाधि की अवस्था प्राप्त होती है नादानुसंधान की क्रिया करने से।
 अर्थात अंतर ध्वनि की साधना से।
 इसलिए समाधि साधन में सफलीभूत कराने वाली जो ध्वनि है 
वह साधक के लिए परम सहायक साधना है।
 और जो सबसे अधिक सहायता करने वाला करने वाला होता है उसे अपना दाहिना हाथ करते हैं ।
अतः शब्द को  दक्षिण दिशा माना गया है 
और दक्षिण का उल्टा उत्तर होता है तो 
उस शब्द का उल्टा अशब्द अथवा निःशब्द हुआ।
 इस शब्द को परम पद अर्थात परम मोक्ष बतलाया गया है
 साथ ही उत्तर का अर्थ अंतिम अथवा उत्तीर्ण होता है अर्थात अंतर के अंतिम तह में पहुंचकर साधक परमात्मा से मिलकर संसार जन्म मरण के चक्र से पूर्णरूपेण उत्तीर्ण हो जाता है यानी छूट जाता है।
  •  इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है-
  • पूर्व -अंधकार 
  • पश्चिम -प्रकाश 
  • दक्षिण -शब्द 
उत्तर- निशब्द
  •  पूर्व दिशा- अज्ञान की दिशा ,अपवित्रता की दिशा,
  •  बंघन की दिशा, प्रपंच की दिशा, पागलपन की दिशा ,
परमात्मा से विमुख कराने वाली दिशा ,
विषय की दिशा, बहिर मुक्ता की दिशा,
 चंचलता की दिशा, दुख की दिशा ,और शांति की दिशा दूर आचरण की दिशा, भोग की दिशा, चिंता की दिशा ,
जीव तत्व की दिशा ,अंधकार आदि की दिशा 
इसके ठीक विपरीत है 
#पश्चिम दिशा:- जो है ज्ञान की दिशा, पवित्रता की दिशा ,मोक्ष की दिशा, निष्पक्षता की दिशा, चैतन्यता कि दिशा, परमात्मा से सम्मुख कराने वाली दिशा ,निर्विषयकी दिशा,  अंतर मुक्ता की दिशा ,और अचंचलता की दिशा सुख की दिशा, शांति की दिशा, सदाचरण की दिशा ,योग की दिशा, ब्रह्म तत्व की दिशा, प्रकाश आदि की दिशा
 पश्चिम में वर्णित सब कुछ नहीं मिल जाएंगे
 परंतु पश्चिम की तरफ बढ़ते रहेंगे तो 
धीरे-धीरे दिशाएं बदलती जाएगी और आखिर में
 बदलने की प्रक्रिया भी समाप्त हो जाएगी 
मुक्ति उपनिषद के अनुसार
 ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम" अर्थात वह स्वयं केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं बल्कि स्वयं ही है ।
यदि अमूल्य परमात्मा से मिलना चाहते हैं तो
 सद्गुरु योग की युक्ति बतलाते हैं 
कि अपने पुरुष तत्व का अभिमान छोड़कर 
नारी भाव में आ जाओ अर्थात
 पुरुषत्व का अभिमान छोड़कर
 अबला बन जाओ निर्मल बन जाओ ।
इसी को भक्त प्रवर सूरदास जी महाराज कहते हैं

 "सुनो री मैंने निर्बल के बलराम"
 पर ध्यान रहे यहां पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली नारी की बात न की 
पतिव्रता नारी की संत कबीर साहब 
बिरहनी नारी उसे कहते हैं जो अपने पति से 
मिलने के लिए अंदर ही अंदर तड़पती है
 छट पटाती है आकुल व्याकुल रहती है ,बिलखती है बेचैन रहती है ,अत्यंत उदास रहती है, अत्यंत परेशान रहती है ,अत्यंत चिंतित रहती है, अत्यंत परेशान रहती है ,ऐसे विरहनी  को जब किसी के द्वारा खबर मिलती है 
कि तुम्हारे पति अमुक समय में,अमुक ट्रेन से या प्लेन से उतरकर आ रहे हैं तो
 वह पतिवर्ता पति की अगवानी करने के लिए
 अत्यंत आतुरता से अश्रुधार बहाती हुई
 समस्त अलौकिक लज्जाओं का परित्याग कर 
पति के लिए धावमान होती है 
उस समय जो उस पतिवर्ता की स्थिति की कल्पना होती है 
उस कल्पना का एहसास करते हुए एक सच्चे 
अभ्यासी साधक को कराया है ।
संत कबीर साहब ने उसी के लिए विरहनी शब्द का प्रयोग किया है ।
अंततः पिपासिनी भी अपने पति से इसी भाव से
 भावित होकर अंदर के प्रकाश मयी दिशा की ओर चली है ।
लेकिन ध्यान रहे कि वर्णित पतिव्रता नारी अपने 
पति की अगवानी करने खाली हाथ नहीं जाती है ।
बल्कि अपने को अच्छी तरह सजा कर जाती है 
और स्वागत में उपहार स्वरूप कुछ साथ लेकर जाती है संत कबीर साहब कहते हैं 
पश्चिम दिशा को चली बिरहिन पांच रतन लिए थार भरे।
 अर्थात बिरिहनी खाली हाथ नहीं बल्कि अंतःकरण को सत्य चरित्र से सजाकर और
 पवित्र अंतः करण रूपी थाल में पंच पाप रूपी पंचतत्व को भरकर चली है
 इसी को संत तुलसीदास साहब ने घट रामायण में लिखा है :-
यह नैन सैन सुंदरी
 साजि श्रुति पीय पै चली।।
 गिरी गवन गोह गुहारि  मार्ग
चढत गढ़ गगना चली।।
 अर्थात संसार के समग्र चिंतनओं को छोड़कर 
अर्थात निश्चिंत होकर अंदर की आंखों को सद्गुरु के इशारे से सजाकर सूरत रुपी उस सुंदरी
 परमात्मा रूपी पति से मिलने को चली है 
परमात्मा रूपी पति का स्मरण करती हुई 
वह स्थूल शरीर रूपी पति के अंदर जो दसवां द्वार 
रूपी संकीर्ण गुफा का मार्ग है उसमें प्रवेश करती हुई
 स्थूल आकाश रूपी किले के ऊपर आरोहण करती हुई 
ब्रह्मरंध्र पकड़ी गली में प्रवेश कर जाती है
 यहां पर कबीर साहब और तुलसी साहब के कहने का तात्पर्य है कि सदाचार का पालन नहीं करने से सूरत बदसूरत हो जाती है 
और रास्ते पर चलने लायक नहीं रह जाती है 
अर्थात सदाचार से हीन अभ्यासी परमात्मा को प्रसन्न करने लायक नहीं रह जाता है 
पाप जितना होता है अभ्यासी का चरित्र सुंदर उतना ही अधिक घटता जाता है 
और चारित्रिक सुंदर जितना घढता है
 परमात्मा रूपी पति का  स्नेह  उस पर से उतना ही अधिक कम होता जाता है 
सच्चे अभ्यासी दुनिया को खुश करने के लिए कभी
 अपने शरीर को नहीं सजाते हैं 
सांसारिक लोगों को खुश करने के लिए अपने शरीर को जितना सजाया जाएगा
 उतना ही अधिक संसार में उसका फसांव होता जाएगा और एक दिन वह पुरुष रूप में अथवा नारी के रूप में कटे गिद्ध की भांति अवसान को प्राप्त होंगे ।
इसलिए सच्चे अभ्यासी शरीर को नहीं सजाकर अपने अंतःकरण को सदाचरण से सजाते हैं
 और परमात्मा के प्यारे बन जाते हैं ।
स्वामी ब्रह्मानंद जी महाराज का वचन है:-
 हमें है काम ईश्वर से जगत रूठे तो रूठन दे
 कुटुंब परिवार सुत दारा मालधन लाज लोकन की
 हरि भजन के करने में अगर छूटे तो छोटन दे
 बैठे संगत में संतन की करूं कल्याण मैं अपना 
लोक दुनिया के भोगों में मौज लूटे तो लूटन दे
 प्रभु के ध्यान करने की लगी दिल में लगन मेरे 
प्रीत संसार विषयों से अगर टूटे तो टूटन दे ।।
 धड़ी सिर पाप की मटकी मेरे गुरुदेव ने झटकी
 वो ब्रह्मानंद ने पटकी अगर फूटे तो फूटन दे ।।
पुनः संत सूरदास जी महाराज कहते हैं
 सुंदर दिसत सुंदर माही 
अर्थात जो अंदर से सुंदर है उसी को परम सुंदर परमात्मा दिखलाई देते हैं 
और सदाचार के पालन से ही अंदर सुंदर होता है 
झूठ चोरी नशा हिंसा और व्यभिचार के यह कदाचार हैं 
और ठीक इसके उलटे सत्य असतेय ओ अमद्य अहिंसा और ब्रह्मचर्य सदाचार है ।
जिनको सद्गुरु से योग के प्रथम अंग यम की शक्ति प्राप्त हो गई है उनकी विरही आत्मा करम करम से योग की समग्र प्रक्रिया में सफल होती है 
समाधि तक की स्थिति प्राप्त कर रंग महल में अर्थात शुद्ध चेतन मंडल में पहुंचकर परमात्मा रूपी पति से मिलकर परम आनंद को प्राप्त करती है।
 इसलिए जो गुरु खुद-ब-खुद यम नियम आदि योग के समग्र अंगों का परिपालन कर उसे जीवन में आत्मसात कर लिए हैं उसे ही सदाचार और पालन की युक्ति और पंच पापों से मुक्ति की प्रक्रिया किसी को बतला सकते हैं।
 साधक के लिए आरंभ में असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण मुश्किल है 
चोर वृत्ति का त्याग और असतेय का पालन तो और भी कठिन है तथा नशाओं का परित्याग और नशा रहित जीवन जीना सबसे दुष्कर है
 फिर दूसरे को मन वचन कर्म से दुख नहीं देने की प्रवृत्ति और हिंसा कर्म से निवृत्ति बहुत ही दुसाध्य है।
 दूसरे की मां बहन में मलिन अनुराग रहित दृष्टि और अंतःकरण में समस्त नारी जाति के प्रति को भावनाओं की  असृष्टि बड़ा दुर्लभ है 
इसके लिए नियम वद्ध हो बैराग प्रचंड अभ्यास की आवश्यकता है।
 संत कबीर साहब ने त्याग को तो पंच रत्न प्राप्ति के समान बताया है 
जिसने एक झूठ को छोड़ दिया तो मानो उसने सत्य रूपी  दुर्लभ रत्न को प्राप्त कर लिया
 किसी ने बिना पूछे दूसरे की वस्तु को छूना बंद कर दिया तो मानो कि उसने अचोरकर  दुर्लभ रत्न को प्राप्त कर लिया किसी ने नशाओं का खाना पीना बंद कर दिया तो मानो उसने नशा त्याग रूपी दुर्लभ रत्न को प्राप्त कर लिया।
 किसी ने मत्स्य मांस का भक्षण सदा के लिए त्याग कर दिया मानो उसने अहिंसा परमो धर्म रूपी दुर्लभ रत्न को प्राप्त कर लिया और
 एक पत्नी व्रत होकर संयम पूर्वक रहता है तो वह व्यभिचार रूपी दुर्लभ रत्न को त्याग कर दिया
 परमात्मा से मिलने के लिए वाह्य वैभव की आवश्यकता नहीं है 
परंतु अपंच पाप त्याग रूपी रत्न का साथ में होना अत्यंत जरूरी है 
जैसे परमात्मा में कोई पाप विकार नहीं होने से वे ओ मूल्य कहलाते हैं
 वैसे ही जिस भक्तों में पाप वविधमान नहीं होते हैं 
वह भक्त भी संसार में अमूल्य कहे जाते हैं
 और सच यही है कि अमूल्य पदार्थ को कोई 
अमूल्य व्यक्ति ही प्राप्त कर सकते हैं 
वर्णित पंच पाप रूपी रत्न बाहर संसार में यूं ही नहीं प्राप्त हो सकते 
यह भेदी गुरु से शरीर  रूप समुद्र में गोता लगाने की शक्ति प्राप्त कर
 अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बहुत काल तक डूब लगाए रहने से प्राप्त होते हैं पर ध्यान रहे।


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