संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की अमृतवाणी बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने कहा कि यह शरीर "मांस रक्त का पिंजरा है"
इस समूह में मत डूबा रहो कि तुम सब दिन यही पर रहोगे और जो चाहोगे सो कर सकते हैं ऐसा नहीं होगा 1 दिन ऐसा आएगा तुमको जाना पड़ेगा और सुख दुख का पटरी तो तुम्हारे जीवन में लगा ही रहेगा इसलिए समय रहते सद्गुरु की शरण में जाओ कुछ खोज करो प्रभु से प्रार्थना करो कि" हे प्रभु तुझे कैसे देखन पाऊं "
विनती करो और अगर वह दया करेंगे तो जीवन में आनंद ही आनंद होगा और अगर जीते जी साधना करके परम पद तक पा लिया तो सोचो तुम्हारा जीवन धन्य हो गया तुम महान हो जाओगे और संसार में तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा तो आइए प्रवचन को पूरा विस्तार से सुनते हैं पढ़ते हैं और जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं.......
प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ ।
तन इन्द्रिन संग माया देखूँ, मायातीत धरहु तुम नाऊँ ।।
मेधा मन इन्द्रिन गहें माया, इन्ह में रहि माया लिपटाऊँ ।
इन्द्रिन मन अरु बुद्धि परे प्रभु, मैं न इन्हें तजि आगे धाऊँ ।।
करहु कृपा इन्ह स¯ छोडावहु, जड़ प्रकृति कर पारहि जाऊँ ।़
‘मेँहीँ’ अस करुणा करि स्वामी, देहु दरश सुख पाइ अघाऊँ ।।
प्यारे लोगो !
यह बात बहुत प्रसिद्ध है। शास्त्रीय रूप से
प्रसिद्ध है।
नर तन सम नहिं कवनिउँ देही। जीव चराचर जाँचत जेही ।।
अर्थात् मनुष्य शरीर के समान कोई भी
शरीर नहीं है, जिसको जड़-चेतन सभी चाहते हैं।
‘जीव चराचर’-चलनेवाले, नहीं चलनेवाले जितने
प्राणी हैं, सभी मनुष्य शरीर चाहते हैं। मनुष्य,
पक्षी चलनेवाला है और वृक्ष, पहाड़ चलनेवाला
नहीं है। सभी चाहते हैं कि मनुष्य शरीर मिले।
किसी मनुष्य से पूछिए कि हाथी बहुत बड़ा जानवर
है, वह आप बनना चाहते हैं ?
कोई पसन्द नहीं
करेगा। गौ की पूजा हम करते हैं, लेकिन गौ या
बैल होना कोई पसन्द नहीं करते । मनुष्य-शरीर,
उत्तम शरीर है। कितना उत्तम है यह? उपनिषद्कार
ने कहा है-
‘देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्व
देहिनाम्।।’
मनुष्य-देह शिवालय है। इसमें सबको
सिद्धि मिलती है। ‘देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं
सर्व देहिनाम।’ मनुष्य-देह ठाकुरबाड़ी है, इसमें
सबको सिद्धि मिलती है। हाड़-मांस को लोग अपवित्र
समझते हैं। लेकिन जबतक जीवित मनुष्य-शरीर
में लगा हुआ है, तबतक पवित्र है। संसार में जितने
जो कुछ प्राणी हैं, सबसे विशेष मनुष्य है। परमार्थ-
साधन, देव-पूजन, मोक्ष का साधन इसी शरीर से
होते हैं और ये हैं भी इसी शरीर के लिए। मनुष्य-
शरीर ही इस काम को आरम्भ कर सकता है और
धीरे धीरे करके समाप्त कर सकता है और किसी
शरीर में नहीं।
‘सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हिं गावा’ क्यों ?
इसलिये कि यह शरीर सभी साधनों का घर है।
जो यत्न करो, सफल होओगे। और जो मुक्ति में
जाना चाहें, वे मनुष्य-शरीर में आकर ही जा सकते
हैं। और किसी शरीर में नहीं।
मोक्ष पाने का यत्न
करना चाहिए,
इसी के लिए सन्त उपदेश करते हैं-
निधडक बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।़
यह तन जल का बुदबुदा, विनसत नाहीं बार ।।
-कबीर साहब
यह शरीर बड़ा अच्छा है। लेकिन क्या बालपन,
क्या बुढ़ापा, क्या जवानी का शरीर, यम के फन्दे
में जो शरीर पड़ेगा, वह जाएगा ही। लेकिन ठिकाना
नहीं कब यम के फन्दे में जाएगा ?
नहँ बालक नहँ यौवने नहँ बिरधी कछु बन्ध ।
वह अवसर नहिं जानिए, जब आय पडे जम फन्द ।। ़
-बाबा नानक साहब
इस शरीर से मोक्ष का साधन अवश्य करो।
मोक्ष साधन करो और कोई काम नहीं करो, ऐसी
बात सन्त लोग नहीं कहते। ऐसा भजन जिससे
मोक्ष हो, सो करो। और जबतक जीवन है, तभी
तक साधन कर सकते हो।
मोक्ष के लिए साधन
है।
जो अत्यन्त अपेक्षित है, वह करो।
जबसे होश
हो, सचेत होओ, तबसे भजन करो। हमारे देश का
पुराना नियम है, पहले ब्रह्मचर्य का पालन करो।
ब्रह्मचर्य का पालन कब से करो ? जब से उपनयन
हुआ, अर्थात् जन्म के बाद जो दूसरा संस्कार हो
जाय। जन्म-धारण करने पर पाँच-सात वर्ष केबाद उत्सव कराते हैं। उसमें जनेऊ देते हैं। उसी
समय से शुचि से रहने के लिए सिखाया जाता है।
गायत्री-मन्त्र का जप करने को भी कहा जाता है।
इस मन्त्र के साथ प्राणायाम भी बताया जाता है।
प्राणायामहीन गायत्री जप निर्जीव होता है-निष्फल
संयम से जप करने से लाभ होता है।
उपनयन होने पर विद्या के लिए गुरुकुल जाओ
और वहाँ विद्याभ्यास के साथ गायत्री-मन्त्र का जप
भी करो। विद्या समाप्त कर घर जाओ। गृहस्थ-जीवन
में प्रवेश करो और उपनयन के समय में जो दीक्षा
प्राप्त किये हो, सो भी करो।
फिर घर छोड़कर
संन्यास लेने की बात थी, वह नियम अब खत्म
हो गया, लेकिन ऐसा जाना जाता है कि उस समय
बचपन से ही लोग योग सिखाने का काम करते
थे। लोग योग सीखते थे।
इन बातों को जो लोग
नहीं जानते हैं, वे कहते हैं कि ‘अभी बच्चे हो,
नहीं करो।’ संसार का काम भी करो और मोक्ष का
साधन भी करो। यही अपने देश का नियम था।
सब-के-सब मोक्ष का साधन भी कीजिए और घर
के कामों को भी देखिए। दोनों काम संग-संग
करो। कुछ काल ऐसा व्यतीत हुआ कि लोग मोक्ष
का साधन भी करते थे और घर के कामों को भी।
इसलिए घर में काम-धन्धा भी करो और मोक्ष
साधन भी करो।
दूसरे की देह का पालन नहीं कर
सकते हो तो अपनी देह का पालन-पोषण तो करो।
बाबा साहब ने मुझसे पूछा था, ‘तुम अपनी
जीविका के लिए क्या सोचते हो? मेरे सत्संग में
आये हो तो (सेल्फ-सपोर्टर)
यानी स्वाबलम्बी बनो।’ अब मेरा जीवन बहुत
अच्छा है, गुरु महाराज की बात मानकर। मोक्ष का
साधन परिवार छोड़कर करें, ऐसी बात नहीं। ईश्वर
का भजन भी करो जिससे मोक्ष मिले और घर का
यही बात भगवान श्रीकृष्ण ने कही
है। कबीर साहब उसके पूर्ण स्वरूप थे। पूर्ण योगी
थे। उनको ऐसा नहीं था कि हम जीविका नहीं
करें। बचपन से वे जो काम करते थे, सब दिन
करते रहे। बाबा नानक भी ऐसे थे।
इनके सिलसिले
में दशवें गुरु-गुरुगोविन्द सिंहजी थे। इनके यहाँ भी
यही बात थी। दशवें गुरु ने सिक्ख धर्म को कायम
किया। एक जाति कायम किया। पंच ककार दिया।
वे लोग संसार के कामों को करते हुए परमार्थ
साधन करते थे। सिर-रक्षा के लिए केश, कोई
हथियार नहीं हो तो कड़ा-कृपाण, कच्छा इसलिए
कि सदा तैयार, कोई लटपट नहीं। और उन्होंने
पंजाब को स्वतंत्र किया। आज के जमाने में परमार्थ
का साधन कैसे करना चाहिए?
जिसका यह नमूना
है। संसार का पालन-पोषण करो और ईश्वर का
भजन भी करो। दश गुरुओं ने यह शिक्षा दी।
बाबा नानक बहुत घूमे। पूर्वीय गोलार्द्ध में
बहुत घूमे। पैदल जहाँ तक जाने का था, तमाम
गये। कुछ सामुद्रिक यात्रा भी किए, जैसे लंका
गये। सन्तों ने बताया है कि तुम्हारा शरीर शिवालय
और ठाकुरबाड़ी है।
अपने शरीर को तुम ठाकुरबाड़ी
बना सकते हो अथवा विष्ठा का घर बना सकते
हो। परमार्थ-साधन नहीं जानते हो तो यह शरीर
ठाकुरबाड़ी नहीं है। परमार्थ-साधन है तो ठाकुरबाड़ी
है। अन्तःकरण पर शौच है, तो वह सदाचार है
और बाहरी पवित्रता शुच्याचार है। सबको स्वभावतः
भजन का अवलम्ब दिया गया है।
उस अवलम्ब को पकड़ना चाहिए। जो पकड़ते हैं, वे ठीक-ठीक
भजन करते हैं।
सन्त कबीर साहब ने बताया है-
पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
सो मन्दिर खाली पडा, बैठन लागे काग ।।
यहि घट चन्दा यहि घट सूर, यहि घट बाजै अनहद तूर ।
यहि घट बाजै तबल निसान, बहिरा शबद सुनै नहिं कान ।।
प्रकाश और शब्द; ये दोनों अवलम्ब तुम्हारेअन्दर हैं। इस शरीर के अन्दर पाँच नौबत बजते
हैं।
मांस, खून, हाड़, चाम, नस; यह स्थूल शरीर
का स्थूल भाग है। मांस-रक्त के पिंजड़े में शून्य
भी है। शून्य में कहीं अन्धकार भी है, कहीं
प्रकाश भी है। लेकिन शब्द से खाली कहीं भी
नहीं है। एकान्त में बैठकर ध्यान कीजिए और
शब्द पकडि़ए। ईश्वर की ज्योति और नाद साधकके हेतु अन्तस्साधना में ये दोनों सहारे हैं। ईश्वर
के पास पहुँचने का यह सरल उपाय है। इस
मनुष्य-शरीर को पाकर ईश्वर-स्वरूप को जानना
चाहिए। इसलिए ईश्वर-भजन करो। केवल
खाना-सोना किस काम का ?
पशु भी खाता-सोता
है।
मनुष्य-शरीर इसलिए नहीं है।
Sajjan aapko Satguru Maharaj ka Amrit Vachan padhakar Shanti ki Anubhuti e Hui Hogi मन को विचलित होने से रोकने के लिए सदगुरु महाराज का जो प्रवचन है उसे सबों को पढ़ना चाहिए अगर आप पढ़ ही लिए हैं तो इसे शेयर करें और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं यह भी एक पुण्य का कार्य है सदगुरु महाराज का बचन को दूसरों तक पहुंचाना एक सेवा है और यथासंभव अगर हो सके तो शेयर करें अंत में कमेंट बॉक्स में जय गुरु अवश्य लिखें और हो सके अपना जो विचार हो वह भी लिख सकते हैं
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