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मंगलवार, 23 जून 2020

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज की वाणी:मानस रोग को जड़ से समाप्त करने की युक्ति

बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की वाणी सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की अमृतवाणी आइए सत्संगी बंधुओं सदगुरु महाराज का अनुभव वाणी अर्थात अमृतवाणी को पढ़कर के जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं क्योंकि मानस रोग का निवारण सद्गुरु के बताए हुए रास्ते से चलकर ही हो सकता है तो आइए पूरा प्रवचन को पढ़ें और पढ़कर जीवन में उतारने का प्रयास करें

प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो !
देह की बीमारी को लोग प्रत्यक्ष देखते हैं और अपने शरीर में पाते हैं।
साधु - संत कहते हैं - सब बीमारियों से आप छूटें , अच्छी बात है ; किन्तु बीमारी सिर्फ आपकी देह में है या और भी कहीं है?
आपके मन में भी काम है , जैसे आपकी देह में बीमारी होती है।
किसी को कोई देह की बीमारी हो ; परन्तु मन अच्छा हो , तो वह खुश रह सकता है ; किन्तु मन बीमार हो और शरीर अच्छा हो तो वह खुश नहीं रह सकेगा
 देह की बीमारी आपकी छूट जाय , अच्छी बात है।
किन्तु आपके मन की बीमारी छूट जाय , तो अच्छी बात है।
कोई कह नहीं सकता कि मेरे मन में बीमारी नहीं है।
अज्ञ लोग भले ही कहें कि मेरे मन में बीमारी नहीं है ; किन्तु ज्ञानी लोग कहेंगे कि मन बीमारियों से भरा है।
मोह अर्थात् अज्ञानता सब रोगों की जड़ है।
नहीं जानना अज्ञानता है।
क्या नहीं जानते हैं?
तो अब यह सोचिए कि जानना कितने तरह का होता है?
उत्तर है कि ये दो तरह के होते हैं - एक पढ़ - सुनकर जानना और दूसरा पहचान कर जानना।
पढ़ - सुनकर जानना पूरा जानना नहीं है , पहचानकर जानना पूरा जानना है।
साधु- संत कहते हैं कि अपने को तुम जानते हो कि तुम शरीर में हो ; किन्तु क्या तुम अपने को पहचानते हो?
अपने को जानते हो ; परन्तु अपने को पहचानते नहीं।
इस तरह स्वज्ञान नहीं होने की अज्ञानता या मोह में अपनी देह को ही कहते हो कि मैं यही हूँ । देह अवश्य छूट जाएगी।
देह छूटने को लोग मर जाना कहते हैं । हमलोगों के धर्मशास्त्र के अनुकूल मरने पर श्राद्ध - क्रिया होती है।
इससे विश्वास यह होता है कि मरनेवाली देह है।
इसमें रहनेवाला इसे छोड़कर कहीं चला गया है।
उसकी अच्छी गति हो , इसलिए लोग श्राद्ध करते हैं।
अपनी देह को भले पहचानते हो ; किन्तु अपने को नहीं पहचानते और अपनी देह को ही अपने तईं जानते हो , यह है मोह।
इसी देह की पहचान की सबब से देह के सरोकार में जितनी चीजें , पशु और आदमी आदि आते हैं , उनसे सम्बन्ध हो जाता है , उनमें ममता हो जाती है।
यह मोह का तमाशा है।
इसी मोह - ममता के कारण अहंकार , क्रोध , लोभ , काम , द्वेष , ईर्ष्या आदि मन के सब रोग उत्पन्न होते हैं।
और इन मानस रोगों में पड़कर पाप और कसूर ; दोनों करते हैं।
पाप उसको कहते हैं , जिसकी सजा परमात्मा देते हैं और कसूर उसको कहते हैं , जिसकी सजा राष्ट्रीय सरकार देती है।
बहुत - से कसूर और पाप , इन विकारों में फंसकर होते हैं।
एक मोह से ही बड़े - बड़े पाप हो जाते हैं।
अज्ञानता – अविद्या सब मन के रोग हैं।
इन्हीं रोगों में रहकर मन रोगी रहता है।किसी देश के चिकित्सालय में इसकी इलाज नहीं है।
इसकी इलाज सत्संग में होता है।
इसकी औषधि वचन है , जिसमें ज्ञान है।
अज्ञान को ज्ञान से साफ किया जाता है।
कोई औषधि ऐसी है , जिससे रोग को दबा दिया जाता है ; किन्तु वह मूल से नष्ट नहीं होता।
जाने ते छीजहिं कछु पापी।
नास न पावहिं जन परितापी॥
मानस रोगों को जड़ से नष्ट करने के लिए साधु लोग जानते हैं।
वे उसकी युक्ति बतलाते हैं उस युक्ति से रोग को जड़ से उखाड़ देते हैं।
पहले कहा जा चुका है कि ये सब काम , क्रोध , लोभ , मोहादि रोग हैं।
संसार में कौन कहेगा कि मैं कामी , क्रोधी , लोभी मोही आदि नहीं हूँ?
किसी का तो प्रकट हो जाता है कि फलाँ महा - क्रोधी है , फलाँ महालोभी है ; कोई इन रोगों को छिपाकर रखते हैं।
पहले मोह , काम , क्रोधादिक को मानस रोग कहकर जानो , जिससे ये कुछ भी हटे।
फिर समूल नष्ट करने के लिए जानना।
इन रोगों को समूल नष्ट करने के लिए ईश्वर का भक्त बनना चाहिए।
ईश्वर का दर्शन अपने अंदर होता है , बाहर में नहीं।
बाहर मायिक दृष्टि से देखा जाता है।
ईश्वर इस दृष्टि से देखा नहीं जा सकता।
अंतर की आत्मदृष्टि से देखा जाएगा।
किसी की खोज लोग आँख और कान से करते हैं।
कोई बोलता तो नहीं है , कान से सुनते हैं।
फिर देखते हैं कि कौन बोलता है?
इसी तरह ईश्वर की खोज अपने अंदर सवित् या सुरत के द्वारा देखने और सुनने से करना चाहिए।
सबके अन्दर में ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद अवश्य है ; क्योंकि सर्वव्यापी ब्रह्म की ये विभूतियाँ , परमात्मा ब्रह्म के सहित सबमें व्यापक होकर रहें , इसमें संशय नहीं है।
ब्रह्मनाद , ब्रह्मज्योति के दर्शन के बिना सुना नहीं जा सकता।
पहले बिजली की चमक देखते हैं , फिर बादल का गर्जन सुनते हैं।
ईश्वर का पता लगाने के लिए पहले ईश्वर का प्रकाश देखो , फिर उनका शब्द पकड़ो।
वह शब्द सबके अन्दर होता है ; किन्तु लोग उसे सुन नहीं पाते।
सुरत अन्दर की ओर नहीं होती , इसलिए आवाज सुन नहीं सकते।
संतों का कहना है कि अपने अन्दर में जैसे - जैसे प्रवेश करोगे , वैसे - वैसे ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद की अनुभूतियाँ पा सकोगे।
दिव्यदृष्टि अन्तर में देखते - देखते खुलती है।
अंतर में कोई साधन करें ईश्वर के तेज को देखें , तो उनके विकार दूर हो जायें।
इसलिए 
गोस्वामी तुलसीदासजी ने
 रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है
 जब तें राम प्रताप खगेसा।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरिप्रकास रहेउ तिहुँ लोका।
बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका॥
जिन्हहिं सोक ते कहउँ बखानी।
प्रथम अविद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने।
काम क्रोध कैरव सकुचाने॥
विविध कर्म गुण काल सुभाउ।
ये चकोर सुख लहहिं न काउ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा।
इन्ह कर हुनर न कबनिहुँ ओरा॥
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना।
ये पंकज बिकसे विधि नाना॥
सुख संतोष विराग विवेका।
विगत सोक ये कोक अनेका॥
यह प्रताप रवि जाके , उर जब करइ प्रकास।
पिछले बाढहिं प्रथम जे , कहे ते पावहिं नास॥
जिसकी दिव्यदृष्टि खुलती है , वह परमात्मा - राम - ब्रह्म का परम प्रताप विभूति - रूप प्रबल दिनेश का दर्शन पाता है और वह तीनों लोकों को भी अंदर में देखता है और उसके सब मानस रोग समूल नष्ट हो जाते हैं।
केवल सुनकर - पढ़कर अज्ञानता दूर नहीं होती।
अन्दर में ध्यान करने से राम का प्रबल प्रकाश पाता है।
सूर्य से बड़ा तेज कुछ भी नहीं होता।
ब्रह्म का प्रकाश सब प्रकाशों से बढ़कर है।
पहले प्रकाश का कुछ तेज , फिर उससे विशेष तेज - फिर और उससे भी विशेष तेज देखने में आता है , जिससे विशेष तेज नहीं हो सकता।
उसको देखनेवाले की अज्ञानता दूर हो जाती है।
पाप - कर्म सब भाग जाते हैं , वह पाप - कर्म की ओर नहीं जाता।
काम , क्रोध , लोभ , मोह , तृष्णा , पाखण्ड आदि भाग जाते हैं उस सूर्य के दर्शन से।
कथित सूर्य - दर्शन से विहीन कितना ही ज्ञान - ध्यान की बातें कहे ; किन्तु उसके अन्दर से विकार दूर नहीं होता।
अपने अंतर में साधन करे , ब्रह्म - प्रकाश को देखे , तो सब विकार दूर हो जायँ।
भजन और सत्संग करो , यही इसकी चिकित्सा है।
बाहर की दवाई से मानस रोग नहीं छूटते।
केवल बाहरी सत्संग से मानस रोग कम हो सकता है ; किंतु बिल्कुल नष्ट नहीं होता।
इसको नष्ट करने के लिए जो ब्रह्म - तेज का दर्शन करे , तो वह नष्ट होगा।
अपने को अन्दर में ले चलो।
इसके लिए गुरु करो और युक्ति जानकर अभ्यास करो , तो मानस रोग से मुक्त होकर शान्तिमय सुख मिल जाएगा ।
जयगुरूदेव 
 सदगुरु महाराज के प्रवचन को पढ़कर आप जरूर ही शांति को महसूस करते हैं और प्रयास कीजिए कि अधिक से अधिक सत्संगी बंद हो तक यह जाए तो इसके लिए आप फेसबुक व्हाट्सएप ग्रुप में शेयर करें

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