बीसवीं सदी के महान संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी ।
आईये
सत्संगी बंधुओं सदगुरू मेंहीं बाबा का अमृत वचन को आनंद मन से पढ़ें ।।👇👇📱
🙏🙏।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🙏🙏
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे सज्जनो!
संतों के ज्ञान में सबसे विशेष बात ईश्वर का ज्ञान है, मोक्ष का ज्ञान है।
यद्यपि दोनों वाक्य पृथक-पृथक मालूम होते हैं,
किंतु दोनों दो नहीं, एक ही हैं।
ज्ञान के साथ योग रहता है
और योग के साथ भक्ति रहती है।
ज्ञानविहीन योग और योगविहीन ज्ञान मोक्षप्रद नहीं होता।
फिर भक्ति के बिना योग और ज्ञान पूरा नहीं होता।
इन सब बातों के मूल में ईश्वर का ज्ञान है।
यदि ईश्वर को आप न जानें, ईश्वर तत्त्व का बोध नहीं हो तो ज्ञान किसके लिए?
ज्ञान में तीन बातें होती हैं - ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय।
जो जानने योग्य है, उसका पता नहीं, फिर ज्ञान किसका? बिना ज्ञेय का ज्ञान किस काम का?
इसलिए ईश्वर-स्वरूप का निर्णय जानना आवश्यक है। उसे जानना ज्ञान है।
उसमें जो अत्यन्त आसक्ति है, उसको प्राप्त करने के लिए वह प्रेम है, वही भक्ति है।
जहाँ संलग्नता नहीं, वहाँ सेवा-भाव नहीं रह सकता।
बिना प्रेम की सेवा ऊपरी भाव है।
जैसे ज्ञान में तीन बातें होती हैं, वैसे ही भक्ति में भी तीन बातें होती हैं; वे हैं - भक्ति, भक्त और भगवन्त।
इन तीनों में से किसी को अलग नहीं किया जा सकता। सेवा में मिलन होता है।
मिलन वह कर्म है, जो सेवा के लिए होता है।
यदि सेवा और मिलन - दोनों को अलग-अलग कर दो, तो सेवा हो नहीं सकती।
मिलन के ही कार्य से सेवा होती है।
भक्ति और योग बिना ज्ञान के छूँछ पड़ जाता है।
इसलिए भक्ति, ज्ञान और योग - तीनों साथ-साथ रहते हैं।
मूल में बात यह है कि ज्ञातव्य क्या है?
किसकी सेवा हो? संतों ने ईश्वर से मिलने, योग करने, सेवा करने के लिए कहा है।
संतों की बतायी भक्ति ईश्वर में प्रेम-भाव रखकर भक्ति करने की है।
सबसे पहले ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए।
उपनिषद् और संतवाणी के अनुकूल ईश्वर-स्वरूप ऐसा है कि वह इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है।
सांसारिक ज्ञान इन्द्रियों से होता है।
आपके शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
वे हैं - आँख, कान, नाक, जीभ और चमड़ा।
इनसे पंच विषयों का ज्ञान होता है।
एक इन्द्रिय के विषय का ज्ञान दूसरी इन्द्रिय से नहीं होता; जैसे जो ज्ञान कान से होता है,
वह नाक से नहीं और जो नाक से होता है, वह आँख से नहीं।
जिस पदार्थ को ईश्वर कहते हैं, उसका ज्ञान इन पाँचों से नहीं हो सकता।
अंदर की इन्द्रियों से भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।
- रामचरितमानस
जो माया है, वह विषय है और जो निर्माया है, वह निर्विषय है।
बाहर-भीतर की सब इन्द्रियों को छोड़ दीजिए, तब आप स्वयं बच जाते हैं।
मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों को छोड़ो।
बाहर की पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों को छोड़ो, तब जो बचे, वह आप हैं। यदि कहो कि शरीर किसका?
तो कहिएगा मेरा।
उसी प्रकार बुद्धि किसकी? तो कहिएगा - मेरी बुद्धि।
इस प्रकार आप शरीर और बुद्धि-कुछ भी नहीं, आपके संग शरीर और बुद्धि है।
जैसे कपड़ा आप नहीं, आपका कपड़ा है। इस प्रकार
जो मन-बुद्धि से परे है; जो अपने से ग्रहण करने योग्य है, वह ईश्वर है और आप हैं, ईश्वर के अंश।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने
रामचरितमानस में लिखा है –
ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखरासी।।
जैसे बाहर का आकाश और घर का आकाश -
दोनों एक ही हैं, लेकिन घर की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई के कारण उसकी नाप-जोख के अंदर ही शून्य जाना जाता है और
बाहर का आकाश उससे विशेष है;
किंतु बाहर का आकाश और घर का आकाश तत्त्वरूप में एक ही है।
जैसे एक लोटा पानी और दरिया का पानी या समुद्र का पानी तत्त्वरूप में एक ही है।
परमात्मा का जातीय पदार्थ चेतन आत्मा है।
इसलिए चेतन आत्मा ही उसे ग्रहण कर सकती है।
उसको ग्रहण करने से नित्य सुख-शान्ति मिलती है, तृप्ति होती है। इसी के लिए सभी संतों का कहना है
कि उस ईश्वर का भजन करते रहें ।
🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏🙏
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