संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
Sant sadguru maharshi mehi paramhans ji maharaj
बीसवीं सदी के विश्व किरण पुंज संत सतगुरु महर्षि में हीं के
द्वारा दिया अमृत वचन को पढें और जीवन में उतारने का प्रयास करें।।
प्यारे लोगो!
क्या प्राप्त करना चाहिए पहले वस्तु निर्णय होना
चाहिए पीछे प्राप्ति विधि फिर संयम। जैसे आरोग्यता
फिर..............फिर संयम।
ओ३म् स योजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृजः ।।
-सा०उ०अ० ८, मं०३
इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि
हे मनुष्यो! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा,
आँखें, नाक और मन बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा
ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ की एक
खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा
सकता।
वह तो इन्द्रियातीत है। हाँ वह पूर्व मंत्रोक्त
परमहंस योगी, उस अनाहत नाद से सम्पन्न परमात्माको जिसकी ज्योति शरीर के बाहर और भीतर चन्द्र
सूर्यादि अनेकों लोक-लोकान्तर में तेज और नाना
प्रकार की ज्योतियाँ प्रकट करती है। और उस सोम को
जो विष्पष्ट प्रकाश से युक्त होकर दिन और रात
प्रकाशित होता है, प्राप्त करते हैं।
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।५।।
(केनोपनिषद)
जो मन से मनन नहीं किया जाता बल्कि जिससे
मन मनन किया हुआ कहा जाता है। उसी को तू ब्रह्म
जान। जिस इस (देशकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोग
उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है। जब यह ज्ञान होता है ईश्वर इन्द्रियों से नहीं
जाना जाता है तब इन्द्रियों से परे क्या है समझने की
आवश्यकता होती है।
जितने इन्द्रिय गोचर पदार्थ है ं
सब देशकाल के घेरे में है किन्तु जिसे बुद्धि भी नहीं
पहचान सकती केवल जान सकती है।
बुद्धि के निर्णय
में जो है तब उतने ही को मन जानता है। बाह्य इन्द्रियों
के द्वारा जो वस्तु जानता है। उसी को मन जानता है।
विशेष नहीं मन से भले रूप बना लें किन्तु अगर पहले
से इन्द्री नहीं देखा हो तो मन नहीं बना सकता।
जैसे
हाथी को आँख से देख चुके हैं।
तब मन में बनाते हैं।
मन से ईश्वर का ज्ञान नहीं होता।
इह भेद...........................। केवल
बौद्धिक ज्ञान से नहीं प्रत्यक्ष ज्ञान जानना यही असली
ज्ञान है। इस जन्म में जो सक्षात्कार करके जाना
उसे..
........हानि लाभ से तात्पर्य यह कि लोभ यह कि वह
आवागमन से छूट जाता है।
उसे प्राप्त कर और कुछ
प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती हमलोगों को बारम्बार
जन्म लेना इसलिए पड़ता है कि इच्छा रहती है। संसार
की चीजों में आसक्ति रहती है किन्तु इच्छा नहीं रहती
उसे जिन्होंने परमात्मा को प्राप्त कर होता है इसलिए
वह आवागमन से छूट जाता है।
समस्त प्राणी में
उपलब्ध करता है।
सर्वव्यापी है ऐसा पदार्थ है कि
सर्वात्कृष्ठ स्वाद है-अविगत गति कछु कहत न आवै।
किन्तु मन वाणी से अगोचर अमित तोष की प्राप्ति होती
है नहीं प्राप्त करो।
अशरीरं शरीरेस्व नवस्थे ववस्थितम ।
महान्तं विभुमात्मनं मत्वा धीरोन शोचति ।।
जो शरीरों में शरीर रहित तथा अनित्यो में
नित्यस्वरूप है उस महान और सर्वव्यापक आत्मा को
जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक मही करता।
जो जानेगा। जो आत्मकामी है और सब कामनाओं
से वृत्ति हट गई है उसी को आत्मा को प्रत्यक्ष होता है।
पाप से निवृत्त नहीं होने वाले का भी मन चंचल रहेगा
वह बाहर विषयों में शरीर के तमाम इन्द्रिय धारों में
फैला हुआ रहेगा उसकी ऊर्ध्वगति नहीं होगी इसलिए
वहीं प्राप्त कर सकता।
किन्तु जिनका मन अचंचल ..।
यह अच्छी तरह मन में जम जाना चाहिए कि
ईश्वर की प्राप्ति की असली प्राप्ति है उसी की प्राप्ति से
जन्म-मरण से रहित हो सकेंगे।
यह इन्द्रियों से नहीं
जान सकते चेतन आत्मा से जानेंगे। इसलिए चेतन
आत्मा को साधन द्वारा इन्द्रियों से फुटाकर कैवल्य दशा
में लाकर पहचानना चाहिए।
ऐसा ही करके पहचान
होना संभव है। इसलिए चाहिए कि क्षर मण्डल से
अपने को हटावें अक्षर में लौ लगावें तथा अक्षरातीत
को प्राप्त करें।
।।जयगुरू ।।
सज्जनों आपने गुरुदेव का पूरा प्रवचन पढ लिया
इसे और अधिक से अधिक शेयर करें ।।
जिससे और भी सत्संगी बंधु तक पहुँच सकें ।।
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