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सोमवार, 27 जुलाई 2020

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी:भौतिक विद्या भी आवश्यक

Maharshi mehi paramhans ji maharaj 
संत सतगुरु महर्षि में हीं के द्वारा दिया प्रवचन हैं आइये सत्संगी बंधु उन्हें एकाग्रचित्त होकर सुनें 
।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।


विद्या की बड़ी आवश्यकता है। विद्या नहीं प्राप्त करनेवाले संसार के कामों को ठीक-ठीक नहीं कर सकते और न वे परमार्थ के कामों को कर सकते हैं;
क्योंकि विद्या ही जानने की शक्ति है। विद्या कर्तव्य को जना देती है। विद्या नहीं रहे तो यह जानना नहीं हो सकता। विद्या का अर्थ भी जानना ही है। 
जो उसको अपनाता है, वह जानकार हो जाता है। जो नहीं अपनाता, वह जानकार नहीं होता है।
विद्या शब्दमयी है। कोई कुछ जानता है तो शब्द के द्वारा ही। मन में कुछ जानता है तो मनोमय शब्द होता है। इसलिए विद्या पाने के लिए शब्द, उसके प्रयोगों और उसके अर्थों को जानना पड़ता है। संसार में जितने विद्यालय हैं, सबमें शब्द की ही शिक्षा मिलती है। सब कोई शब्द ही सीखते हैं। इस शिक्षा के बिना लोग बहुत बातों को सुनने पर भी समझ नहीं सकते। हमलोगों का जो यह सत्संग है, इसमें भी शब्दों को ही सीखना है। बिना शब्द को जाने सत्संग का विचार नहीं जान सकते। इसलिए जहाँ शब्द को ठीक-ठीक नहीं समझते हैं, वहाँ संतों के वचन भी लोग ठीक-ठीक नहीं समझ सकते। इसलिए कहता हूँ कि आप भी जो बूढ़े ही क्यों न हों, और आपके बाल-बच्चे सबको विद्या सीखनी चाहिए। आप शब्द को अर्थ सहित नहीं जानेंगे तो सत्संग वचन को ठीक-ठीक नहीं समझ सकेंगे। 
बिना शब्द-ज्ञान के संत के उपदेशों को सुनेंगे, किंतु समझ नहीं सकेंगे।
 इसीलिए मेरी ओर से आपलोगों को ताकीद है - प्रेरण है कि विद्या सीखो और बच्चों को सिखलाओ। साधारणतः आपलोग अपने-अपने घर में बच्चों को कम पढ़े-लिखे गुरुजी से पढ़वाते-लिखवाते हैं, नहीं से तो यह कुछ अच्छा है, किंतु इससे विशेष काम चलने का नहीं। जो गुरुजी शुद्ध-शुद्ध अपने ही न पढ़ सकते, न लिख सकते हैं, तो वह लड़कों को किस तरह शुद्ध-शुद्ध लिखा-पढ़ा सकते हैं? तब बच्चा नीचे से ही गलत तरह से उच्चारण करेगा और बूढ़ा होते-होते तक भी वह गलती उससे नहीं छूटेगी। इसलिए आपलोगों को ताकीद है कि आपलोग खर्च करें। भोज-भण्डारा में खर्च करते हो, घर बनाने में खर्च करते हो, मुकदमा करने में खर्च करते हो; किन्तु विद्या के लिए खर्च नहीं करते - यह ठीक नहीं। योगशिखोपनिषद् में आदेश है -
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
 योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।।
 तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।।
योग-हीन ज्ञान और ज्ञान-हीन योग; दोनों मोक्ष कार्य में असमर्थ हैं।
योग कहते हैं, मनोनिरोध करने को वा मन को एकाग्र करने को। मन अनेक विषयों में दौड़ता रहता है, एक पर स्थिर नहीं रहता। मन की चंचलता छोड़ देने योग्य है। इसी को मन की एकाग्रता कहते हैं। इसी को चित्तवृत्ति-निरोध कहते हैं। 
मन को एकओर लगाओ, इधर-उधर मन बहके नहीं, यह योग है।
 ऐसा क्यों करो? मन की चंचलता में शान्ति नहीं आती है। जब शांति नहीं आती तो सुख नहीं होता। अशांत को सुख कभी नहीं होता, चाहे वह कोई हो - पढ़ा-लिखा हो, अनपढ़ हो, व्यापारी हो, या खेती करनेवाला कोई हो, यदि उसका मन अशांत है, तो उसको सुख नहीं होता। साधु-संत-महात्मा कहते हैं - 
जिससे सुखी रहो, वह उपदेश देता हूँ। मन को एकाग्र करो, सुखी होओगे।
लोग समझते हैं कि विशेष धन हो और लोगों पर हुकूमत हो जाय, इन्द्रिय के भोग मिले तो सुखी होऊँ, किन्तु ऐसा हो नहीं सकता। किसी को भी धन, हुकुमत और इन्द्रिय - भोग में सुख नहीं होता। 
सुख मन की एकाग्रता में है, चंचलता में सुख नहीं है।
मन की एकाग्रता में जो शान्ति मिलती है, उसके साथ-साथ और बातें हैं। मन एकओर लगा रहता है, चंचल नहीं होता। जैसे आपकी देह स्थिर रहे तो आपको आराम मालूम होता है, दौड़ने चलने से दु:ख मालूम होता है, उसी तरह मन स्थिर रहने से सुख होता है। 
सुखी होने के लिए बाहर का सामान नहीं चाहिए। अपने अंदर मन को समेटो।
 स्थिरता का स्वरूप बिल्कुल ऐसा होना चाहिए कि थोड़ा-सा भी फैलाव न रहे। ऐसा सिमटाव हो कि एक ऐसा रूप पकड़ ले, जिसमें बाँट न हो - फैलाव न हो। इतना होने में पूर्ण सिमटाव होगा। किसी देवता या इष्ट के रूप पर मन लगाने से उसके हाथ, पैर, मुँह आदि पर मन दौड़ता है। चेहरा देखने से पैर नहीं देखा जाता, इसलिए कभी चेहरा देखते हैं और कभी पैर। इसमें भी चञ्चलता रहती है। मानो और ख्याल छूट गए, किन्तु एक ही रूप में भी मन की चंचलता नहीं गई। कबीर साहब के वचन में है -
गगन मण्डल के बीच में, तहवाँ झलके नूर।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर।।
ठीक-ठीक बीच कितना बड़ा होता है? किसी मण्डल का बीच केवल एक ही विन्दु होगा। विन्दु से बड़ा करने से ठीक-ठीक बीच नहीं होगा।
 वह किसी ओर विशेष और किसी ओर कम होता। किन्तु छोटे-से-छोटा चिह्न विन्दु है, उसमें फैलाव नहीं है। मन की एकाग्रता के अभ्यास को क्रमशः धीरे-धीरे करते-करते मन एकाग्र होता है।
 मन का फैलाव शरीर और इन्द्रियों में है। इसका सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति होने से ऊपरी दर्जे की बात मालूम होती है। मालूम होते-होते सबसे ऊँचे दर्जे की बात मालूम होती है। बढ़ते-बढ़ते वहाँ तक जाता है, जिसके आगे और कुछ नहीं है। वही परमात्मा है। संसार में तो एक पदार्थ के ऊपर दूसरा और फिर उसपर तीसरा होता है, किन्तु परमात्मा के ऊपर कुछ नहीं है।
 योग में एकाग्रता होती है, शान्ति होती है, ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्वगति में परमात्मा की प्राप्ति होती है और इसी में मुक्ति है।
शान्ति, मुक्ति और परमात्मा की प्राप्ति योग में है। योगशिखोपनिषद् में कहा गया है कि योग और ज्ञान दोनों सीखो। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है।
 ज्ञान कहते हैं जानने को। कोई बिना जाने कुछ करेगा तो वह जो नहीं लेने का, वह भी ले लेगा! ऊर्ध्वगति में साधक ऊपर उठता है। प्रत्येक मण्डल में उस मण्डल के अनुकूल उसको शक्ति मिलती है। यदि नीचे दर्जे में ही फँसकर रह जाय, तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए ज्ञान सीखने को कहा।
 गुरु महाराज ने कहा है - ‘सत्संग करो।‘ इसमें ज्ञान की शिक्षा होगी। फिर कोई केवल ज्ञान में लगे रहे - योग नहीं करे तो प्राप्तव्य वस्तु प्राप्त नहीं होगी। जैसे केवल आम-आम कहने से न तो आम मिलता है और न उसका स्वाद या मजा ही।
ज्ञान दो तरह के होते हैं - परोक्ष और अपरोक्ष।
 इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास नित्य करना चाहिए। सत्संग से ज्ञान का साधन होता है। यह थोड़ी देर सबको करना चाहिए। जैसे भाँग पीने से नशा होता है, उस नशे में जबतक कोई रहता है - नशे में रहने से जो करना चाहिए, वही वह करता है, उसी प्रकार सत्संग वचन मन में रहने से सत्संग में जो काम होना चाहिए - वह काम होगा। 
इस सत्संग-वचन का नशा छूटने से वह अपकर्म भी करने लगता है, किंतु जो सत्संग-वचन के नशे में रहता है, उससे अपकर्म नहीं होता।
योग तीनों काल करें। हमलोगों के यहाँ त्रयकाल संध्या प्रसिद्ध है - भोर में, दिन में स्नान के बाद और फिर संध्याकाल।
संध्या का अर्थ है - सन्धि करना। परमात्मा की ओर अपनी वृत्ति को जोड़ना, मेल करना संध्या है। इसी में एकाग्रता है। इसका यत्न जाने और त्रयकाल संध्या करे। तब बढ़ते-बढ़ते बढ़ेगा। 
योग - अभ्यास करने से डरना नहीं चाहिए कि इसके लिए घर छोड़ना पड़ेगा या अँतड़ी धोनी पड़ेगी।
 अँतड़ी को धोना तो कम खाना है। 
कम खाइए, आलस्य नहीं आवेगा।
मुक्ति के विषय में जानना चाहिए कि मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है।
जीवनकाल में ही मुक्ति हो जाय; जैसे लवण समुद्र में घुलकर एक हो जाता है उसी प्रकार परमात्मा से मिलकर एक हो जाओ, वही मुक्ति है। किसी लोक - ब्रह्मलोक, विष्णुलोक या शिवलोक में जाना, असल में मुक्ति नहीं है। जिस ख्याल से उसको मुक्ति कहते हैं, उसको चार दर्जे में बाँटते हैं – सालोक्य - उपास्यदेव के लोक की प्राप्ति; सामीप्य - उपास्यदेव की समीपता प्राप्त करनी; सारूप्य - उपास्यदेव के शरीर सदृश रूप प्राप्त करना और सायुज्य - उपास्यदेव के साथ युक्त होना अर्थात् उपास्यदेव के शरीर से भिन्न अपना दूसरा शरीर नहीं रखना। किन्तु पहले जो मैंने कहा है, वह ब्रह्मनिर्वाण मुक्ति है। ब्रह्मनिर्वाण उसको कहते हैं, जिसमें न तो आपकी देह और न इष्टदेव की देह रहे, आत्मा से आत्मा युक्त हो जाय। वह ब्रह्मनिर्वाण मुक्ति है। असली मोक्ष यही है। और लोक-लोकान्तरों से इस नरलोक में पुनः पुनः जाना-आना पड़ता है; किन्तु ब्रह्मनिर्वाण में आना-जाना नहीं होता। जीवनकाल में मुक्ति असली मुक्ति है। मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। जिस प्रकार भोजन करनेवाले को स्वयं मालूम होता है कि मेरा पेट भर गया या रोगग्रसित होनेवाले को रोग छूटने से स्वयं मालूम होता है कि मैं रोगमुक्त हो गया और कैदखाने से छूट जाने पर कैदी को मालूम होता है 
कि मैं कारागार से मुक्त हो गया; उसी प्रकार जीवनकाल में ही महाभाग्यवान भजनीक महापुरुष को भजनान्त में निजी प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है कि मैं मायिक आवरणों से छूट गया हूँ - जीवनमुक्त हूँ। इस तरह इसलिए कहा जाता है कि संतों की वाणी में ऐसी ही दृढ़ता से कहा गया है। जिस जीवनकाल में ऐसा मालूम नहीं हुआ, साधन करता रहा, तो फिर मनुष्य शरीर मिलेगा और भगवान श्रीकृष्ण के कहे अनुकूल अनेक जन्मों के अनन्तर वह मुक्ति प्राप्त कर लेगा।
मरने के समय पाशविक भावना रहने से उस पशु-भावना के अनुकूल शरीर मिल जाय, इसमें कोई संशय नहीं।आपलोग सुने होंगे कि राजा भरत राज्य छोड़ जंगल तप करने गए थे। एक हिरणी के बच्चे को प्यार से पालते थे। वह बच्चा जंगल में भाग गया तो उनका ख्याल उसी हिरणी के बच्चे पर लगा रहता था। मरने के समय उनको वह ख्याल बना रहा तो पुनर्जन्म में उनको हिरण का शरीर मिला। इससे मालूम होता है कि मरने के समय जो भावना होगी, उसी के अनुकूल शरीर होगा। 
जो भावना जीवनकाल में बहुत होती है, मरने के समय वैसी भावना हो - यह संभव है। किन्तु जो भावना जीवनकाल में नहीं हो, वह भावना मरने के समय हो - यह संभव नहीं।
अब आप अपनी भावना चुन लीजिए। मुक्ति नहीं मिले तो यही भावना रहे कि मरने के समय ध्यान-भजन करते रहें। दूसरी भावना रहने से और शरीर मिलेगा, जैसे राजा भरत को। 
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है –
प्रयाण काले मनसा चलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव। भुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
 - गीता, अध्याय 8/10
अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से, भक्ति से सराबोर होकर और योगबल से भृकुटी के बीच में अच्छी तरह प्राण को स्थापित करता है, वह दिव्य परम पुरुष को पाता है।
 इसके पहले भगवान ने कहा है -
कविं पुराणमनुशासितारमणरणीयांसमनुस्मरेद्यः। 
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। 
- गीता, अध्याय 8/9
कहकर विन्दु रूप का वर्णन किया और कहा कि जो अंधकार के पार में आदित्य वर्ण का अणु-से-अणु रूप है अर्थात् विन्दु रूप है, उसका ध्यान करो। यह परमात्मा की दिव्य माया है। किंतु इस दिव्य माया रूप का उपासक स्थूल माया के ऊपर उठा रहेगा। 
इसका साधन बराबर कीजिए कि मरने के समय इसी तरफ मन फिरे। नहीं तो विशेष दुर्गति होगी। मरने के समय आपकी पवित्र भावना हो।
 मनुष्य- देह पाने से भी वह मनुष्य-शरीर मिले, जिसमें अध्यात्मज्ञान मिले। बिना अध्यात्मज्ञान जाने मनुष्य शरीर किस काम का?
श्री सद्गुरु महाराज की जय

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