इसके विषय में विशद व्याख्या स्वामी योगानंद जी महाराज के शब्दों में पढ़ेंगे आइए पढ़ें
धर्म कहते हैं स्वभाव को
महर्षि कणाद ने वैशेषिक सूत्र में कहा है
यतोअभ्यदयानि श्रेयसिसिद्धि स धर्मः।
अर्थात अलौकिक उन्नति करते हुए कल्याण की प्राप्ति की जाए वह धर्म है।
आत्म कल्याण और लोक कल्याण की दृष्टि से किया जाने वाला कर्म धर्म है
इस धर्म के पालन से मनुष्य का अपना जीवन सुख शांति में होता है
इससे अलौकिक सामाजिक व्यवस्था भी सुंदर सुखद बनती है
इस धर्म को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता
चाहे वह किसी भी मत संप्रदाय मजहब का अनुयाई एवं कैसा भी पूजा पाठ करने वाला क्यों ना हो ।
सुख प्राप्ति के लिए जिसको धारण तथा सेवन किया जाए वह धर्म है ।
धर्म की जितनी भी वैज्ञानिक तथा तथ्य परक परिभाषाएं दी गई है उसमें कर्तव्य पालन एवं शुभ आचरण को ही माना गया है
परंतु धर्म की यह परिभाषा भुला दी गई है
और औपचारिक पूजा पाठ हवन भजन कीर्तन आदि बाहरी कर्मकांड को धर्म मान लिए हैं।
साथ ही धर्म के नाम पर तमाम सस्ते नुस्खे बताए जाने लगे हैं
थोड़ी पूजा किसी के नाम के एक बार जप किसी तीर्थ या नदी स्नान कर लेने मात्र से एवं किसी तीर्थ को व्रत उपवास करने मात्र से सारे पाप का नाश होगा।
स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति होगी ऐसा मानने लगे हैं।
मोक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि जो किसी एक स्थान पर रखी हो
अथवा यह भी नहीं कि उसकी प्राप्ति के लिए किसी दूसरे गांव या प्रदेश को जाना पड़े
लेकिन आजकल स्वर्ग मोक्ष के नाम पर अंधविश्वास मिथ्या महिमा चमत्कार का प्रचार किया जाने लगा है
आज अधिकतम उपदेशक धर्म उपदेश व्यास गद्दी पर बैठ कर ऐसी बातें कह रहे हैं जिन्हें धर्मशास्त्र संतवाणी वेद वाणी एवं अवतारी महापुरुषों की वाणी से कोई मतलब नहीं है ।
भागवत कथा कहते हैं उसमें भगवान श्री कृष्ण की लीला करते हैं।
संसार में शायद ऐसी परंपरा चल गई है
भगवान को पराई स्त्री के साथ रास क्रीडा द्वारा नचाते हैं।
प्राचीन ग्रंथों में इसकी गंध भी नहीं है ।
प्रमाणिक ग्रंथ वेद उपनिषद महाभारत और गीता में कहीं रास की चर्चा नहीं है।
तब किस प्रमाण के आधार पर पीछे पंडितों ने हरिवंश भागवत आदि पुराण में उसकी चर्चा कर कृष्ण चरित की हत्या की ।
वस्तुतः यह सब कुकृत्य श्रृंगार रस में डूबे हुए
संस्कृत के कवियों के मन के प्रतिबिंब हैं।
प्रथम परिकल्पना हरिवंश पुराण में आई है ।
(विष्णु पर्व अध्याय 20 )
कुल 21 श्लोको में रासलीला का चित्रण किया गया है ।
इसके बाद जहां रासलीला का पूर्ण विकास हुआ है
वह है भक्ति ज्ञान तथा बैराग प्रधान गुण श्रीमद् भागवत ।।
भागवत लेखक को भक्ति ज्ञान और वैराग्य की त्रिपुटी में आनंद नहीं आया
और उसने अत्यंत श्रृंगारिक रूप रासलीला का नग्न चित्रण किया ।
जिसे भागवत के दसवें स्कंध के रास पंचाध्याई में देख सकते हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुरान बना तब एक नई नायिका राधा आ गई ।जिसे श्रीकृष्ण से जोड़ दिया गया
जो आज कृष्ण के साथ लोगों सच लगती है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में रासलीला का और वीभत्स रूप बना।
इसके बाद गर्ग संहिता बहुत विशाल का ग्रंथ बना
इसमें श्रीकृष्ण की अरबों पत्नियां बना दी गई
इसके बाद बंगाल के जयदेव पंडित ने
गीत गोविंद लिखकर उसमें कृष्ण का बड़ा अश्लील रूप रखा ।
मध्य युग के श्रृंगार रस में लीन संस्कृत के पंडितों की भड़ास का यह फल है ।
आजकल के भी विद्वान महात्मा लोग जो रास के समर्थक हैं
यह कहते घूमते हैं कि रासलीला तो
भगवान की लीला है।
जो अत्यंत हास्यास्पद है ।
आश्चर्य तो यह है कि
रासलीला के समर्थन करने वाले तथा
रास कराने वाले आस्तिक है।
और उसे इसे असत्य कहता है वह नास्तिक है ।
ऐसी स्थिति में पूरे भारत वासियों को नास्तिक हो जाना चाहिए ।
तभी हम अपने महापुरुषों को आरोपित मलीन अवधारणाओं को दूर कर सकते हैं ।
मैं धर्म के संबंध में कह रहा था
आज प्रायः कहा जाता है कि भौतिकवादी
धर्म की निंदा करते हैं ।
यथार्थ इससे भिन्न है
धर्म ही धर्म की निंदा करना कराने वाले वह हैं
जो धर्म को मानते हैं धर्म की आड़ में स्वार्थ और पद भोगों की कामना रखते हैं
बड़े-बड़े तीर्थ स्थान तथा देव मंदिर धर्म के स्थान
परंतु वहां की दशा देखकर किसी विचारक के मन में घृणा नहीं उत्पन्न होगी
तीर्थों में पुजारी आम जनता को मूड बनाकर उनका धन चूसना ही अपना कर्तव्य समझते हैं ।
तीर्थों और देव मंदिरों की बहुत महिमा करने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी
उनसे उबकर कह बैठते हैं :-
सूरत नन्ही तीरथ पुरी निपट कुकाज कुलाज
मनहूं नवासे माडी कली, राजत सहित समाज।।
अर्थात देव मंदिर तीर्थों और पूरियों में अत्यंत निर्लज्जता पूर्ण कुकर्म हो रहे हैं
मानो कलिकाल अपने समाज क्रोध काम लोग मोह पाखंड को लेकर वहां अपना किला बनाकर विराज रहा है
कितने धर्म के ठेकेदार भगवान को तुरंत दिखाते हैं ।
कितने मांस मछली गांजा भांग सिगरेट तंबाकू आदि खा पीकर शरीर को अपवित्र कर
एवं अपनी बुध्दि को भ्रष्ट करते रहते हैं ।
यह लोग समाज का कल्याण क्या करेंगे
अपने स्वयं कुपथ पर चलते हैं
और दूसरे का पथ प्रदर्शन करते हैं।
जानकी बल्लभ शास्त्री ने बहुत ही अच्छा कहा
कुपथ कुपथ जो दौड़ाता पथ निर्देशक वह है
लाज लजाती जिसकी कृति से, धृति उपदेशक वह है।।
पंजाब केसरी में मैंने पढ़ा
एक नशेबाज उपदेशक एक सुंदर बहाने गढे
जिंदगी जीने को दी तो जी मैंने
किस्मत में लिखा था पियो तो पी मैंने
अगर ना पीता तो तेरा लिखा गलत हो जाता
तेरे लिखो को निभाया तो क्या खता कि मैंने।।
मैं एक बार पानीपत के आश्रम में गया वहां एक महंत गांजा पी रहा था और यह दोहा पढ़ रहा था
संत सहावी दुख परहित लागी
गांजा पिया ही चिलम धारी लागी।।
इस तरह के अंधविश्वासों को देखकर आधुनिक युवक के हृदय में धर्म के प्रति अनास्था होती चली जाती है।
अतः स्वयं उपदेशक वेद उपनिषद संतो की जीवन गाथा से उपदेश लें
और दूसरों को बतावे ।
स्वामी अभिलाष साहब ने कहा है
धर्म से अनास्था होने का दूसरा कारण विज्ञान की उन्नति तथा भोग पदार्थों के प्रति आसक्ति है ।
विज्ञान के आविष्कार रूपी चमत्कार से आधुनिक मानव चौंधिया गया है।
विज्ञान अपने स्थान पर प्रशंसनीय होते हुए भी
वही सब कुछ नहीं है
वैज्ञानिक उन्नति धन और भोग की चरम सीमा पर पहुंचा हुआ
अमेरिका क्या सुखी है?
वहां 20000 पागल हर वर्ष क्यों होते हैं
45% बच्चे अनैतिक रूप से क्यों होते हैं ।
तात्पर्य यह है कि जीवन में धर्म का वास्तविक विकास हुए बिना हम सच्चे सुखी नहीं हो सकते हैं।
सदैव से ही अधिक भोग परायण व्यक्ति धर्म आचरण से सुन रहे हैं और लोग धर्म का चोला पहनकर भी विषय बस धर्महीन बने रहते हैं
विषय आसक्ती बहुत बड़ा रोग है ।
वर्तमान समय में विषय परायणता जोरों पर हैं
अतः लोग स्वभाविक धर्म के प्रति उदास रहते हैं ।
बुखार लगने पर जैसे भूख नहीं लगती
वैसे ही अत्यंत विषय आसक्त मनुष्य को
धर्म की बातें अच्छी नहीं लगती ।
महाभारत के वन पर्व में भी आया है
"जो धर्म किसी दूसरे धर्म का विरोधी है
वह धर्म नहीं कुमार्ग है
धर्म वही जिसका किसी दूसरे धर्म से विरोध नहीं "
प्राणी मात्र के प्रति दया क्षमा और प्रेम का बर्ताव सदाचार तथा अपने स्वरूप का ज्ञान बस यही धर्म का सार है।
धर्म के भी दो रूप हैं
(1) सकाम धर्म ,
(2)निष्काम धर्म
और यही ज्ञान मोक्ष का द्वार है।
वास्तव में धर्म में कर्तव्य कर्तव्य बुद्धि अर्थ में निर्भय बता तथा सर्वत्र परमात्मा में में ही इस जीवन की परिपूर्णता निहित है।
जब मानव धर्म नीति की उपेक्षा कर देता है
तब वह पशु पक्षी से भी निम्न स्तर पहुंच जाता है।
उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता
कौवा को रात में नहीं दिखता
परंतु अधर्म युक्त वासना से ग्रसित अंतःकरण वाले पुरुष को न तो दिन में दिखाई देता है
न तो रात में।।
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