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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

मेंहीं बाबा का मोक्ष ज्ञान भाग 7

 ओम श्री सत गुरुवे नमः
 सज्जनों आइए सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की अमृतवाणी मेही बाबा का मोक्ष ज्ञान का अगला करें आप लोगों के सामने प्रस्तुत हैं अध्ययन करें और अपने जीवन में मनन करें

80. जीवन काल में जिनकी सूरत सारे आवरणओं को पार करते हुए शब्दा तीत पद में समाधि समय लिन होती है 

और पिंड में वरतने के समय उनमुनि रहनी में रहकर सार शब्द में लगी रहती है।ऐसे जीवनमुक्त परम संत पुरुष पुणे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं  ।

81. परम प्रभु सर्वेश्वर को पाने की विधियां के अतिरिक्त जितनी विधाएं हैं .
उन सब से उतना लाभ नहीं जितना कि परम प्रभु से मिलने से.
 परम प्रभु से मिलने की शिक्षा की थोड़ी सी बात के तुल्य लाभदायक दूसरी दूसरी शिक्षाओं की अनेका अनेक बातें लाभदायक नहीं हो सकती है.
 इसलिए इस विद्या के सिखलाने वाले गुरु से बढ़कर उपकारी दूसरे कोई गुरु नहीं हो सकते.
 और इसीलिए किसी दूसरे गुरु का दर्जा इनके दर्जे के तूल्य नहीं हो सकता
 केवल आधि भौतिक विद्या के प्रकांड से भी प्रकांड वह अत्यंत धुरंधर विद्वान के अंतर के आवरण टूट गए हो यह कोई आवश्यक बात नहीं है
 और ना इनके पास कोई ऐसा यंत्र है जिससे अंतर का आवरण टूटे वा कटे
 परंतु सच्चे और पूरे सद्गुरु में यह बातें आवश्यक है सच्चे और पूरे सद्गुरु का अंतरपट टूटने की शक्ति का किंचित मात्र भी संकेत संसार की सब विद्याओं से विशेष लाभदायक है।।

82. पूरे और सच्चे सद्गुरु की पहचान अत्यंत दुर्लभ है
 फिर भी जो शुद्ध आचरण रखते हैं जो नित्य नियमित रूप से नादानुसंधान का अभ्यास करते हैं
 और जो संतमत को अच्छी तरह समझा सकते हैं 
उनमें श्रद्धा रखनी और उनको गुरु धारण करना अनुचित नहीं ।
दूसरे दूसरे गुण कितने भी अधिक हो परंतु यदि आचरण में शुद्धता नहीं पाई जाए तो वह गुरु मानने योग्य नहीं है।
 यदि ऐसे को पहले गुरु माना भी हो तो उसका दूराचरण जान लेने पर उससे अलग रहना ही अच्छा है।
 उसकी जानकारी अच्छी होने पर भी आचरण हीनता के कारण उसका संग करना योग्य नहीं है 
और गुणों की अपेक्षा गुरु के आचरण का प्रभाव शिष्यों पर अधिक पड़ता है ।
और गुणों के सहित शुद्ध आचरण का गुरु में रहना ही उसकी गरुता तथा गुरुता है ।
नहीं तो वह गरु (गाय ,बैल) है।
 क्या शुद्ध आचरण और क्या गुरु होने योग्य दूसरे दूसरे गुण किसी में भी कमी होने से वह झूठा गुरु है।

"गुरु से ज्ञान जो लीजिए, शीशे दीजिए दान।
 बहुततक भोंदू बही गए, राखी जीव अभिमान।।
 तन मन ताको दीजिए, जाके विषया नाहीं।
आपा सबही बालिके, राखै साहब माहिं ।
झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न कीजे बार।
 द्वार न पावे शब्द का, भटके बारंबार।।"
                              ( कबीर साहब)
पूरे और सच्चे सद्गुरु को धारण करने का फल तो अपार है ही परंतु ऐसे गुरु का मिलना अति दुर्लभ है
 ज्ञानवान शुद्ध चारी तथा सुरत शब्द योग के अभ्यासी पुरुष को गुरु धारण करने से शिष्य उस गुरु के संग से धीरे-धीरे गुरु के गुणों को लाभ करें यह संभव है।
 क्योंकि संग से रंग लगता है और शिष्य के लिए वैसे गुरु की शुभकामना भी शिष्य को कुछ ना कुछ लाभ अवश्य पहुंचाएगी।
 क्योंकि एक का मनोबल दूसरे पर कुछ प्रभाव डालें यह भी संभव हीं है।
 ज्ञात होता है कि उपर्युक्त संख्या 2 की साखी और पारा 77 में लिखित साखी को जो यह निर्णय कर देती है कि कैसे का शिष्य बनो और कैसे के हाथों में अपने को सोपों
 इसका रहस्य ऊपर कथित इसके पक्ष में दोनों ही बातें लाभदायक है।
 जो केवल सुरत शब्द योग का अभ्यास करें किंतु ज्ञान और शुद्धाचरण की प्रवाह नहीं करें ऐसे को गुरु धारण करना किसी तरह भला नहीं है
 यदि कोई इस बात की परवाह नहीं करते किसी दुराचारी जानकार को ही गुरु धारण कर ले तो ऊपर कथित गुरु से प्राप्त होने योग्य लाभ से वंचित रहेगा।
 और केवल अपने से अपनी संभाल करना उसके लिए अत्यंत भीषण काम होगा
 इस भीषण काम को कोई विशेष थीर बुद्धि वाला विद्वान भी कर ले पर सर्वसाधारण के हेतु असंभव सा है।
 यह बातें प्रत्यक्ष है कि एक की गर्मी दूसरे में समाती है
 तथा कोई अपने शरीर बल से दूसरे के शरीर बल को सहायता देकर और अपने बुद्धि बल से दूसरे के बुद्धि बल को सहायता देकर बढ़ा देते हैं तब यदि कोई अपना पवित्रता पूर्ण तेज दूसरे के अंदर देकर उसको पवित्र करें और अपने बढ़े हुए ध्यान बल से किसी दूसरे के ध्यान बल को जगावे और बढ़ावे
 तो इसमें संशय करने का स्थान नहीं है
( कल्याण साधना प्रथम खंड पृष्ठ 499 में अमीर खुसरो का वचन है कि: सुनिए मैंने भी उस महापुरुष  जगद्गुरु भगवान श्री स्वामी रामानंद का दर्शन किया है अपने गुरु ख्वाजा साहब के तरफ से तोहफे बेनजीर अनुपम भेंट लेकर पंचगंगा घाट पर गया था स्वामी जी ने दाद दी थी और मुझ पर जो मेहर कृपा हुई थी उसे फौरन मेरे दिल की सफाई हो गई थी और खुदा का नूर झलक गया था।।, मंडल ब्राह्मणोपनिषद तृतीय ब्राह्मण में के इत्युच्चरन्त्सालिंग्य शिष्यं ज्ञप्तिमनीनियत्।।
का अंग्रेजी अनुवाद के नारायण स्वामी अय्यर ने इस प्रकार किया हैकि
" Saying this,he the purusha of the sun, embraced his pupil and made him understand it."
 अर्थात् इस प्रकार कह कर उसने सूर्यमंडल के पुरुष ने अपने शिशु को छाती से लगा लिया और उसको उस विषय का ज्ञान करा दिया)
 और उस पर उन्होंने उपर्युक्त एयरजीने के पृष्ठ नीचे मै यह टिप्पणी लिख दी है कि 
 this is a reference to the secret way of emparting higher truth"

 अर्थात् उच्चतर सत्य ब्रह्म का अपरोक्ष ज्ञान प्रदान करने की गुप्त विधि का यह अर्थात छाती से लगाना एक संकेत है।
Thirty minor upanishads 259-30)
 माइनर उपनिषद पृष्ठ 259 ज्ञात होता है कि
 पूरे गुरु के पवित्र तेज से उनके उत्तम ज्ञान से तथा उनके ध्यान बल से शिष्यों  को लाभ होता है इसी बात की सत्यता के कारण बाबा देवी साहब की छपाई हुई घट रामायण में निम्नलिखित दोनों पदों को स्थान प्राप्त है वह पद्य में यह है।
" मुर्शिद कामिल से मिल, सीधक और सबूरी से तकी। 
जो तुझे देगा फहम शहरग के पाने के लिए।।
 अर्थात् हे तकी सच्चाई और संसारी चीजों का लालच त्यागकर संतोष धारण कर कामिल पूरे मुर्शीद गुरु से जाकर मिलो जो तुझको सहायक सुषुम्ना नाड़ी पाने की समझ देगा यह पद्य विदित करता है कि भजन भेद कैसे पुरुष से लेना चाहिए ।
और  दूसरा
तुलसी बिना कर्म किसी मुर्शीद रशीदा के।
 राहे नजात दूर है, उस पार देखना।।
 अर्थात तुलसी साहब कहते हैं कि किसी मुर्शीद रशीदा पहुंचे हुए गुरु के कर्म बख्शीश दया दान के बिना राहे निजात मुक्ति का रास्ता और उस पार का देखना दूर है ।
यह पद तो साफ़ ही कह रहा है कि पूरे गुरु के दया दान से ही उस पार का देखना होता है अन्यथा नहीं।
 और वराह उपनिषद में है कि
" दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्वदर्शनम।
 दुर्लभ सहजावस्था सद्गुरो करुणां बिना ।।"

अर्थात् सद्गुरु की कृपा के बिना विषय का त्याग दुर्लभ है।
 तत्व दर्शन ब्रह्म दर्शन दुर्लभ है।
 और सहजावस्था दुर्लभ है।
 इस प्रकार की दया का दान गुरु से प्राप्त करने के लिए उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया जाए इसी में गुरु सेवा की विशेष उपयोगिता है ।
भगवान बुध की धम्मपद नाम की पुस्तिका में गुरु सेवा के लिए उनकी आज्ञा है यथा:- मनुष्य जिससे बुध्द का बताया हुआ धर्म सीखे, तो उसे उनकी परिश्रम से सेवा करनी चाहिए
 जैसे ब्राह्मण यज्ञ अग्नि की पूजा करता है।।
 संत चरणदास जी ने कहा है:-

 मेरा यह उपदेश हिये में धारियों
 गुरु चरणन मन राखी सेव तन गाड़ियों।।
 जो गुरु झिड़़कै लाख तो मुख नाहीं मोरियो
 गुरु से नेह लगाय सबन  सो तोड़ियो।।

 (चरण दास जी की वाणी )

बाबा देवी साहब ने भी घट रामायण में छपाया है
 "यह राह मंजिल इश्क है पर पहुंचना मुश्किल नहीं 
मुश्किल कुशा है रोबरू, जिसने तुझे पंजा दिया।।
 अर्थात यह राह मार्ग और मंजिल गंतव्य स्थान इश्क प्रेम है पर पहुंचना कठिन नहीं ,
मुश्किल कुशा कठिनाइयों को मारने वाला वा दूर करने वाला रोबरू सामने वह है जिसने तुझे पंजा भेद व आज्ञा दिया है।
 यद्यपि संत महात्मा गण समदर्शी कहे जाते हैं।
 तथापि जैसे वर्षा का जल सब स्थानों पर एक तरह से बरस जाने पर भी गहरे गहरे में ही विशेष जमा होकर टिका रहता है।
 वैसे ही संत महात्मा गण की कृपा दृष्टि भी सब पर एक तरह ही होती है परंतु उनके विशेष सेवक गहिरे गहरे की ओर वह वेग से प्रवाहित होकर उसी में अधिक ठहरती है।
 संत महात्मागण स्वयं सब पर समरूप से अपनी कृपा दृष्टि करते ही हैं
 पर उनके सेवक अपनी सेवा से अपने को उनका कृपा पात्र बना उनकी विशेष कृपा अपनी ओर खींच लेंगे ।
इसमें आश्चर्य ही क्या? 
एक तो देने वाला के दान की न  प्रवाह करता है और ना वह उसे लेने का पात्र है ठीक है ,
दूसरा इसकी बहुत प्रवाह करता है और अत्यंत यत्न से अपने को उस ज्ञान के लेने का पात्र बनाता है।
 तब पहले से दूसरे को विशेष लाभ क्यों न होगा।
 संत महात्मा की वाणी में गुरु सेवा की विधि का यही रहस्य है ऐसा जानने में आता है।।

83. किसी से कोई विद्या सीखने वाले को सिखलाने वाले से नम्रता से रहने का तथा उनकी प्रेम सहित कुछ सेवा करने का ख्याल ह्रदय में स्वभाविक ही उदय होता है इसलिए गुरु भक्ति स्वभाविक ही है गुरु भक्ति के विरोध में कुछ कहना फजूल हैं .
निस्संदेह और योग्य गुरु की भक्ति को बुद्धिमान आप त्यागेंगे  और दूसरे से भी इस का त्याग कराने की कोशिश करेंगे यह भी स्वाभाविक ही है।।

84. सत्संग, सदाचार, गुरु की सेवा और ध्यान अभ्यास साधकों को इन चारों चीजों की अत्यंत आवश्यकता है।।
 संख्या 53 में सत्संग का वर्णन है संख्या 60 में पंच पाप से बचने को सदाचार कहते हैं।
 गुरु की सेवा में उनकी आज्ञा ओं का मानना मुख्य बात है और ध्यान के बारे में संख्या 54, 55 ,56 ,57 और 59 में लिखा जा चुका है ।
संतमत में उपर्युक्त चारों चीजों के ग्रहण करने का अत्यंत आग्रह है इन चारों में मुख्यतः गुरु की सेवा ही है।
 जिसके सहारे उपर्युक्त बची हुई तीनों चीजें प्राप्त हो जाती है ।।

85.दुख से छूटने और परम शांति दायक सुख को प्राप्त करने के लिए जीवो के हृदय में संभावित प्रेरण है।
 इस प्रेरण के अनुकूल सुख को प्राप्त करा देने में संतमत की उपयोगिता है।
 सज्जनों आर्टिकल बहुत ही उत्तम और अध्यात्मिक रहस्यमय वाली बातों से भरी है और जीवन के लिए एक प्रेरणादाई नी है और इसका पिछला अंक अगर आप पढ़ना चाहते हैं नीचे में इसका और भी भाग है जिसे आप पूरा पढ़ें तो पूरा पूरा लाभ होगा

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