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बुधवार, 8 अप्रैल 2020

स्तुति-प्रार्थना:स्वामी योगानंद

स्वामी योगानंद जी महाराज ने स्तुति प्रार्थना को सबसे
 पहले बताया और यहीं से दुखों की निवृत्ति का रास्ता प्रशस्त होता है 
आइए हम लोग स्तुति और प्रार्थना के गहन विषय पर सरल सरल शब्दों में जानें:-
 स्तुति से तात्पर्य है ईश्वर का गुणगान।
 प्रार्थना का अर्थ है विनय पूर्वक कुछ मांगना।
 संसार के प्रत्येक धर्म में प्रार्थना करने की बात कही गई है।
 स्तुति विनती सिर्फ एक पूजा पद्धति मात्र नहीं है बल्कि आंतरिक शक्ति जागृत करने का एक सशक्त साधन है ।
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की तरह प्रार्थना में एक बल है जो साध्य को अपनी ओर आकृष्ट करता है।
 हृदय की गहराई तथा तीव्र भावना से कही गई या की गई प्रार्थना थोड़े समय में ही व्यक्ति के आंतरिक जीवन को रूपांतरित कर सकती है।
 जीवन की आधारभूत व्यवस्था अंतः प्रज्ञा में निहित है।
 प्रार्थना उस अंतरात्मा से जुड़ने की अद्भुत कला है
 जीवात्मा का परमात्मा से मिलने का एक सरल माध्यम है।
 प्रार्थना रेडियम धातु की भांति प्रकाश और ऊर्जा उत्पन्न करती है ।
यह हमारे शरीर और मन की सुप्त उर्जा को प्रस्फुटित करने का साधन है।
 एक अज्ञात देश की यात्रा है ।
जहां अपने पूर्ण सत्य का स्रोत है
 प्रार्थना अपने घर की स्मृति है।
 हृदय की आवाज का नाम प्रार्थना है ।
ध्यान रहे यदि हृदय गूंगा हो तो परमात्मा भी बहड़ा होगा ।
परमात्मा को प्रदर्शन नहीं बल्कि हृदय का भाव चाहिए
 और इसी का नाम है पूजा।
 संत कबीर साहब के शब्दों में :-
"चींटी के पद नूपुर बोले सो भी साहब सुनता है।"

 बंगाली महात्मा राम प्रसाद सेन ने कितना अच्छा कहा है:-
 "जांक जमके कर ले पूजा, अहंकार हय मने मने ।
तुमि लुकिए तांरे करबे पूजा, जानवे ना रे जगज्जने।।"

 प्रार्थना का प्रभाव अंतःकरण चतुष्टय पर भी होगा जब राग द्वेष रहित होंगे ।
मोह ग्रसित प्राणी प्रार्थना भी अज्ञानता पूर्वक ही करेगा ।मानसिक नैतिक क्षमता की अभिवृद्धि हेतु भगवान नाम का जप करें।
 तदा कार  वृद्धि होने पर मंत्र जाप फलित होने लगेगा ।
प्रार्थना का जन्म होगा ।
निरंतर अभ्यास से निरत चित्त में ज्योत्सना आ जाएगी ।
और जीवन की धारा बदल जाएगी।
 वृत्ति उर्ध्वगति होने लगेगी।
 व्यक्ति अपने अंतर्निहित स्वार्थपरता दंभ भय असुरक्षा भ्रम से मुक्ति पाकर सचेत हो जाएगा।
 वह विनम्र भाव संपन्न हो जाता है।
 ईश्वर की दिशा में जाने वाली सुखद यात्रा का नाम प्रार्थना है।
 जिस प्रकार लेजर की किरने शरीर के अंदर स्थित पथरीली पदार्थ को तोड़ देती है उसी प्रकार प्रार्थना मन की ग्रंथियों को तोड़ती है।
 और आध्यात्मिक विकास में आने वाले अवरोधों को दूर करती है।
 प्रार्थना व्यक्ति में शांति के साथ साथ स्व प्रज्ञा का संचार करती है।
 भावनाओं की सुगंध से आपाद मस्तक ओतप्रोत हो जाती है।
 और आंखों से विषम संतप्त आंसुओं की अविरल धारा  मनके कलुष कल्मस को धो देती है ।
व्यक्ति की इच्छा ईश्वर इच्छा में रूपांतरित होने लगती है।
 जीवन से सांसारिक आकर्षण समाप्त हो जाते हैं।
 आने वाले भविष्य में जो भी कठिनाइयां है प्रार्थना प्रति रक्षात्मक औषधि है।
 भाव विह्वल प्रार्थना करके ऊर्जा के स्रोत से संपर्क साध लेता है ।
और शीघ्र स्वास्थ्य लाभ ले लेता है।
 प्रार्थना जीवन के कष्टों का बोझ हल्का बनाती है।
 और जीवन यात्रा को मधुर कर यात्री को तुष्टि पुष्टि संतुष्टि प्रदान करती है
 व्यक्ति को घृणा प्रतिशोध क्रूर व्रतियों के बोझ से मुक्त करती है ।
प्रभु जी की शक्ति स्रोत में आवाहन की बेला आ जाती है।
 परम आत्मीय उर्जा से संबंध होते हैं।
 संपूर्ण देवी संपदा हमें वरण करने को आतुर हो उठती है।
 और आसुरी शक्ति नमन कर मैत्री लाभ देने लगती है ।
प्रार्थना के लिए कोई विशेष समय स्थान या आसन की अनिवार्यता नहीं है ।
यह कभी भी कहीं भी किसी भी अवस्था में की जा सकती है।
 तथापि सहज एवं सरल भाव से यदि प्रातः एवं सायंकाल की जाए तो परम उपयोगी सिद्ध होती है।
 ब्रह्म मुहूर्त में सभी मनीषी देवता की उपस्थिति का लाभ भी आपको मिलेगा ।
ब्रह्म बेला में वातावरण बिल्कुल शांत रहता है।
 अंतःकरण सुग्राही होता है ।
और चारों ओर प्रकृति की उर्जा का साम्राज्य छाया रहता है ।
चारों ओर ऋषि किरण फैली रहती है जो विशेष फलित होती है ।
मंदिर में पहले से ही आध्यात्मिक स्पंदन प्रचुर मात्रा में बरस रही है।
 प्रार्थना केवल क्लिष्ट शब्दों के उच्चारण मात्र नहीं है ।
हृदय की गहराई से छूकर आई भाषा चाहे कितनी भी सरल क्यों ना हो प्रार्थना भाव प्रधान है।
 ईश्वर के प्रति की गई प्रार्थना संपूर्ण भाव पुनीत हो तो व्यक्ति के सारे मनोरथ सिद्ध करती है।
 इस तरह की प्रार्थना में हमें असत्य सत्य से सत्य की ओर ले जाती है
 प्रार्थना की अनुभूतियां कभी भी सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए।
 यह जीव और पीब के बीच का अंतरंग संबंध है।
 आज के समय में प्रार्थना व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकारी है।
 नैतिक पतन के कारण मानवता विनाश के कगार पर खड़ी है 
व्यक्ति की आंतरिक सृजनात्मक शक्ति निष्क्रिय हो गई है प्रार्थना की सहज विधि से उसे सक्रिय किया जा सकता है ।
प्रार्थना में अपने अवगुण का अवलोकन करने का अवसर मिलता है।
 प्रार्थना से हृदय निर्मल और शांत होता है।
 महात्मा गांधी ने कहा:-
 मुझे रोटी ना मिले तो मैं व्याकुल नहीं होता पर प्रार्थना के बिना मैं पागल हो जाऊंगा।"
 (सत्य ही ईश्वर है) 
प्रार्थना जैसे धर्म का सार है वैसे ही वह मानव जीवन की आत्मा है ।
जो अपने भीतर दीप ज्योति जगाने को तड़प रहा हो उसे प्रार्थना का सहारा लेना होगा ।
जिसने प्रार्थना के जादू का अनुभव किया है वह कई दिनों तक आहार के बिना तो रह सकता है परंतु प्रार्थना के बिना तो एक क्षण भी नहीं रह सकता है।।
 कारण प्रार्थना के बिना भीतरी शांति नहीं मिलती है।
 मन्मुख हृदय की एकता हो उस समय यदि प्रार्थना की जाए तो वह प्रार्थना परमात्मा निश्चित सुन लेते हैं।।

 मुगल सम्राट बाबर का पुत्र हुमायूं बीमार पड़ गया 
अनेक उपचार किए लेकिन स्वास्थ्य बिगड़ता ही चला गया।
 हुमायूं की यह दशा देखकर आत्मविश्वास के साथ 
बाबर ने संकल्प किया कि वह अपने प्राण के बदले 
जीवन के बदले ईश्वर से हुमायूं की प्राण रक्षा की भीख मांगेगा ।
संकल्पित होकर बाबर ने हुमायूं के पलंग की तीन बार परिक्रमा आंख बंद करके एकाग्र चित्त होकर पूर्ण समर्पित भाव से प्रार्थना कि:-
" हे अल्लाह परमेश्वर! यदि मेरे प्राण के बदले में
 हुमायूं स्वस्थ हो सकता है और वह जीवित रह सकता है 
तो मैं इसे उस पर न्योछावर करता हूं
 हुमायूं के सारे रोग मेरे ऊपर आ जाएं 
ईश्वर की लीला विचित्र है अगले दिन से
 हुमायूं स्वस्थ होने लग गए 
बाबर की हुमायूं बिल्कुल स्वस्थ हो गया
 और बाबर 26 दिसंबर 1530 को 
आगरा में संसार से विदा हो गए ।।"

अतः हम किसी भी धर्म मजहब संप्रदाय आदि के क्यों न हो अथवा किसी भाषा भाषी के क्यों न हो ।
 परमात्मा की प्रार्थना अपनी मनोनीत भाषा में अवश्य करें ।
सभी भाषा उन्हीं से आई है 
इसलिए हृदय की पुकार किसी भाषा में करें कोई हर्ज नहीं है प्रार्थना इस प्रकार से सभी भाषा में करते हैं।
प्रार्थना को अनेक भाषाओं में संबोधित किए जाने पर भी सब का उद्देश्य एक परम प्रभु परमात्मा से विनय करने का ही है ।
परमात्मा स्वरुप नाम रूप से परे हैं ।
वह न व्यक्ति हैं और नो व्यक्त है।
 इस हेतु उसको न  स्त्री कह सकते हैं और ना पुरुष ही 
किंतु वह जगत के माता-पिता दोनों हैं 
 हमारे इतने सुविधाएं हैं उन से क्या मांगू अगर सांसारिक वैभव वस्तु मांगते हैं तो वह मांग बाकी रह जाएगी ।
संत कबीर साहब ने कहा है:-
" आव गया आदर गया,     नैनन गया स्नेह।
 यह तीनों तब ही गए ,जबही कहा कछु देय ।।"

तात्पर्य यह कि मांगने को अच्छा नहीं कहा गया है ।
पुरानी कथा है कि भगवान विष्णु राजा बलि के यहां 52 अंगुल वाला शरीर बना कर गए 

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कहा है :-
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर ना करो।
 जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो ।।

जिसका हाथ किसी के सामने नहीं फैलता है वह आदर्श के पात्र हैं ।
लेकिन ऐसे कितने हैं जिनके पास कोई मांग नहीं है कोई इच्छा नहीं है ।
ऐसे तो एक संत ही होते हैं।
 संत कबीर साहब ने कहा है :-
चाह गई चिंता मिटी मनुआ बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिए सोई शहंशाह ।।

यह मानव की अत्यंत मूढता का लक्षण है कि 
जो वस्तु स्वभाविक आने-जाने जाने वाली है 
उसके लिए वह प्रार्थना करता है ।
क्षणभंगुर संपत्ति और संतान के लिए प्रभु से 
प्रार्थना करके तुम क्या करोगे ?
ऐसी तुच्छ वस्तु की मांग क्यों करूं जो साथ ना जाए
 जरा हृदय पर हथेली रखकर शांत भाव से विचारों तो सही 
संतान हीन कोई भी पशु पक्षी कभी किसी देवता की आराधना करता है
 या अन्य किसी के समक्ष अभ्यर्थना करता है ।
यदि नहीं तो तुम मननशील मानव अपने अनमोल जीवन को
इन व्यर्थ की बातों में पडकर क्यों दबाते हो ।
अमृत त्तुल्य परमात्मा का परित्याग कर
 विषय बिष के पीछे क्यों पागल हो रहे हो
 यदि तुम किसी भी प्रकार की देहीक दैविक  भौतिक या मानसिक व्यथा से व्यथित हो तो 
तुम उसे अपने प्रारब्ध संचित या  क्रिया मान कर्म का फल समझो ।।
अपने किए कर्म से प्राप्त फल को भोग लेने में ही कुशलता है ना कि इन से छूटने के लिए प्रार्थना करने में।
 यदि तुम इस संबंध में प्रार्थना ही करना चाहो तो ऐसी प्रार्थना करो कि प्रभु मुझ में अपने कर्म फल भोग करने की शक्ति प्रदान करें ।
यदि प्रार्थना ही करना चाहो तो आध्यात्मिक उन्नति के लिए परम प्रभु परमात्मा से प्रार्थना करो।
 सद्गुरु महर्षि मेंही
परमहंस जी महाराज के शब्दों में:
" दृष्टि अडे सुख मन में, मन मगन हो भजन में।
 ललचे ना कोउ रंग में, एक बिंदु को धरा दो।।
 जो जगत से विलक्षण, जिसमें ना विषय लक्षण।
 जो एक रस सकल क्षण, तिसमें मुझे रमा दो।।
 साथ ही यही ऐसी याचना करो कि याचकता ही जल जाए तात्पर्य की ऐसी मांग करो जिससे पुनः कुछ मांगने की आवश्यकता ना रह जाए।।

श्री सदगुरू महाराज की जय।।

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