🙏🙏🏻गुरुपूर्णिमा की हार्दिक शुभ कामनाएँ🙏🏻🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏गुरुपूर्णिमा विशेष🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏श्री सदगुरु महाराज की जय 🙏🙏🙏🙏
गुरु: साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:||"
यद्यपि आज रविवार है, तथापि विचारकर देखने से हमलोगों के लिए महामंगलवार है; क्योंकि गुरुवार है | गुरुवार यानी गुरु का दिन, गुरु-पूनम, गुरु-पूर्णिमा अर्थात गुरु-पुजन का पावनतम दिन |
यों तो गुरुभक्तों के लिए गुरु-पूजन के सभी दिन पावन ही होते हैं;किन्तु आज की तिथि अपनी विशेष महत्ता रखती है|
आज महर्षि व्यासदेवजी की जन्मतिथि है | वे गुणवान्, विद्वान, शीलवान, बुद्धिमान, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, तेजस्वी, मनस्वी, अोजस्वी, यशस्वी, वर्चस्वी, त्यागी, विरागी तथा ईश्वरानुरागी थे | समासरूप में वे सभी सद्गुणों से सम्पन्न थे | उनका यथार्थ में नाम था - कृष्ण-द्वयपायन | वे पराशर मुनि के पुत्र थे | उन्होंने वेदों का विभाग और संपादन किया था | कहा जाता है कि अठारहो पुराण, महाभारत, भागवत और वेदांत आदि की भी रचना उन्होंने ही की | वे ईरान भी गए थे | वहाँ के विद्वानों से शास्त्रार्थ होने पर वे विजयी हुए थे | इन कतिपय कारणों से उनको जगद्गुरु की संज्ञा दी गई |
जैसे सुर-गुरु बृहस्पतिजी के नाम पर बृहस्पतिवार को गुरुवार कहा जाने लगा, उसी भाँति जगद्गुरुजी का जन्म आषाढ़-पुर्णिमा को होने के कारण उसको गुरु-पुर्णिमा कहकर अभिहित किया गया | जगद्गुरु होने के कारण स्मृति के रूप में लोग उनकी जयंती मनाते हैं तथा इस अवसर पर गुरु-भक्तगण अपने-अपने गुरु का पुजन, अर्चन, वन्दन आदि किया करते हैं |
गुरु की महत्ता, वक्ता की वाणी का अथवा लेखक की लेखनी का विषय नहीं |
यह स्वभावत: सिद्ध है कि भौतिक अथवा आध्यात्मिक, कोई भी काम बिना गुरु के सुसंपन्न नहीं हो सकता | इस दृष्टि से भी गुरु का स्थान विशिष्ट होना स्वाभाविक है |
गुरु की विशेषता की बातें :-
संत सुन्दरदासजी की सुन्दर वाणी --
"गुरु बिना ज्ञान नहिं, गुरु बिन ध्यान नहिं,...
गुरु बिन बाट नहिं, कौड़ी बिन हाट नहिं,
सुन्दर प्रकट लोक, वेद यों कहतु हैं |
कविकुलकमलदिवाकर गोस्वामी जी की वाणी ---
"बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु |
गावहिँ वेद पुरान, सुख कि सहित हरि भगति बिनु ||"
संत कबीर साहेब ने कहा है --
"गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोइ |
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु सिष्य न कोई ||"
भगवान श्रीराम ने उपदेश और आदेश दिये ---
"नरतन भव बारिधि कहाँ बेरो |
सन्मुख मरूत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुरु दृढ़ नावा |
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ||"
योगशिखोपनिषद् में कहा गया है ---
"कर्णधारं गुरुं प्राप्य तदवाक्यं प्लववदृढम् |
अभ्यासवासना शक्त्या तरन्ति भवसागरम् ||"
अर्थात् गुरु को कर्णधार (मल्लाह) पाकर और उनके वाक्य को दृढ़ नौका पाकर अभ्यास वासना की शक्ति से भव-सागर को लोग पार करते हैं |
संत चरणदासजी की दृष्टि में ---
"पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार |
मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरु गार ||
माता सूँ हरि सौ गुना, जिनसे सौ गुरुदेव |
प्यार करैं औगुण हरैं, चरणदास शुकदेव ||"
सरलह्रदया सहजोबाई की वाणी ---
"हरि ने मो सूँ आप छिपायौ |
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ||"
और हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ) कहते हैं ---
हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै |
भव-दुख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ||
गुरुदेव के आदेश का पूर्ण रूप से पालन करना ही गुरु-पूर्णिमा का पूर्णरूपेण पर्व मनाना है | अतएव जितने अंश में हम उनकी आज्ञा का पालन कर पाएँगे, उतने ही अंश में इस त्योहार का मनाना माना जा सकेगा |
जिस दिन हम उनके निर्देश का पूर्णरूप से पालन कर सकेंगे, यथार्थ में वही गुरु-पूर्णिमा का पावनतम पर्व होगा |
संत सदगुरु के विमल वचन को अमल में लाकर हम अपने को निर्मल बनावें | वस्तुतः यह लोक या परलोक, कहीं भी गुरु के समान और दूसरा उपकारी नहीं हो सकता |
गुरु-पूर्णिमा पूर्ण गुरु का परिचायक है और यह पूरे गुरु की यकद दिलाता है।
जीवन्मुक्त परम् संत पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं।
ऐसे पूरे और पहुँचे हुए सद्गुरु कक मिलना परम् प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य है।
गुरुदेव के आदेश का पूर्णरूपेण से पालन करना ही गुरु-पूर्णिमा का पूर्णरूपेण पर्व मनाना है।
अतएव जितने अंश में हम उनकी आज्ञा का पालन कर पाएँगे, उतने ही अंश में इस त्योहार का मनाना माना जा सकेगा।
जिस दिन हम उनके निर्देशन का पुर्णरूप से पालन कर सकेंगे, यथार्थ में वही गुरू-पर्णिमा का पावनतम पर्व होगा
गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान बताया गया है क्यों? इसलिए कि गुरु में तीनों देवों के कार्य करने की क्षमता परिलक्षित होती है।
दीपक घर के अंदर प्रकश करता है, चंद्रमा रात्रि को आलोक करता है और सूर्य दिन में अपनी किरण विकीर्णित कर बाह्य जगत को प्रकाशित करता है; लेकिन पूरे गुरु अपने शिष्य के अन्तस्तम का निवारण कर उसे प्रकाशपुंज से आपूरित करते हैं।
इतना ही नहीं,वे तीनों लोकों में व्याप्त ब्रह्म की प्राप्ति करा देने में भी सक्षम होते हैं।
पूर्णिमा की सारी रात प्रकाशमयी होती है, उसी तरह पूरे गुरु का लौकिक और लोकोत्तर जीवन प्रकाशपूर्ण होता है।
ऐसे गुरु के संग से शिष्य का जीवन भी प्रकाशमय हो जाता है।
पूरे गुरु का संग करनेवाले का अनंग तंग नहीं करता; क्योंकि वह अभंग रूप में गुरु का अंतरंग भक्त होता है।
गुरु और शिष्य की जो परंपरा है, आदिकाल से चली आ रही है।
जब से सृष्टि है, तब से गुरु हैं, तब से शिष्य है, कोई सीखानेवाले है,कोई सीखने वाला है
आप हाथी को देखते हैं, उसके पैर के चिन्ह में सभी जीवों के पद-चिह्न समा जाते हैं।
उसी तरह एक गुरु पूजा में सबकी पूजा हो जाती है।
गुरु की कृपा के प्रसाद से ही आत्मा का आनंद प्राप्त होता है और अनंत ज्ञान उदित हित है।
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