बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के अमृत मई वचन आप लोगों के सामने प्रस्तुत है आइए सज्जनों थोड़ा विस्तार से पढ़ें एक अलग ही आनंद की अनुभूति होगी
👉संत कबीर साहब ने कहा है –
पिउ पिउ करि करि कूकिए, ना पड़ि रहिये असरार।
बार बार के कूकते, कबहुँक लगै पुकार।।
👉ईश्वर का नाम सदा जपो।
- जपते-जपते कभी-न-कभी अवश्य पुकार सुनी जाएगी।
पड़ा रह संत के द्वारे, तेरा बनत बनत बन जाय
संत दादू दयाल साहब ने कहा -
सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन।
सहज रूप सुमिरण करै, निहकर्मी दादू दीन।।
बड़े-बड़े विद्वान सहज स्वरूप का सही अर्थ समझने में बहुत गड़बड़ाए हैं।
लिखा है खूब; किन्तु ‘सहज रूप सुमिरण' के विषय में लिख नहीं सके।
कुछ भी करते रहो, पाखाने में रहो, चाहे पेशाब करो, चाहे कोई काम करो, उसका सुमिरन करते रहो तो तुम निष्कर्मी हो।
इसका सब भाई अभ्यास करो।
हमारे एक बहुत ऊँचे दर्जे के सत्संगी थे यदुनाथ चौधरी। उनका शरीर छूटे हुए तीन साल हुए।
उनकी बीमारी का नाम सुना और सुना कि वे सख्त बीमार हैं; बचने की संभावना नहीं है।
मेरे लिए सवारी आयी, मैं उनके यहाँ गया और भेंट होने पर कहा –
निसदिन रहै सुरति लौ लाई।
पल पल राखो तिल ठहराई।।
इसी को श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है –
प्रयाणकाले मनसा चलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव। भुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
अर्थात् वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके और
निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यपुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है।
इसका खूब अभ्यास करो।
यही अन्त समय में काम देगा।
कभी मानस जप, कभी मानसध्यान, कभी दृष्टिसाधन - इन तीनों को रखो।
इसी से वृक्ष लगेगा और मोक्ष का फल फलेगा।
आरती कीजै आतम पूजा, सत्त पुरुष की और न दूजा।।
ज्ञान प्रकाश दीप उँजियारा, घट घट देखो प्रान पियारा।।
भाव भक्ति और नहीं भेवा, दया सरूपी करि ले सेवा।। सतसंगत मिलि सबद विराजै, धोखा दुन्द भरम सब भाजै।।
काया नगरी देव बहाई, आनन्द रूप सकल सुखदाई।।
सुन्न ध्यान सबके मन माना, तुम बैठौ आतम अस्थाना।।
सबद सुरत ले हृदय बसावो, कपट क्रोध को दूरि बहावो।। कहै कबीर निज रहनि सम्हारी, सदा आनंद रहै नर नारी।।
संतों की वाणियों से प्रेरणा लेकर सत्संगियों के हृदय में ऐसी प्रेरणा होनी चाहिए कि वे खूब ध्यान करें।
ध्यान करने में कुशल होने पर सब काम करते हुए भी ध्यान करना होता है।
विद्वान ऐसा वर्णन करते हैं कि कहना ही क्या!
किन्तु सहज सुमिरन के वर्णन करने में पैर लड़खड़ा जाता है; किन्तु हमलोगों के समझने के लिए तो कठिन नहीं जान पड़ता।
संत दादू दयालजी महाराज ने कहा -
सुरति सदा स्यावित रहै, तिनके मोटे भाग।
दादू पीवै राम रस, रहै निरंजन लाग।।
प्रेम इतना हो कि उसके मिलने की इच्छा बराबर लगी रहे।
घूमते-फिरते, कुछ काम करते हुए भी उस ओर मन को घुमाते रहना चाहिए।
इसके लिए तो रोना चाहिए कि अभी तक प्राप्त नहीं हुआ।
विवेकानन्द के लिए कहा जाता है कि वे इतना रोते थे कि तकिया भींग जाता था।
संत कबीर साहब के पद्य में कितना विरह है - ऐसा अन्यत्र मिलना कठिन है -
कैसे मिलौंगी पिय जाय।।टेक।।
समझि सोचि पग धरौं जतन से, बार बार डिग जाय।
ऊँची गैल राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय।।
लोक लाज कुल की मरजादा, देखत मन सकुचाया।
नैहर बास बसौं पीहर में, लाज तजी नहिं जाय।।
अधर भूमि जहँ महल पिया का, हम पै चढ़ो न जाय।
धन भइ बारी पुरुष भये भोला, सुरत झकोला खाया।।
दूती सतगुरु मिले बीच में, दीन्हों भेद बताय।
साहब कबीर पिया से भेंटे, सीतल कण्ठ लगाय।।
‘कैसे मिलौंगी पिय जाय।
समझि सोचि पग धरौं जतन से' का अर्थ ‘पैर रखना - सुरत जमाना' है।
‘बार बार डिग जाय' - सुरत हट जाती है।
यदि कोई कहे कि कबीर साहब तो पूर्ण थे ही,
तो उनके लिए यह कहना उचित नहीं।
उत्तर में कहा जा सकता है कि उक्त सज्जन का कथन अनुचित नहीं होगा कि वे पूर्ण थे; किन्तु
और लोगों के लिए उन्होंने ऐसा करने के लिए कहा, अथवा यदि वे इस प्रकार साधन करके ही पूर्ण हुए तो यह कहने में भी क्या हर्ज?
वार्षिक सत्संग सन्मार्ग पर चलने हेतु प्रेरणा के लिए होता है,
ऐसा नहीं कि यह मनोरंजन के लिए होता है।
सब लोगों को इस सत्संग से प्रेरणा मिले,
सबका ख्याल नवीन हो जाय,
इसलिए यह वार्षिक सत्संग होता है।
जिस सत्संग में अंतर की प्रेरणा न मिले,
वह सत्संग नहीं हुआ।
भगवद्भजन खूब करो।
इसकी प्रेरणा सत्संग से लो।
।।जय गुरुदेव ।।
सज्जनों आपको पूरा पूरा पढ़ के एक आनंद की अनुभूति मिली होगी ऐसा मेरा विश्वास है और भी इसी तरह का पढ़ने के लिए नीचे में आर्टिकल है और जाते जाते जय गुरु का कमेंट भी करें तो इससे हमको जानकारी मिलेगी और जो भी त्रुटि है उसके बारे में भी अवश्य बताएं आपका इंतजार रहेगा
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