Shri sadgurua namah
।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
हमलोग जितने हैं, सब-के-सब बन्धन में पड़े हैं।
हमारे ऊपर शरीर और संसार का बंधन है
जैसे कोई कारागार में हो, उसका आहाता बहुत बड़ा होता है। उसमें बहुत कोठरियाँ होती हैं। उसमें कारावास भोगनेवाले होते हैं।
ब्रह्माण्डरूप कारागार का यह एक-एक पिण्ड एक-एक कोठरी के समान है। इसमें जीव कारावास भोगता है। इस शरीर में हमारा रहना कैदी की तरह है। यही कारण है कि संसार की परिस्थिति के कारण बड़े हों या छोटे, सब-के-सब दुःख का अनुभव करते हैं।
संतों ने इन दुःखों से छुटने के लिए कहा; और कहा कि इनसे छूटना ही कल्याणकारी है। इसके लिए संतलोग जो रास्ता बतलाते हैं, उसपर चलिए।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा -
संत पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रंथ।।
मोक्ष के लिए चेष्टा करो, प्रयास करो। सारे बंधनों से छूट जाओ। यही उनकी पुकार है। बंधन में रहने के वास्ते उसका बीज या अंकुर तुम्हारे अंदर है। ऐसा संतों ने कहा है। अपना अंदर शुद्ध करो, बीज को नष्ट करो, तो तुम बंधन से छूट जाओगे। यह बीज क्या है? चित्त का धर्म है। मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ - ये चारों बातें उठती रहती हैं। जिस प्रकार शरीर को कितनाहू धोओ, उसमें मैल आती ही रहती है, उसी प्रकार चित्त में इसका धर्म होता ही रहता है। इसको क्षय करने के लिए भगवान श्रीराम ने उपदेश दिया और कहा कि शरीर रहते मुक्ति प्राप्त करो। इसी को जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनकाल में भी विदेहमुक्त कहलाता है, इसलिए कि शरीर में जो सुख-दुःख होते हैं, उनको वह कुछ नहीं जानता। कर्ममण्डल से जबतक कोई ऊपर नहीं उठता, तबतक चित्तधर्म होता ही रहता है। इसके लिए भगवान श्रीराम ने श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव-ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा। सुनो, समझो, और सुन समझकर जो निर्णय हो, उस कर्म को करो। कर्म करते-करते कर्म का अंत होगा, तब अनुभव होता है, तभी चित्त का धर्म छूटता है। यह उसी तरह साधा जाता है, जिस तरह कोई किसी विद्या का सीखने का अभ्यास करता है। थोड़ा थोड़ा सीखते-सीखते उस विद्या में वह निपुण होता है। तुम संसार में जबतक रहते हो, विषयभोग में लगे रहते हो। किंतु संतुष्टि होती नहीं। संतुष्टि नहीं तो सुख कहाँ? विषयानंद में तुम कभी सुखी नहीं हो सकते। चित्त-धर्म से ऊपर उठो।
विषयानंद में खींचो मत। विषयों से ऊपर आत्म अनुभवानंद है।
उसको प्राप्त करो तब नित्यानंद मिलता है, जिस आनंद को पाकर किसी प्रकार की कल्पना नहीं होती। आगे बढ़कर वे कहते हैं - जबतक तुम्हारे अंदर इच्छा रहेगी और प्राणस्पंदन रहेगा, तुम्हारा चित्त-धर्म नाश नहीं हो सकता। इसके लिए तुम दोनों में से किसी एक का दमन करो, तो वासना और प्राणस्पंदन - दोनों दमित हो जाएँगे। ‘प्राण' का अर्थ प्राणवायु नहीं जानना चाहिए।
फेफड़े में जो वायु खींचने और फेंकने का काम जिस जीवनीशक्ति से होता है, वह प्राण है। जो वायु उससे संबंधित होती है, वह प्राणवायु है।
उसके स्पन्दन को रोको या इच्छा को दबाओ। दोनों में से किसी को रोको, तो दोनों रुक जाएँगे। प्राण में स्पन्दन होने से मन में कुछ-न-कुछ भाव उत्पन्न होता है।
इच्छा को रोको, यह सरल तरीका है। इच्छाओं को रोकने के लिए ध्यान सरल उपाय है।
एक ओर मन को लगाने से, जहाँ मन लगाते हैं, वहाँ से मन भागता है। फिर लौटा-लौटाकर उसी स्थान पर लाते हैं, यह प्रत्याहार है। बारंबार प्रत्याहार होते-होते धारणा होती है और फिर ध्यान होता है। पूर्ण सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति होने से आवरणों का छेदन होता है, तब चेतन आत्मा सब आवरणों को पार कर ऊपर उठ जाती है। यही मोक्ष है। इससे क्या होता है? परमात्मा को पाता है। आवरणहीन हो जाने से जैसे मठाकाश, घटाकाश और महदाकाश एक ही होता है, उसी तरह उपाधिहीन या आवरणहीन होने पर चेतन आत्मा अपने को पाती है और परमात्मा को भी पाती है। इस अवस्था को जिसने प्राप्त किया, वह फिर मरता नहीं। *इस अवस्था का मरना जो नहीं मरता, वह संसार में फिर फिर जनमता-मरता है।
कबीर साहब ने कहा है –
मरिये तो मरि जाइये, छूटि पड़े जंजार।
ऐसी मरनी को मरै, दिन में सौ सौ बार।।
जैसे-जैसे इच्छाओं से छूटता जाता है, वैसे-वैसे प्राणस्पंदन रुकता है। भीतर-भीतर चलने से इच्छाओं की निवृत्ति होती है, प्राणस्पंदन रुद्ध हो जाता है और एकविन्दुता प्राप्त हो जाने पर प्राणस्पंदन बिल्कुल बन्द हो जाता है। इसी के लिए
कबीर साहब ने मृतक होने के लिए कहा।
ध्यानाभ्यासी स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करता है। फिर सूक्ष्म से कारण में और कारण से महाकारण में प्रवेश करता है। इस प्रकार जड़ के चारों शरीरों को त्यागकर अपने स्वरूप में आता है। फिर चेतन शरीर को भी छोड़कर परमात्मा में विलीन होता है। *यही पूरा-पूरा मरना है। इस प्रकार जो मरता है, वह फिर कभी मरता नहीं।
अपने अन्दर जो मानस जप और मानस ध्यान करता है और पूर्ण सिमटाव के लिए यत्न करता है, यह यत्न एकविन्दुता प्राप्त करने के लिए है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा - 'तुम अपनी दृष्टि को अंतर्मुखी बनाओ।
साधु का संग करो, अध्यात्मविद्या की शिक्षा ग्रहण करो। अध्यात्म-विद्या की शिक्षा बिना साधु-संग के नहीं होगा। इसलिए साधुसंग करो।
उनसे अध्यात्म-विद्या सीखो। प्राणस्पंदन निरोध और वासना परित्याग करो। गुरु महाराज ने जो क्रिया बतायी है, उससे प्राणस्पंदन का निरोध और वासना का परित्याग होता है।
जिसको यह युक्ति मालूम है, उसे नित्य करना चाहिए। कभी गाफिल नहीं होना चाहिए।
साधुसंग, वासना-परित्याग, प्राणस्पन्दन-निरोध और अध्यात्म-विद्या की शिक्षा - ये ही चारो आत्मज्ञान को प्राप्त करा सकते हैं।
भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया कि तुम मेरे अशब्द, अरूप, अस्पर्श, अगंध और गोत्रहीन दुःखहरण करनेवाले रूप का नित्य भजन करो।
लोग स्थूल सौन्दर्य में आसक्ति रखते हैं; किंतु यदि सूक्ष्म के विन्दु रूप सौन्दर्य को प्राप्त करें तो स्थूल सौन्दर्य स्वतः छूट जाएगा। और वह जब कारण के दिव्य सौन्दर्य को प्राप्त करेगा, तो सूक्ष्म का सौन्दर्य भी छूट जाएगा। इस प्रकार क्रमक्रम से वह रूप से अरूप में चला जाएगा, फिर परमात्मा को प्राप्त करेगा।
यम ने नचिकेता को समझाया कि मनुष्य को बहुत शुद्ध होना चाहिए। ब्रह्मवत् परिशुद्ध नहीं होकर कोई परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए
झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार मत करो। खानपान सात्त्विक होना चाहिए।
जो सात्त्विकता के लिए यत्न नहीं करता, रजोगुण और तमोगुण में फँसा रहता है और परमार्थ की ओर चलना चाहता है, तो वह वैसा ही होगा, जैसे ‘भूमि पड़ा चह छुअन आकाशा' कहा गया है। इसलिए खानपान को पवित्र रखो। खान-पान का असर मन पर पड़ता है। यदि खान-पान का असर मन पर नहीं पड़ता, तो भाँग खाने और शराब पीने से मस्तिष्क क्यों गड़बड़ा जाता है। खान-पान को पवित्र रखो। संतों के कहे अनुकूल चलो। कल्याण होगा।
🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏🙏🙏
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