साधक बंधुओं आप लोगों के लिए यह एक संजीवनी है
और प्रत्येक साधक को अभ्यास के
विस्तृत जानकारी के लिए इन्हें पूरा पूरा पढ़ना जरूरी है।
अगर आप पूरा-पूरा पूरा पढ़ेंगे तो
साधना कहां से प्रारंभ होता है और कहां पर फिर इसका इति होता है
इन सब का सही-सही ज्ञान होगा और
आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होंगे यही शुभकामना है
और इसको पूरा पूरा पढ़ें और
जीवन में उतारने का भी प्रयास करें:-
86. भिन्न-भिन्न इष्ट को मानने वाले के भिन्न-भिन्न इष्ट देव कहे जाते हैं ।
इन सब के भिन्न-भिन्न नामरूप होने पर भी
सब की आत्मा अभिन्न ही है ।
तब तक उसकी भक्ति पूरी नहीं होती ।
किसी इष्ट देव के आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लेने पर परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति हो जाएगी
इसमें संदेह नहीं।
संख्या 84 में वर्णित साधनों के द्वारा ही
आत्मस्वरूप की प्राप्ति होगी।
प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महा कारण
केवल्य और शुद्ध आत्मस्वरूप है
जो उपासक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप का निर्णय नहीं जानता
और उसकी प्राप्ति का यत्न नहीं करता
परंतु उसके केवल वर्णनात्मक नाम और
स्थूल रूप में फंसा रहता है।
उसकी मुक्ति अर्थात उसका परम कल्याण नहीं होगा।
87. नादानुसंधान( सुरत शब्द योग) लड़कपन का खेल नहीं है।
इसका पूर्ण रूप से अभ्यास यम नियम हीन पुरुष से नहीं हो सकता
स्थूल शरीर में उसके अंदर के स्थूल कंपो की ध्वनियां भी अवश्य ही है
केवल इन्हीं ध्वनियों के ध्यान को पूर्ण नादानुसंधान जानना और इसको नादानुसंधान मुख्य साधन में अनावश्यक बताना बुद्धिमानी नहीं है।
बल्कि ऐसा जानना और ऐसा बताना योग विषयक ज्ञान कि अपने में कमी दर्शाना है।
यम और नियम हीन पुरुष भी नादानुसंधान में कुशल हो सकता है ऐसा मानना संतवाणी विरुद्ध है और अयुक्त भी है।।
88. सत्य, अहिंसा, अस्तेय( चोरी नहीं करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह( असंग्रह )को यम कहते हैं।
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय( अध्यात्म शास्त्र का पाठ करना )और ईश्वर प्राणीधान ईश्वर में चित लगाना को नियम कहते हैं।
89.यम और नियम का जो सार है संख्या 60 में वर्णित पांच पंच पापों से बचने का और गुरु की सेवा सत्संग और ध्याना अभ्यास करने का वहीं सार है ।।
90.मस्तक ,गर्दन और धड़ को सीधा रखकर
किसी आसन से देर तक बैठने का
अभ्यास करना अवश्य ही चाहिए।
दृढ आसन से देर तक बैठे रहने के बिना
ध्याना अभ्यास नहीं हो सकता है।
91. आंखों को बंद करके आंख के भीतर
डीम को बिना उल्टाये वा उस पर कुछ भी जोर लगाए बिना
ध्यान अभ्यास करना चाहिए।
परंतु नींद से अवश्य ही बचते रहना चाहिए।
92.ब्रह्म मुहूर्त में( पिछले पहर रात), दिन में ,स्नान करने के बाद तुरंत तथा सायंकाल नित्य नियमित रूप से अवश्य ध्यान अभ्यास करना चाहिए।
रात में सोने के समय लेटे-लेटे अभ्यास में
मन लगाते हुए सो जाना चाहिए।
काम करते समय भी मानस मानस वा मानस ध्यान
करते रहना उत्तम है ।
93.जब तक नादानुसंधान का अभ्यास
करने की गुरु आज्ञा न हो
केवल मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि योग के अभ्यास करने की आज्ञा हो ।
तब तक दो ही बंद (आंख बंद और मुंह बंद) लगाना चाहिए ।
नादानुसंधान करने की गुरु आज्ञा मिलने पर
आंख कान और मुंह तीनों बंद लगाना चाहिए।
94.
केवल ध्याना अभ्यास से ही प्राण स्पंदन( हिलना) बंद हो जाएगा ।
इसके प्रत्यक्ष प्रमाण का चिन्ह यह है कि
किसी बात को एक चित्त होकर वह ध्यान लगाकर
सोचने के समय श्वास प्रश्वास की गति
कम हो जाती है।
पूरक, कुंभक और रेचक करके प्राणायाम करने का
फल प्राण स्पंदन को बंद करना ही है ।
परंतु यह क्रिया कठिन है ।
प्राण का स्पंदन बंद होने से सूरत का पूर्ण सिमटान होता है।
सिमटाव का फल संख्या 56 में लिखा जा चुका है
बिना प्राणायाम किए ही ध्यान अभ्यास करना
सुगम साधन का अभ्यास करना है।
इस के आरंभ में प्रत्याहार का अभ्यास करना होगा
अर्थात् जिस देश में मन लगाना होगा
उससे मन जितनी बार हटेगा उतनी बार
मन को लौटा लौटा कर उसमें लगाना होगा
इस अभ्यास से स्वभाविक ही धारणा (मन का अल्प टीकाव) उस देश पर होगी
जब धारणा देर तक होगी वही
असली ध्यान होगा
और संख्या 60 में वर्णित ध्वनि धारों का ग्रहण
ध्यान में होकर अंत में समाधि प्राप्त हो जाएगी ।
प्रतिहार और धारणा में मन को दृष्टि योग का सहारा रहेगा दृष्टि योग का वर्णन 59 में हो चुका है।।
95. जागृत और स्वप्न अवस्थाओं में दृष्टि और स्वास चंचल रहते हैं मन भी चंचल रहता है ।
सुषुप्ति अवस्था गहरी नींद में दृष्टि और मन की चंचलता नहीं रहती है पर श्वास की गति बंद नहीं होती है ।
इन स्वभाविक बातों से जाना जाता है कि
जब-जब दृष्टि चंचल है मन भी चंचल है
जब दृष्टि में चंचलता नहीं है तब मन की चंचलता जाती रहती है ।
और श्वास की गति होती रहने पर भी दृष्टि का काम बंद रहने के समय मन का काम भी बंद हो जाता है।
अतः यह सिद्ध हो गया कि मन के निरोध के हेतु में दृष्टि निरोध की विशेष महत्ता है ।
मन और दृष्टि दोनों सूक्ष्म है
और श्वास स्थूल इसलिए मन भी मन पर
दृष्टि के प्रभाव का श्वास के प्रभाव से अधिक होना अवश्य ही निश्चित है।।
96.
दृष्टि के चार भेद हैं
(1)जागृत की दृष्टि
(2) स्वप्न की दृष्टि
(3)मानस दृष्टि और
(4)दिव्य दृष्टि
दृष्टि के पहले तीनों भेदों के निरोध होने से
मनोनिरोध होगा और दिव्य दृष्टि खुल जाएगी।
दिव्य दृष्टि में भी एकबिंदुता रहने पर
मन की विशेष उर्ध्व गति होगी
और मन सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाद को प्राप्त कर
उसमें लय हो जाएगा ।।
97. "जब मन लय हो जाएगा तब
सूरत को मन का संग छूट जाएगा
मन विहीन हो ,शब्द धारों से आकर्षित होती हुई
निशब्द में अर्थात परम प्रभु सर्वेश्वर में पहुंचकर
वह भी लय हो जाएगी।
अंतर साधन कि यहां पर इति हो।
गई प्रभु मिल गए
काम समाप्त हुआ ।।।"
98.साधक को स्वाबलंबी होना चाहिए
अपने पसीने की कमाई से उसे अपना
निर्वाह करना चाहिए।
थोड़ी सी वस्तुओं को पाकर ही अपने
को संतुष्ट रखने की आदत लगानी चाहिए
आदत लगानी उसके लिए प्रमोचित है
99. काम, क्रोध ,लोभ ,मोह, अहंकार, चीढ द्वेष आदि मनोविकार से खूब बचते रहना और
दया, शील, संतोष, क्षमा ,नम्रता आदि मन के उत्तम
और सात्विक गुणों को धारण करते रहना
साधक के पक्ष में अत्यंत हित है।।
100.मांस और मछली का खाना तथा मादक द्रव्यों का सेवन मन में विशेष चंचलता और मुढता उत्पन्न करते हैं।
साधक को इनसे अवश्य बचना चाहिए।।
।। श्री सतगुरु महाराज की जय ।।
👉🗣सज्जनों इस आर्टिकल को पूरा पढ़ें
प्रत्येक साधक के लिए यह संजीविनी है
और पूरा पूरा ज्ञान के लिए
भाग 1 से पढ़ना प्रारंभ करें।।
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