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शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

अंतर अजब बिलास-महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज

श्री सद्गुरवें नमः
आचार्य श्री रचित
पुस्तक "पूर्ण सुख का रहस्य" से लिया गया है।एक बार अवश्य पढ़ें 👇👇👇👇👇👇👇👇
: पूर्ण सुख का रहस्य
https://youtu.be/wmoLWGUsh_U
https://youtu.be/wmoLWGUsh_U
गो० तुलसीदासजी महाराज ने संतों के उत्कृष्ट गुणों का वर्णन करते हुए रामचरितमानस में लिखा है
 षट्विकार जित अनघ अकामा 
अचल अकिञ्चन सुचि सुख धामा ॥
 अमित बोध अनीह मितभोगी । 
सत्यसार कवि कोविद जोगी ॥

अर्थात् सन्त जन छः विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य) को जीते हुए, निष्पाप, वासना-रहित, स्थिरबुद्धि, धन-त्यागी, पवित्र, सुख के धाम, अति विशेष ज्ञानवान, इच्छा-रहित, अल्पभोगी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान और योगी होते हैं।

उपर्युक्त विशिष्ट गुणों को धारण करनेवाले संतजन परमात्मा रूपी धन को पाकर पूर्णकाम हो जाते हैं। उनके मन में संसार के अन्य किसी पदार्थों को पाने की चाहना नहीं होती। उन संत महापुरुषों के अतिरिक्त संसार के अन्य सभी लोगों के मन में विविध पदार्थों को पाने की चाहना बराबर होती रहती है।

सर्वसाधारण लोगों के मन में उस वस्तु को पाने की लालसा होती है, जो वस्तु उसे सुखदायक प्रतीत होती है। धन-सम्पत्ति, भोग-सामग्री, राज-पाट, पद-प्रतिष्ठा, स्त्री-पुत्र आदि की प्राप्ति में लोगों को सुख का बोध होता है, इस कारण स्वाभाविक रूप से लोगों के मन में इन सभी वस्तुओं को पाने की चाहना होती है।

धन-सम्पत्ति वगैरह भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहने पर भी अगर उसे और अधिक पाने की चाहना मन में रहती है, तो यह चाहना अपने में कमी का बोध कराती है और जहाँ कमी है, वहाँ पूर्ण सुख भला कैसे हो सकता है।

सांसारिक वस्तु लोगों को कितनी ही अधिक मात्रा में प्राप्त क्यों न हो जाय, उसकी प्राप्ति से उनकी लालसा की समाप्ति नहीं होती, बल्कि उनकी वह लालसा अधिकाधिक बढ़ती जाती है। जिस प्रकार धधकती हुई आग में घी डालने से वह बुझती नहीं और अधिक प्रज्वलित हो जाती है। गो० तुलसीदासजी महाराज ने 'विनय-पत्रिका' में लिखा है

बुझे न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय भोग बहु घी ते। चाहना की पूर्ण रूप से समाप्ति आत्मसाक्षात्कार होने पर ही होती है। जिस आत्मा का साक्षात्कार होने पर सब चाहनाओं की समाप्ति हो जाती है, उसके संबंध में सद्ग्रंथों में कहा गया है कि उसी परम तत्त्व के आधार पर सम्पूर्ण सृष्टि टिकी हुई है। वह आत्म-तत्त्व इस विश्व-ब्रह्माण्ड में सर्वत्र समष्टि रूप में व्यापक होकर उससे कितना अधिक बाहर है, यह कोई बतला नहीं सकता। ऋषिओं और संतों ने उस परम तत्त्व को 'परमात्मा' कहकर अभिहित किया है।

वह सर्वव्यापी परमात्मा बड़ा ही विलक्षण है। उसकी विलक्षणता का वर्णन गो० तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में इस प्रकार किया है

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु कान। कर बिनु करम करइ विधि नाना ॥ आनन रहित सकल रस भोग । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥ तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ धान बिनु बास असेखा ॥ असि सब भाँति अलौकिक करनो । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥ ऐसे विलक्षण कर्म करनेवाले परम प्रभु परमात्मा की अद्भुत

• सामर्थ्य का बखान करते हुए गो० तुलसीदासजी महाराज ने कहा है कि उन प्रभु राम में असंख्य कामदेव के समान सुन्दरता है, करोड़ों दुर्गा के समान शत्रुओं का नाश करने की शक्ति है। वे परमात्मा सौ करोड़ इन्द्र के समान विलास करनेवाले और सौ करोड़ आकाश के समान परिमाण-रहित अवकाशवाले हैं। सौ करोड़ पवन के समान बड़े बली और सौ करोड़ सूर्य के समान प्रकाशवाले हैं। उनमें सौ करोड़ चन्द्रमा के समान शीतलता है तथा असंख्य काल के समान वे अत्यन्त कठिन, दुर्गम और अपार हैं। अपरिमित अग्नि के समान कठिनता से धरने के योग्य, अनगिनत पाताल के समान गहरे, अनगिनत यमराज के समान भयंकर, अनगिनत असंख्य तीर्थ के समान बहुत अधिक पवित्र, करोड़ों हिमालय के समान स्थिर और असंख्य समुद्रों के समान गहरे हैं। अनगिनत कामधेनु के समान समस्त इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले और करोड़ों सरस्वती के समान बहुत अधिक चतुर तथा अनगिनत ब्रह्मा के समान सृष्टि करने में प्रवीण हैं। अनगिनत विष्णु के समान पालन करनेवाले और अनगिनत रुद्र के समान संहार करनेवाले हैं। सौ करोड़ कुबेर के समान धनवान और सौ करोड़ माया के समान छल की खान
तथा करोड़ों शेषनाग के समान भार-धारण करनेवाले हैं। इस तरह परम प्रभु परमात्मा की अद्भुत सामर्थ्य का बखान करते हुए गो० तुलसीदासजी महाराज ने अन्त में कहा है कि जिस तरह सूर्य को सौ करोड़ जुगनुओं के समान कहने में सूर्य की हीनता होती है, उसी तरह अपरिमित शक्तिवाले उस परम प्रभु परमात्मा के लिए सभी उपमाएँ अत्यन्त तुच्छ हैं। वास्तव में उन परम प्रभु परमात्मा की उपमा के योग्य और कुछ नहीं है। उनके समान वे ही हैं।

उस अद्भुत सामर्थ्य से युक्त परम प्रभु परमात्मा के स्वरूप का वर्णन हमारे परमाराध्य गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज ने इस प्रकार किया है- 'जो परम तत्त्व, आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर, सर्वाधार मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण-पर, अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नामरूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मंडल एक महान यंत्र की नाई परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा अध्यात्म-स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।'

जो सर्वशक्तिमान परम प्रभु परमात्मा अत्यन्त सघनता के साथ समस्त प्रकृति-मण्डल में व्यापक होकर उससे बाहर भी हैं, वे ही परम प्रभु अंश रूप से सब शरीरों में विद्यमान हैं; किन्तु उनका वह अंश मायिक आवरणों से आच्छादित रहने के कारण 'जीवात्मा' कहलाता है।

जीवात्मा जबतक शरीर में विद्यमान रहता है, तबतक शरीर तथा शरीरस्थ सभी इन्द्रियाँ सक्रिय जान पड़ती हैं अर्थात् देखना, सुनना, खाना, पीना, उठना, बैठना इत्यादि क्रियाएँ होती रहती हैं। शरीर में विद्यमान वही चेतन तत्त्व जब शरीर से निकल जाता है, तब शरीर और शरीरस्थ सभी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। ऐसा होने पर लोग कहते हैं कि अमुक व्यक्ति मर गया।शरीर से जीवात्मा के निकल जाने पर शरीर नष्ट हो जाता है; परन्तु जीवात्मा का नाश नहीं होता। परम प्रभु परमात्मा का अंश होने के कारण यह जीवात्मा भी अविनाशी है। यह अविनाशी जीवात्मा एक शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः दूसरे शरीर को ठीक उसी प्रकार धारण कर लेता है, जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण कर लेता है। श्रीमद्भगवद्गीता के निम्नांकित श्लोक से इस कथन की सम्पुष्टि हो जाती है

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

ईश्वर - परमात्मा का अंश-रूप यह जीवात्मा यद्यपि अविनाशी, चेतन, मल-रहित (निर्मल) तथा सहज सुख की राशि है, तथापि मायिक आवरणों से युक्त हो जाने के कारण इस जीवात्मा को अपने सहज स्वरूप का विस्मरण हो गया है। शरीर का संग हो जाने के कारण यह मायिक सुखों का भोगी हो गया है। मायिक सुख स्वल्प, परिमित तथा विनाशी होने के कारण जीवात्मा को इससे पूर्ण सुख प्राप्ति नहीं हो पाती। की

संत-महापुरुष बतलाते हैं कि अगर पूर्ण सुख प्राप्त करना चाहते हो, तो परम प्रभु परमात्मा के धाम में चलो। उस परम प्रभु परमात्मा के धाम में जाने का मार्ग बाहर में नहीं है। वह मार्ग तुम्हारे अपने ही अन्दर में है।

परमाराध्य गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज उस मार्ग के सम्बन्ध में कहते हैं कि वह अन्तर का मार्ग, जिसपर चलकर परमात्मा के धाम में पहुँच होती है, बड़ा ही अद्भुत है; लेकिन बिना सन्त सद्गुरु की शरण में गये उस अद्भुत मार्ग की जानकारी नहीं हो सकती

बिन दया सन्तन की 'मेंहीं', जानना इस राह को । हुआ नहीं होता नहीं, वो होनहारा है नहीं । परम दयालु गुरुदेव उस मार्ग की जानकारी करा देते हैं, जिसपर चलकर बहुत सुख मिलता है। गुरुदेव कहते हैं
[अद्भुत अन्तर की डगरिया, जापर चलकर प्रभु मिलते ॥ टेक ॥ दाता सतगुरु धन्य धन्य जो राह लखा देते । चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ॥ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते । सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, 'मेंहीं' प्रभु मिलते |

उस अन्तर- पथ पर अमृत की वर्षा होती है अर्थात् उस अन्तर-पथ पर चलनेवालों को ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद की प्राप्ति होती है, जिससे अद्भुत सुख मिलता है; लेकिन जो बड़भागी होते हैं, वे ही अन्तर- पथ पर उस ब्रह्मनाद को सुन पाते हैं और उसके सहारे वे परम प्रभु परमात्मा के धाम में पहुँचकर परम सुख वा पूर्ण सुख को प्राप्त कर लेते हैं।
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महर्षि हरिनंदन बाबा कुप्पाघाट: https://www.youtube.com/playlist?list=PLud4sU56FoLnOF1jHHnl6Ad-wEtItI_Bs

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