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शुक्रवार, 22 मई 2020

सदगुरू मेंहीं बाबा का उपदेश:संतमत शांति दायक है

Sant sadguru maharshi mehi paramhans ji maharaj 
 महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज 
बीसवीं सदी के विश्व किरण पुंज संत सतगुरु महर्षि में हीं के द्वारा दिया गया है जो साधक  और मुमुक्षु के लिए बहुत आवश्यक है 
आइये सदगुरू महाराज की अनुभव वाणी को पढें शांति की अनुभूति होगी 👇👇👇
“सन्तमत नाम से ही प्रकट होता है कि यह शान्तिदायक है | शांतिस्वरूप परमात्मा स्वयं हैं | जो उनसे मिलते हैं, वे भी शांतिमय हो जाते हैं | 
ऐसे संतों के मत को संतमत कहते हैं |
 सन्तमत का सिद्धान्त बहुत छोटा है – गुरु, ध्यान और सत्संग | गुरु कैसा होना चाहिए?

ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकाश |
निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ||

यह गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की दोहावली में है | मतलब यह कि गुरु वे होते हैं, जो अज्ञानपद से ऊपर उठकर ज्ञान कहनेवाले हों | 
अज्ञान पद अन्धकार है | उससे ऊपर यानी प्रकाश में जाकर ज्ञान का कथन करे | अन्धकार के बाद प्रकाश में जाने के लिए सिवा दृष्टियोग के कोई यत्न नहीं है | निर्गुण का कथन करे तो ऐसा करे कि वहाँ सगुण नहीं हो | 
अर्थात् सगुण से ऊपर उठकर निर्गुण का वर्णन करे | संसार में निर्गुण और सगुण; दोनों मिले-जुले हैं | त्रयगुण – सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण |
 इन तीनों गुणों से परे के पदार्थ का ध्यान करे और उनकी वहाँ की पहुँच रहे | ऐसे गुरु की पहचान वे ही कर सकते हैं, जो स्वयं वैसे हों वा वैसे होने के पथ पर चलते हों | 
ऐसे ही गुरु का सत्संग और उनकी सेवा करें |

सत्संग थोड़े-काल करे, तब भी कुछ लाभ ही होता है | 
जब दीर्घकाल तक सत्संग करे, तो गुरु का गुण जाना जाता है | जब गुरु का गुण जाना जाय, तब उनसे दीक्षा लेकर अपने कुछ साधना करे |
 इसका लसंग हो जाने पर कभी वह लसंग नहीं छोड़ता है | 

संत कबीर साहब ने कहा है –

“भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो जुग जाय अनंत |
ऊँच नीच घर जन्म ले, तउ संत को संत ||
भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल |
कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ||”

सत्संग यही चीज है | जैसे सोना कहीं विष्ठा में भी पड़ जाय तो उसका मोल नहीं घटता, उसी तरह भक्ति का भी संस्कार ऊँच-नीच घर में जन्म लेने पर भी मिटता  नहीं |
 इसके लिए सत्संग और ध्यान-भजन करते रहना चाहिए | भजन-ध्यान करते रहने पर जीवन-मुक्ति की दशा प्राप्त होगी 

| जीवन्मुक्त महापुरुष भी सत्संग करते हैं – 

जीवन्मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान |
जे हरिकथा न करहिं रति, तिनके हिय पाषान ||
                  -गोस्वामी तुलसीदासजी 

जीवन्मुक्त होकर भी जबतक शरीर रहे, तबतक सत्संग करे और करावे |
 उसको तो ऐसा हो जाता है कि –

“सोवत   जागत   ऊठत बैठत,  टुक विहीन नहिं तारा |
झिन झिन जंतर निसिदिन बाजै, जम जालिम पचिहारा ||”
                       - दरिया साहब, बिहारी 

हम सबके अन्दर में कुछ ऐसा यंत्र है, जो बजता ही रहता है | असल में वह सारशब्द है | उसको पा लेने पर यम का भी डर नहीं रहता | 
“झिन झिन जंतर” से यही बात है कि जिसके अन्दर में वह शब्द दिन-रात बजता ही रहे, उसको यम का डर नहीं रहेगा | वह अपने को देखकर परमात्मा को देखता रहेगा | ऐसा ही सत्संग करना चाहिए | 
यह जो संतवाणी दरिया साहब की वाणी है – “झिन झिन जंतर निसिदिन बाजै” |
 इसमें सारशब्द का इशारा है | जबसे यह शब्द प्राप्त हो जाता है, तबसे बजता ही रहता है; क्या सोने में, क्या जागने में, उसे सुनेगा ही | उस सारशब्द को सुनता हुआ काम भी करता रहेगा और कर्मबन्धन से निर्लिप्त रहेगा |
 एक ही जन्म में ऐसा नहीं होता है | एक जन्म से दूसरे जन्म तक इसका संस्कार लगा रहेगा; सार शब्द का साधक कभी उस शब्द से नहीं छूटेगा |
 छूटेगा तभी जब परमात्मा से मिलकर एक हो जाएगा | ऐसा साधक अवश्य सदाचारी होगा | सदाचारी होने से वह शीलवान होगा | शीलवान होने से संसार के लोगों को वह प्रिय होगा | मतलब यह है कि वह बाहर और भीतर के सत्संग में रत रहकर कर्मयोगी बनकर संसार में रहेगा; उसकी ऐसी दशा हो जायेगी कि –

“जल तरंग जिउ जलहि समाइआ, तिउ जोति संगि जोति मिलाइआ |
कहु  नानक  भ्रम  कटे किवाड़ा,  बहुरि  न  होइअै  जउला  जीउ ||”
-                      गुरु नानक

‘जुलाहा’ से मतलब कबीर साहब |
 कबीर साहब अंत:साधना करके परमात्मा में मिल गए थे | जैसे जल में जल पैठकर अलग नहीं होता, उसी तरह ब्रह्म को पाकर उससे मिलकर कोई अलग नहीं होता | 
सभी नदियों का जल जिस तरह समुद्र में मिल जाता है, अलग नहीं होता है, उसी तरह साधक साधना करके परमात्मा में मिल जाता है | कभी वह आवागमन के चक्र में पड़कर इस संसार में नहीं आता | 
।।shri sadguru maharaj ki Jay ।।

सज्जनों सदगुरू महराज की अनुभव वाणी को आपने पूरा पढ लिये ।।इसीतरह पढते रहिए कमेंट्स भी दीजिये 
जयगुरू लिखिये ।।जिससे आपका उपस्थितिदर्ज हो सके ।।


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