आइए पढ़ते हैं और अपने आध्यात्मिक चेतना को बढ़ाते हैं ...
अनादि काल से ही सभी प्राणी तथा विशेष रूप से मनुष्य सुख शांति एवं आनंद की खोज में सतत प्रयास करता रहा है.।
शिशु रूप में जन्म लेते हैं वह प्रकृति द्वारा जनित सरीरिक इंद्रियों से सृष्टि के दृश्यों के बारे में जानने व योग संसाधनों को जुटाने में जीवन व्यतीत कर देता है ।
वह अपने को पूर्ण रूप से बहिर्मुखी बना लेता है ।
परिणाम क्या होता है ?
अब सुख मिलेगा ,अब सुख मिलेगा
वह जैसे अतृप्त आता है वैसे ही अतृप्त संसार से चला जाता है।
संत सुंदरदास जी ने कहा:-
जौं दस बीस पचास भये सत, होई हजार तो लाख मांगे गी।।
कोटी अरब खरब असंख्य, पृथ्वी पति होने की चाह जागेगी।।
स्वर्ग पताल को राज करो,तृष्णा अधिकी अति आग लगेगी।।
अर्थात जिस जिस आकृति को वह अपना कहता है वह सभी रह जाती है
और अंत में मिथ्या संतोष कर के चला जाता है।
एक फकीर ने कहा है:-
उलझन है ही कुछ ऐसी, समस्याएं हल नहीं होती ।
यही सोचकर मेरी आंखें, रात में सोने नहीं देती।।
जिंदगी में बहुत कमाया ,क्या हीरा क्या मोती।
परंतु क्या करूं यारों ,कफन में जेब नहीं होती ।।
आनंद का स्रोत वास्तव में हमारे अंदर है ।
जबकि भूल से हम उसे बाहर असत्य पदार्थ में खोजते हैं ।
#सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने कहा है:-
तन नव द्वार हो रामा ,अति ही मलिन हो ठामा।
त्यागी चढु दशम द्वारे, सुख पाउ रे भाई ।।
हम उनकी बातों पर विश्वास नहीं करते अंत तक मृग मरीचिका के धोखे में रहते हुए
प्यासे ही यहां से परेशान हो चले जाते हैं।
हम सिनेमा हॉल के पर्दे पर चलचित्र देखते हैं
तथा इतना अधिक तादात्म्य कर लेते हैं कि
पर्दे पर अंकित होने वाले पात्रों के सुख दुख में
सम्मिलित होकर अपने को भुलावे में डाल देते हैं ।
अंधेरे में बैठे पर्दे पर प्रकाशित चल चित्रों को देखते हुए क्या कभी आपने पीछे मुड़कर देखा
आप पाएंगे कि संसार रूपी चलचित्र पीछे की ओर से एक तेज प्रकाश का पुंज फिल्म को बेधता हुआ
उस पर्दे पर उसे प्रकाशित कर रहा है
इसी प्रकार बहु आयामी अनंत आकाश रूपी पर्दे पर मिथ्या संसार रूपी दृश्यों को प्रकाशित दिखाने वाला प्रकाश पुंज का स्रोत आपके अंदर ही है।
वही आपके अंदर बैठा हुआ मन बुद्धि आदि इंद्रिय को प्रकाश चेतना देकर इनके सहारे स्वयं ही
सब कुछ देख रहा है।
तो फिर मैं कौन हूं और कहां हूं ?
शरीर तो नाशवान है इसमें मैं कौन
नैनं छिदयंंति शस्त्राणि नैनं देहती पावक :
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
जो इस नाशवान देह के हृदय के अंदर बैठकर कानों से सुनता है ,त्वचा से स्पर्श करता है, नेत्रों से देखता है, रसना से स्वाद का अनुभव करता है,
नाक से सुंघता है ।
वाणी से बोलता है, हाथों से काम करता है
पैरों से चलता है, जननइंद्रिय से सृष्टि सृजन करता है ।
गुदा से मल त्याग करता है ।
वही जीवात्मा ईश्वर का अंश ही मैं हूं ।
तत्वज्ञान का जिज्ञासु प्रकाश रूपी ज्ञान की ओर उन्मुख रहता
हुआ ब्रह्म ज्योति और ब्रह्मनाद के सहारा से सत्य पर पहुंचकर सच्चिदानंद का अनुभव करता है ।
जबकि प्रकाश रूपी ज्ञान की ओर पीठ विमुख करके चलने वाला अज्ञानी
सामने पड़ने वाली छाया रूपी माया को सत्य समझता हुआ
उसे पकड़ने के लिए जितनी दौड़ लगाता है
वह भी उसी गति से भागती है
माया छाया एक सी मुरख जाने नाही
भगता के पीछे फिरे सन्मुख भागे ताहि।।
वह उसे बार-बार पकड़ता है परंतु हाथ में नहीं आता और धीरे-धीरे थक कर निराश हो जाता है
अंत तक दृष्टिगोचर ही सत्य के भुलावे में रहता हुआ संसार से चला जाता है।
तथा कर्मानुसार पुनः दूसरी देह धारण करता है यह सिलसिला तब तक चलता रहता है।
जब तक कि वह अंधकार अज्ञान व असत्य रूपी बहिर्मुखता से विमुख होकर अंतर्मुखी ज्ञान
सत्य रूपी प्रकाश की ओर उन्मुख हो
उसे पाया ना जाए।
जन्म मृत्यु शरीर की होती है
आत्मा की नहीं
जीवात्मा न कभी जन्मता है और नहीं मरता है।
यह समष्टि तो ईश्वर का सनातन अंश है।
और शरीरों को अनुपयोगी होने पर भी उसी प्रकार बदल देता है।
जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने कपड़े को बदल देता है ।
या कोई कोई किराए का मकान बदल लेता है।
अतः यह जीवन जीव का ही है शरीर का नहीं
माया निर्मित आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी मन बुद्धि चित्त अहंकार यह जड़ शरीर तो मात्र जीव द्वारा विषय भोगों के सेवन का हेतु
या उसकी भावनाओं को व्यक्त करने में सहायक है।
अतः यदि निर्भय निश्चिंत व दिव्य जीवन जीना है
तो अज्ञान रूपी अंधकार से छुटकारा पाओ
और ज्ञान रूप सत्य प्रकाश की ओर बढ़ो
उसे पहचानो।।
।। श्री सतगुरु महाराज की जय ।।
सज्जनों योगानंद जी महाराज का और भी प्रवचन नीचे अंकित है आप जाकर अवश्य पढ़ें और जीवन में उतारें।।
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