बीसवीं सदी के महान संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी ,
जिसका शीर्षक चिट्ठी आधी मुलाकात होती हैं ।
आइये सत्संगी बंधु सदगुरू बाबा के अमृत वचन को पढें और जीवन में उतारने का प्रयास करें और अधिक से अधिक शेयर करें जिससे और सत्संगी बंधुओं को लाभ मिल सके ।✍👇👇👇👇👇👇👇
।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
संत अथवा सत्जन - सत्पुरुषों के संग का नाम सत्संग है। साधारणतया लोग अच्छे आचरणवाले को - शीलता से बरतनेवाले को सज्जन कहते हैं।
संत भी ऐसे ही होते हैं; किन्तु कुछ विशेषता यह कि –
अमित बोध अनीह मित भोगी।
सत्यसार कवि कोविद योगी।।
अर्थात् वे अति विशेष ज्ञानवान, इच्छारहित, अल्पभोगी, सत्य के साररूप, कवि, विद्वान और योगी होते हैं।
यह बहुत बड़ी बात है। इतने गुणोंवाले लोगों की पहचान होना कोई साधारण बात नहीं। सीधी बात में, शान्ति प्राप्त करनेवाले को संत कहते हैं।
शान्ति प्राप्त कर लेने के लिए जबतक कोशिश है, तबतक संत नहीं।
अपरिवर्तनशील और पूर्णरूपेण हलचल से मुक्त पदार्थ को शान्ति कहते हैं। इस शान्ति को जो प्राप्त करते हैं, वे संत कहलाते हैं। इस प्रकार का पदार्थ परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं। आशय यह कि परमात्मा को जो प्राप्त करते हैं, वे संत कहलाते हैं।
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
अर्थात् परे-से-परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है; सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। संत के लिए यह उपनिषद्-वाक्य प्रत्यक्ष है। इस उपनिषद्-वाक्य के अनुकूल जिनमें कोई कोर-कसर नहीं, वे संत हैं।
जिनके जड़-चेतन की ग्रन्थि खुल गयी है, वे सन्त हैं।
इस शरीर के अन्दर चेतन है। शरीर तो जड़ है ही। इन दोनों की गिरह जिनकी खुल गई, कर्म-मण्डल के ऊपर जिनकी चढ़ाई हुई, वे ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन पाते हैं, वे ही संत हैं। बड़े विद्वान को बड़े विद्वान ही जान सकते हैं कि बड़े विद्वान हैं। उसी प्रकार
संत को संत ही पहचान सकते हैं।
संत की पहचान अत्यंत दुर्लभ है। हमारा अख्तियार नहीं कि इनको पहचानें। फिर सत्संग कैसे करें? गुरु महाराज ने कहा - साधारणतः लोग कहते हैं कि
चिट्ठी आधी मुलाकात होती है। चिट्ठी में अपना-अपना ख्याल लिखते हैं, लेकिन रहते हैं दूर-दूर में। इस प्रकार चिट्ठी से भी किसी के ख्याल जानते हैं, गोया भेंट हो गई। याज्ञवल्क्य, रामानुज, गोस्वामी तुलसीदास, कबीर साहब आदि संत गुजर गए हैं। आज ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिनको कि विश्वास नहीं होगा कि ये लोग संत नहीं थे।
इन संतों की वाणी को पढ़ो, सुनो, समझो और समझाओ - वही सत्संग है।
इसलिए मैं जहाँ जाता हूँ, संतों की वाणी का पाठ करता हूँ या कराता हूँ। फिर उस वचन को समझने और समझाने की कोशिश करता हूँ। इसलिए आपलोगों के सामने कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी, सूरदासजी, पलटू साहब - पाँचों संतों की वाणी का पाठ कराया।
एक ही संत के वचन से काम चल सकता था; किंतु एक ही तरह की बात यदि अन्य संत कहें तो यह बात बहुत मजबूत हो जाती है, विश्वास दृढ़ हो जाता है। हमारे यहाँ कई पंथ हैं, कई धर्म के दल हैं। कोई कबीरपंथी, तो कोई नानकपंथी, कोई गाणपत्य, तो कोई शैव हैं। अनेक संप्रदायों के कारण लोगों के मन में होता है कि इन संतों के विचार अलग-अलग हैं। इस प्रकार जो जिन संत के सम्प्रदाय को अपनाते हैं, उसे विशेष कहा करते हैं। इस व्यवहार से आपस में कटुता, वैमनस्य हो जाता है। इस कटुता को दूर हटाने के लिए आवश्यक है कि अनेक संतों के विचारों को जानो।
यदि विचार मिल जाय तो कटुता आप ही दूर हो जाएगी। कटुता से जो वैमनस्य होता है, वह दूर हो जाएगा। आपस में मेल होगा, घर में मेल, गाँव में मेल, देश में मेल होगा। इसलिए संतों ने कहा कि
सभी संतों की वाणियों को जानो।
संतों की सबसे बड़ी बात है - एक ईश्वर को मानना।
संगति ही जरि जाव, न चर्चा राम की।
दुलह बिना बारात कहो किस काम की।।
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू।
जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानू।।
एक ईश्वर की विशेषता उड़ा दो, तो संतों के वचन का सार उड़ जाएगा।
पूर्वकाल में भी ऐसे आदमी थे और आज भी हैं, जो ईश्वर के होने में सन्देह किया करते हैं। वे ईश्वर को व्यक्त रूप में जानना चाहते हैं। उनके लिए बात यह है कि तुम पहले भौतिक विज्ञान की ओर सोचो। पहले प्रयोग द्वारा प्रत्यक्ष की गई वस्तु को अथवा उसके लिए पहले कुछ सोचा गया, विचारा गया कि ऐसा होना संभव है कि नहीं? बिना सोचे-विचारे प्रयोग नहीं होता। पहले सोचना-विचारना होता है, तब फिर प्रयोग होता है। इसी तरह ईश्वर के लिए पहले सोच-समझ लीजिए। कितने कहते हैं कि ईश्वर सोच-समझ से बाहर है। इसलिए श्रद्धा से मान लो। कितने ऐसे हैं कि श्रद्धा से मान लेते हैं। हमारा देश तो ऐसा है कि बच्चे के मुँह से ही राम-राम, शिव-शिव, वाह-गुरु कहलाना आरंभ कर देते हैं। उस समय बच्चा ‘राम-राम' कहता है, किंतु जानता नहीं कि ‘राम-राम' क्या है? कोई तर्क भी नहीं, जैसे बच्चे को गुरुजी ने कहा - यह ‘अ’ है, लड़के ने सीख लिया। कोई तर्क नहीं किया। जैसे उसको कहा गया, वैसे सीख लिया। इस श्रद्धा से भी काम चलता है; किन्तु अन्धी श्रद्धा गड्ढे में गिराती है। ज्ञानवान अंधी श्रद्धा लेकर नहीं चलें। बचपन में राम-राम कहा, अब उम्र आयी है समझने के लिए कि राम क्या है और प्रयोग द्वारा जाना जाएगा कि राम क्या है। जो जैसी वस्तु है, उसके लिए प्रयोग भी वैसा ही होना चाहिए। संतवाणी में पढ़ते हैं कि राम-राम क्या है। राम-नाम का रामानंद स्वामी ने विशेष प्रचार किया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी राम-नाम का बहुत जोर से प्रचार करवाया।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अविगत अलख अनादि अनूपा।।
पारमार्थिक स्वरूप मायिक स्वरूप नहीं है।
सकल विकार रहित गत भेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
सर्वव्यापी वह है, जो कहीं से भी खाली नहीं। वही परमार्थस्वरूप है।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं।
मोह मूल परमारथ नाहीं।।
जो कान के सुनने से बाहर है, जो आँख से देखने योग्य नहीं है; मन से जो छुआ नहीं जाता है, वह परमार्थ-स्वरूप है।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
इन्द्रियों के परे निर्विषय तत्त्व परमार्थ है; राम वही है। देश-काल से परे पदार्थ असीम होगा वा सीमावाला? जिसके पहले कुछ नहीं है, वही अनादि होगा। वही सबसे प्रथम का होगा, उसके पहले का कुछ नहीं होगा। कितना भी विचार करो, दार्शनिक दृष्टि या विज्ञान के विचार से देखो, एक पदार्थ सबसे पहले का जो अनादि है, वह होगा। इसलिए -
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
देश-काल के अन्दर और बाहर एक अनादि अनन्त तत्त्व है या नहीं? निर्णय करने पर ऐसा अवश्य है, ऐसा जानने में आता है। यद्यपि बुद्धि से नहीं जान-पहचान सकते, फिर भी बुद्धि निर्णय कर देती है कि एक पदार्थ अनादि अनन्त अवश्य है, असीम पदार्थ एक अवश्य मानना पड़ेगा।
सब ससीमों को जोड़कर भी असीम नहीं हो सकता। ससीमों के पार अनन्त, असीम के कहे बिना बुद्धि को संतोष नहीं होता। सभी संतों ने परमात्म-स्वरूप को असीम बताया है। चाहे वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद् वचन - कहीं देखो। यदि कहो कि जो अनादि अनंत है, उसको ईश्वर क्यों मानें? तो उत्तर में कहा जाएगा कि जिसके अन्दर सब हैं, तो उसका प्रभुत्व उन सब पर है। इसलिए वह सबका ईश्वर है। फिर कहा - माना कि वह सबका ईश्वर है, फिर उसकी भक्ति क्यों करो? मैंने कहा - संसार में रहते संसार के पदार्थ को एकत्रित करते-करते बहुत लोग संसार से चले गए।
संसार के भौतिक पदार्थ को संचित करनेवाले क्या चीज लेकर संसार से गए? असंतुष्टि लेकर। यह सबके लिए है।
चाहे तैमूरलंग हो, महमूद गजनवी हो या पृथ्वीराज हो अथवा आज के लोगों को देखिए, स्वयं अशांत हैं और लोगों को अशान्त करते हैं। लोगों को भी लूटकर सुख करें, ऐसी इच्छावाले लोगों की यह हालत होती है।
वर्षों लड़-झगड़कर स्वराज्य प्राप्त किया; किंतु सुख कहाँ? हमारा देश कंगाल है, किंतु तमाम संसार के हाल को देखो, क्या होता है?
शेख सादी ने कहा था कि जो बहुत लालची है, उसकी आँख संसार- भर की दौलत से वैसे ही नहीं भरती, जैसे शीत से कुआँ नहीं भरता।
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।। राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा।।
- रामचरितमानस
इसलिए संतों ने जोरों से कहा कि ईश्वर है, उसको पकड़ो, शान्ति आएगी। रावण, सहस्रबाहु - जैसे भी हो जाओ; किंतु शान्ति नहीं आएगी। तेज में, बल में परशुराम - जैसे हो जाओ, फिर भी संतोष नहीं। दिन के बाद रात, रात के बाद दिन अनिवार्य रूप से होता ही रहता है। उसी तरह दु:ख के बाद सुख, सुख के बाद दु:ख होगा ही। संसार में रहने से ऐसा होगा ही। इसलिए ईश्वर को पहचानो।
संसार को देखते हो, तो संसार का गुण तुम पर होता है। इसलिए संसार से परे परमात्मा को पकड़ो, शान्ति मिलेगी। इसलिए संतों ने ईश्वर को पकड़ने पर बहुत जोर दिया।
राकापति षोडस उअहिं, तारागण समुदाय।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ, बिनु रवि राति न जाय।।
ऐसे हि बिनु हरि भजन खगेसा। मिटहिं न जीवन केर कलेसा।।
- रामचरितमानस
आजकल की बिजली बत्तियों को जला दो, तो भी रात नहीं जा सकती, वैसे ही जागतिक कितना भी वैभव हो जाय, ईश्वर-भजन किए बिना दु:ख दूर नहीं होता। संसार का काम छोड़कर ईश्वर भजन करो - ऐसी बात नहीं। लोगों को जमीन का कर देना पड़ता है। इसी तरह संसार में रहकर संसार का काम करो; किंतु उसमें लिप्त मत होओ। संसार के कामों को करते हुए भजन करो। मन को परमात्मा में लगा रखो। ऐसा करने से ईश्वर- भजन होगा।
ईश्वर सबके अन्दर हैं और सब उसके अन्दर हैं।
हमलोग अभी जगे हुए हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति - ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। शरीर के जिस तल पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस तल को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को तब हम छोड़ते हैं। इसी प्रकार शरीर के समस्त तलों को यदि हम छोड़ सकें, तो संसार के भी सभी तल छूट जाएँगे।
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं में रहने से ईश्वर की पहचान नहीं होती। उसके लिए चौथी अवस्था है।
अवस्था में परिवर्तन होने से नीचे से ऊपर चढ़ते हैं। हल जोतने वाले हो, चाहे बारीक काम करनेवाले हो, इसकी युक्ति गुरु से सीखो। आज का साधन कल के लिए नहीं छोड़ो।
योग सुनकर डरना नहीं चाहिए।
अगर है शौक मिलने का तो हरदम लौ लगाता जा।
परमात्मा की ओर मन लगे, इसके लिए मन कैसा होना चाहिए? मन को पवित्र बनाने के लिए इसकी विधि जानकर प्रयोग करना होगा। ईश्वर सर्वव्यापी है, देशकालातीत है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, परमात्मा इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं है आदि-आदि; सब संतों ने एक ही बात कही है।
इन्द्रियों के द्वारा परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। अन्तर्मुखी होने से इन्द्रियों से छूटना होता है।
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति - ये तीनों अवस्थाएँ छूट जाएँ, ऐसा भजन करो। जब कैवल्य दशा प्राप्त होगी, तब सब संशय छूट जाएँगे। इसके लिए अंतर्मुख होना पड़ेगा।
इसकी युक्ति किन्हीं संत से जानो और साधना करो।
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