- मेही बाबा का मोक्ष ज्ञान भाग 9
बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का अनुभव वाणी का यह अंतिम अंश और सारगर्भित वाणी है
और इसे जो पढेंगे स्मरण करेंगे
उसका भौतिक जगत में अध्यात्मिक ज्ञान
का कोई भी प्रश्न हो उसमें कोई भी
संशय नहीं रह पाएगा और
मोक्ष ज्ञान का सटीक ज्ञान होगा
और वह भी तथ्यपरक होगा आइए
जानते हैं
(101.) ज्ञान बिना कर्तव्य कर्म का निर्णय नहीं हो सकता
कर्तव्य कर्म के निर्णय के बिना अकर्तव्य कर्म भी किया जाएगा
इसलिए ज्ञान उपार्जन अवश्य करना चाहिए। जो विद्या अभ्यास और सत्संग से होगा।
(102). शुद्ध आत्मा का स्वरूप अनंत है। अनंत के बाहर कुछ अवकाश हो, संभव नहीं है ।
अतः उसका कहीं से आना और उसका कहींं जाना माना नहीं जा सकता है।
क्योंकि दो अनंत हो नहीं सकते हैं ।
चेतन मंडल शांत है, उसके बाहर अवकाश है; इसलिए उसके धार रूप का होना और
उस धार में आने-जाने का गुण होना निश्चित है।
अनंत के अंश पर के प्रकृृति के आवरणों मिट जाना, उस अंश का मोक्ष कहलाता है ।
स्थूल शरीर जराआत्मक प्रकृति से बना एक आवरण है।
इसमें चेतन धार के रहने तक यह स्थिर रहता है,नहींं तो मिट जाता है।
इस नमूनेे यह निश्चित है कि जराआत्मक प्रकृति केे अन्य तीनों आवरण भी मिट जाएंगे,यदि उन तीनों में चेतन धार वा सूरत ना रहेे।।
अंतर मेंं नादानुसंधान से सूरत जरा आत्मक सब आवरणों से पार हो जाएगी, उनमें नहींं रहेंगी।और अंत में स्वयं भी आदि नम के आकर्षण से आकर्षित हो,अपने केन्द्र में केन्द्रित होकर उसमें विलीन हो जायेगी ।
इस तरह सब आवरणों का मिटाना होगा ।
उस चेतन धार के कारण एक पिंड बनने योग्य प्रकृति के जितने अंश की स्थिति (कैवल्य, महाकाल,कारण,सूक्ष्म और स्थूल रूपों में)संभव है,
वह मिट जाएगी और उसके मिटने से शुद्धात्मा का जो अंश आवरणहीन हो जायेगा, वह मुक्त हुआ कहा जायेगा ।
यद्यपि शुद्ध आत्म तत्व सर्व व्यापक होने पर भी मायिक दुख सुख का सदा अभोगी ही रहता है।
तथापि उसके और चित( चेतन) और अचित(जड़) के संग से जीवात्मा की स्थिति प्रकट होती है।
जिसको उपर्युक्त सुख दुख का भोग होता है, वह भोग अशांतिपूर्ण होने के कारण मिटा देने योग्य है ।उपर्युक्त संग के मिटने से ही यह भोग मिटेगा।
क्योंकि वह संग ही इस भोग और उपर्युक्त जीव रूप इसके भोगी दोनों का कारण है।।
(103). जीवता का उदय हुआ हैं, इसका नाश भी किया जा सकेगा ।इसके नाश से आत्मा कुछ हानि नहीं ।
इसके मिटने से आत्मा नहीं मिटेगी।
आत्मा का मिटना असंभव हैं,
क्योंकि अनंत का मिटना असंभव हैं ।
जब किसी जीवनकाल में (पूर्ण समाधि में) जीवता मिटा दी जाएगी तभी जीवनमुक्त की दशा प्राप्त होगी
और जीवन काल के गत होने (मरने पर)भी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं ।
मोक्ष के साधन में लगे हुए अभ्यासी को जीवनकाल में मुक्ति नहीं मिलने पर उस जीवनकाल के अनंतर फिर मनुष्य जन्म होगा
क्योंकि दूसरी योनि उसके मोक्ष साधन के संस्कार को संभालने और उस को आगे बढ़ाने के योग्य नहीं है
इस प्रकार मोक्ष साधक बारंबार उत्तम उत्तम मनुष्य जन्म पाकर अंत में सदा के लिए मोक्ष प्राप्त करेगा।।
परम प्रभु में सृष्टि की मौज का उदय जहां से हुआ
वहां उसका फिर लौट आना असंभव है;
क्योंकि वह मौज रचना करती हुई
उसमें जिधर को प्रवाहित है उधर को काल के अंत तक प्रवाहित हुई होती हुई तथा रचना करती हुई चली जाएगी।
परंतु अनंत का अंत न होगा। और ना फिर वह मौज वहां लौटेगी जहां से उसका प्रवाह हुआ था ।
इसलिए उस मौज के केंद्र में जो सूरत केंद्रित होगी,
वह फिर रचना में उतरे यह संभव नहीं और तब यह भी संभव नहीं कि उस सूरत वा चेतन धार के कारण प्रकृति के जिस अंश की स्थिति पहले हुई थी
वह पुनः बने।
उसकी स्थिति से आत्मा का जो अंश आवर्णित था
वह फिर आवरण सहित हो और
संख्या 102 में कथित त्रयसंग से पूर्ण जीवता का पुनरूदय हो ।
जिस मुक्ति का इसमें वर्णन हुआ है
वही असली मुक्ति है।
उसके अतिरिक्त और प्रकार की मुक्ति केवल कहने मात्र की है यथार्थ नहीं।।
(104.)सब आवर्णों को पार किए बिना
न परम प्रभु सर्वेश्वर मिलेंगे
और न परम मुक्ति मिलेगी
इसलिए दोनों फलों को प्राप्त करने का
एक ही साधन है ईश्वर भक्ति का साधन कहो
या मुक्ति का साधन कहो दोनों एक ही बात है।
" जिमी थल बिनु जल रही ना शका।।
कोटि भांति कोउ करें उपाई।।"
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।
रही न सकइ हरि भक्ति बिहाई।।
(तुलसीकृत रामायण)
परम प्रभु परमेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन
(105.) परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधन को जानने के पहले परम प्रभु सर्वेश्वर के स्वरूप का तथा निज स्वरूप का परोक्ष ज्ञान श्रवन और मनन द्वारा प्राप्त करना चाहिए।
और सृष्टि कर्म के ज्ञान के सहित यह भी जानना चाहिए कि कथित युगल स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने का कारण क्या है?
परम प्रभु के स्वरूप का श्रवन और मनन ज्ञान प्राप्त कर लेने पर यह निश्चित हो जाएगा
कि प्राप्त करना क्या है?
क्षेत्र सहित क्षेत्रज्ञ उसको प्राप्त कर सकेगा
वा केवल क्षेत्रज्ञ उसे प्राप्त करेगा तथा
इसके लिए बाहर में वा अंतर में किस ओर अभ्यास करना चाहिए?
यह सब आवश्यक बातें निश्चित हो जाएगी,
तब अनावश्यक भटकन छूट जाएगी
अपने स्वरूप के वैसे ही ज्ञान से यह थिर हो जाएगा
कि मैं उसे प्राप्त करने योग्य हूं अथवा नहीं?
सृष्टि कर्म के विकास का तथा परम प्रभु और निज स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने के कारण
जानकारियों से उस आधार का पता लग सकेगा
जिसके अवलंब से सृष्टि वा उपर्युक्त कारण रूप
आवरण से पार जाकर परम प्रभु से मिलन तथा
उसके अपरोक्ष ज्ञान का होना पूर्ण संभव हो जाएगा ।
इसके लिए उपनिषदों को वा भारती संतवाणी को ढूंढा जाए।
वा इसे तर्क बुद्धि से निश्चय किया जाए, थिर यही होगा कि परम प्रभु सर्वेश्वर का स्वरूप
अव्यक्त इंद्रियातीत( अगोचर), आदि अंत रहित ,अज ,अविनाशी, देश कालातीत, सर्वगत तथा सर्व पर है ।
और जैसे घटाकाश, महादाकाश का अंश है,
इसी तरह निज स्वरूप भी परम प्रभु सर्वेश्वर का अंश है।
तत्व रूप में दोनों एक ही है।
पर परम प्रभु आवरण से वर्णित नहीं है
किंतु निज स्वरूप अथवा सर्वेश्वर का पिंडस्थ अंश आवर्णित है।
शगुन अपरा, प्रकृति के महा कारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल
इन चारों वर्णों से आवर्णित रहने के कारण
उपर्युक्त दोनों स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो पाता है।
जब परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज होती है
तभी सृष्टि उपजती है।
इसलिए सृष्टि के आदि में मौज वा कंप का मानना अनिवार्य होता है।
और मौज वा कंप का शब्दमय ना होना असंभव है।
इसलिए सृष्टि के आदि में अनिवार्य रूप से शब्द मानना ही पड़ता है।
सृष्टि का विकास बाड़ीकी की ओर से मोटाई वा स्थूलता की ओर को होता हुआ चला आया है।
सृष्टि के जिस प्रकार के मंडल में हम लोग हैं
वह स्थूल कहलाता है।
इससे ऊपर सूक्ष्म मंडल ,सूक्ष्म के ऊपर कारण मंडल, कारण मंडल के ऊपर महा कारण मंडल अर्थात कारण की खानी साम्यावस्थाधारिणी जराआत्मक मूल प्रकृति और इसके भी ऊपर चैतन्य व प्रकृति व कैवल्य रहित चैतन्य मंडल इन चार प्रकार के मंडलों का होना ध्रुव निश्चित है।।
अतः स्थूल मंडल के सहित सृष्टि के 5 मंडल
स्पष्ट रूप से जानने में आते हैं।
कैवल्य मंडल निर्मल चैतन्य है और बचे हुए 4 मंडल सहित अन्य सहित जड़ मंडल है।
प्रत्येक मंडल बनने के लिए प्रथम प्रत्येक का केंद्र अवश्य ही स्थापित हुआ।
केंद्र से मंडल बनने की धार( मौज वा कंप वा शब्द)
जारी होने में सहचर शब्द अवश्य हुआ।
अतः कथित केंद्रों के केंद्रीय शब्द अनिवार्य
रूप से मानने पड़ते हैं ।
शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का
स्वभाव प्रत्यक्ष ही है ।।
इन बातों को जानने पर यह सहज ही सिद्ध हो जाता है
कि सृष्टि का विकास शब्द से होता
हुआ चला आया है ।
और इसलिए सृष्टि के सब आवरण से पार जाने का अत्यंत युक्ति युक्त आधार वर्णित शब्दों से विशेष
कुछ नहीं है।
ये कथित केंद्रीय शब्द वर्णनात्मक हो नहीं सकते
यह ध्वन्यात्मक है ।।
नादानुसंधान व सुरत शब्द योग इन हीनाद व ध्वन्यात्मक शब्दों का होता है।
और उल्लिखित शब्द के आकर्षण के कारण
सुरत शब्द योग का फल अत्यंत उर्ध्व गति तक पहुंचना निश्चित और युक्तियुक्त है ।
ऊपर के कथित सृष्टि के 5 मंडल ही पांच आवरण है
जो पिंड शरीर और ब्रह्मांड बाह्य जगत दोनों को
विशेष रूप से संबंधित करते हुए दोनों में भरे हैं।
पड़ा प्रकृति वा सूरत वा कैवल्य चेतन स्वरूप
परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप के अत्यंत
समीपवर्ती होने के कारण उसके स्वरूप से
मिलने व उसका अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के
सर्वथा योग्य है ।
निज स्वरूप इस चेतन तत्व से अवश्य ही
उच्च और अधिक योगता का है और
चेतन क्षेत्र का सर्वोत्कृष्ट रूप है ।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि क्षेत्र के केवल
इसी एक और सर्वोत्कृष्ट रूप के सहित क्षेत्रज्ञ को
निज स्वरूप के सहित परम परमेश्वर के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होगा।।
परंतु क्षेत्र के अन्य चार सगुण रूप से सहित व
इन चारों में से किसी एक के सहित रहने पर
स्वरूप का वह ज्ञान व उसकी प्राप्ति नहीं होगी
यह निःसंदेह है कि निज को निज का तथा
परम प्रभु के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होना वा
निज को निज की तथा परम प्रभु की प्राप्ति होने ध्रुव संभव है।।
ऊपर का शब्द नीचे दूर तक स्वभाविक ही पहुंचता है ।
सूक्ष्म तत्व की धार स्थूल तत्व की धार से लंबी होती है। और वह अपने से स्थूल में स्वभाविक ही समाई हुई
होती है ।
रचना में ऊपर की ओर सूक्ष्मता और नीचे की ओर स्थूलता है ।
रचना में जो मंडल जिस मंडल से ऊपर है वह
उससे सूक्ष्म है ।
अतः प्रत्येक ऊपर के मंडल का केंद्रीय शब्द उसके प्रत्येक नीचे के मंडल और उसके केंद्रीय शब्द के क्रम अनुसार सक्षम है।।
इसलिए ऊपर के मंडलों के केंद्र में उत्थित शब्द
नीचे के मंडल के केंद्र पर क्रम अनुसार
अर्थात पहला निचले मंडल के केंद्र पर से
उसके ऊपर के मंडल का केंद्रीय शब्द और
दूसरे निचले मंडल के केंद्र पर उसके ऊपर के मंडल का केंद्रीय शब्द
इस तरह करम करम से अवश्य ही भरे जाएंगे।
और अंत में सबसे ऊपर के कैवल्य मंडल के केंद्र से
अर्थात स्वयं प्रभु सर्वेश्वर से उत्थित शब्द महा कारण मंडल के केंद्र पर अवश्य ही पकड़ा जा सकेगा
और उस शब्द से आकर्षित होकर चैतन्य वा सूरत परम प्रभु से जा मिलकर उनसे एकमेक हो विलीन हो जाएगी ।।
परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के साधन की यही प्रकाष्ठा है।
परम प्रभु से उत्थित यह आदिनाथ वा शब्द सब पिंडों तथा सब ब्रह्मांडओं के अंतस्तल में सदा अप्रतिहत और अभिन्न रूप से ध्वनित होता है
सृष्टि की स्थिति तक अवश्य ही ध्वनित होता रहेगा।।
क्योंकि इसी के उदय के कारण से सब सृष्टि का विकास है
यदि इसकी स्थिति का लोप होगा तो सृष्टि का भी लोप हो जाएगा।
ऋषियों ने इसी अलौकिक और अनुपम आदि निर्गुण नाद को ओम कहा है
भारतीय संतवाणी में इसी को 'निर्गुण राम नाम, सत्य नाम, सत्य शब्द आदि नाम और
सार शब्द आदि कहा है ।
उपर्युक्त वर्णन अनुसार शब्द धारों को धरने के लिए बाहर की ओर अत्यंत यत्न करना व्यर्थ है ।।
यह तो गुरु आश्रित होकर अंतर ही अंतर यत्न और अभ्यास करने से होगा।।
अपने अंतर में ध्यान अभ्यास से अपने को वा
अपनी सूरत वा अपनी चेतन वृति को विशेष से विशेष
अंतर्मुखी बनाना संभव है ।
प्रथम ही सूक्ष्म ध्याना अभ्यास स्वस्वभा अनुकूल नही होने के कारण असाध्य है ।
इसलिए प्रथम मानस जप द्वारा मन को
कुछ समेट ला, फिर स्थूल मूर्ति का मानस ध्यान
कर अपने को सूक्ष्म ध्यान अभ्यास
करने के योग बना दृष्टि योग से
एकबिन्दुता प्राप्त करने का अभ्यास करके
नादानुसंधान वा सुरत शब्द योग अभ्यास कर नीचे से ऊपर तक सारे आवरण से पार हो
अंत तक पहुंचना परम संभव है ।
ऊपर यह वर्णन हो चुका है कि पिंड और ब्रह्मांड दोनों को विशेष रूप से संबंधित करते हुए
दोनों को सृष्टि से वर्णित मंडल व आवरण भरपूर करते हैं।
और इन्हीं आवर्णों को पार करना
सारे आवरनों को पार करना है ।।
कथित विशेष संबंध इसमें यह है कि पिंड के जिस आवरण में जो रहेगा
बाहर के ब्रह्मांड के उसी आवरण में वह रहेगा।।
और पिंड के जिस आवरण को वा सब आवर्णों को पार जो पार करेगा
ब्रह्मांड के उसी आवरण को वा सब आवर्णों को वह पार कर जाएगा ।
अर्थात जो पिंड को पार कर गया वह ब्रह्मांड को भी पार कर गया
इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।।
परम योग, परम ज्ञान और परमा भक्ति का गंभीरतम रहस्य और अंतिम फल प्राप्त करने का
साधन समास रूप में कहा जा चुका है।।
(106). ऊं के बारे में विशेष जानकारी के लिए भाग पहले में श्वेताश्वेतर उपनिषद अध्याय 1 अश्लोक 7 के अर्थ के नीचे लिखित टिप्पणी में पढ़िए तथा
भाग 2 पृष्ठ 261 में स्वामी विवेकानंद जी महाराज का वर्णन पढ़िए
और ओम को आदि सार शब्द नहीं मानना इसे केवल त्रिकुटी का ही शब्द मानना किस तरह अयुक्त है ।।
सो इसी भाग पारा 71 में पढ़िए तथा भाग 3 पृष्ठ 293 में स्वामी भूमानंद जी महाराज का वर्णन पढ़िए ।।
(107) यह बात युक्तियुक्त नहीं है कि कोई भक्त
केवल निर्गुण ब्रह्म के कोई केवल सगुण ब्रह्म के
और कोई केवल सगुण निर्गुण के पड़े अनामी पुरुष
के उपासक होते हैं।।
निर्गुण अनामी, मायातीत, अव्यक्त, अगोचर, अलख अगम, और औचिन्त्य है ।।
अर्थात इंद्रिय मन और बुद्धि के पड़े हैं उपासना का आरंभ मन से ही होगा
अतः आरंभ में ही निर्गुण उपासना नहीं हो सकेगी
और अनामी तो साध्य व प्राप्य है साधन नहीं।।
निर्गुण उपासना से यह प्राप्त होता है
उपासना का आरंभ होगा सगुण से ही
पर उपासना उपासक पारा संख्या 51 ,60, 61, 62 में किए गए वर्णन के अनुसार बढ़ते बढ़ते निर्गुण उपासक होकर अंत में अनामी शब्द आती पुरुषोत्तम को प्राप्त कर कृत कृत्य हो जाएगा
।।श्री सदगुरू महाराज की जय ।।
बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की अपना एक अलग ही अनुभूति है
और उन्होंने अपने अनुभव ज्ञान और सारगर्भित
ज्ञान को अपने भक्तों के सामने प्रस्तुत किया
और यह ज्ञान आप लोगों के सामने प्रस्तुत है
और इसके पढ़ने से मनन करने से
मोक्ष के बारे में और अपने निज स्वरूप के बारे में
और ज्ञान ध्यान के बारे में पूरा-पूरा जान सकेंगे
और इस को पूरा पढ़ें और इसके पूरे तथ्य को
जानने के लिए भाग 1 से लेकर के भाग 9 तक
अवश्य पढ़ें और यह प्रत्येक सत्संगी बंधु को
अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि इसी से सभी
समस्याओं का नाश होगा और एक अलग ही
अनुभूति होगी और मन में एक अलग ही
आनंद उत्पन्न होगा और
सब आर्टिकल नीचे में है जाकर के अवश्य पढ़ें।।
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