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गुरुवार, 6 अगस्त 2020

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी:चित्तवृत्ति का निरोध करना योग हैं

 

जय गुरुदेव 

बीसवीं सदी के महान संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी को पढें, 

🙏🙏।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🙏🙏

बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।

 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!

ज्ञान का पूरक योग है और योग का पूरक ज्ञान। 

योग का अर्थ है मिलना और ज्ञान का अर्थ है जानना।

 बिना कुछ जाने, मिले तो किससे? ज्ञान भी दो तरह के होते हैं? एक वह ज्ञान है, जिससे जानते हैं, लेकिन पहचानते नहीं हैं। दूसरा ज्ञान वह है, जिससे हम जानते हैं और पहचानते दोनों हैं। 

जाना किन्तु पहचाना नहीं, यह अधूरा ज्ञान है। और जानकर पहचानने पर पूरा ज्ञान होता है।

 बिना मिलन के भी पूरा ज्ञान नहीं होता, पूरी पहचान भी नहीं होती। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों की आवश्यकता है।

 योग जैसे-जैसे बढ़ेगा, वैसे-वैसे ज्ञान भी बढ़ेगा। बढ़ते-बढ़ते योग भी बढ़ेगा और ज्ञान भी बढ़ेगा। चित्तवृत्ति का निरोध करना योग है। यदि कोई कहे तो कहना चाहिए कि चित्त की धारें एक नहीं होने से निरोध कैसे हो सकता है? चित्तवृत्ति के एकत्र होने से ही निरोध होगा। तब प्रश्न होगा कि ज्ञान और योग तो हुआ, लेकिन भक्ति तो नहीं हुई। तो कहो कि भक्ति का अर्थ है सेवा।

 प्रणाम करना भी सेवा है। प्रणाम करने से आदर होता है। आदर होने से उसके दिल में प्रसन्नता होती है। यह जीवित प्राणी के लिए है। जो जीवित प्राणी नहीं है, उसके लिए क्या सेवा है? जैसे औषधि सेवन है। औषधि को खा जाते हैं, शरीर में लगाते हैं अथवा सूँघते हैं, यह भी सेवा है। जिससे जैसा काम लेना चाहिए वैसा लेना सेवा है। जैसे गंगा-सेवन। गंगा में स्नान करते हैं, वायु में टहलते हैं, गंगा का जल पीते हैं। गंगा-जल जड़ पदार्थ है। 

जड़ ज्ञानहीन पदार्थ को कहते हैं।

 जैसे यह कागज का फूल है। इसको ज्ञान नहीं है। यह जड़ है, यह शरीर भी जड़ है, किन्तु इसमें चेतन है। जैसे लोहे को अग्नि में तपा देने से वह लाल हो जाता है, अग्नि का रूप हो जाता है और अग्नि का काम करता है; किन्तु उसको आग से थोड़ी देर अलग रख दो, तो उससे लाली निकल जाती है और वह ठण्ढा पड़ जाता है, फिर उससे अग्नि का काम नहीं होता। उसी तरह इस शरीर में जबतक चेतन है, तबतक यह चेतन सा काम करता है। मुर्दा शरीर में से चेतन निकल जाता है, तब वह जड़ का जड़ हो जाता है। तो यह जड़ और चेतन पर कहा।

अब सेवा पर आते हैं। जैसे गंगा की सेवा। गंगा-जल जड़ है। उसको ज्ञान नहीं है। उसको पीते हैं, उसमें स्नान करते हैं। यह भी सेवा है। सेवा किसकी करोगे, यदि ज्ञान नहीं हो? ज्ञान नहीं हो तो मिलोगे किससे? ईश्वर की सेवा करोगे - भक्ति करोगे, यदि ईश्वर के सम्बन्ध में जानो नहीं, तो उससे कैसे मिलोगे? इसलिए ज्ञान और योग करने से भक्ति भी हो जाती है।

 भक्ति या सेवा को लोग इस तरह समझते हैं - शिव, राम, कृष्ण, देवी आदि किसी की मूर्ति को बनाकर पूजना भक्ति या सेवा है। शिवलिंग में हाथ, पैर, नाक कुछ भी नहीं है। किन्तु इस रूप को शिव मानकर पूजते हैं; किन्तु पूजन इतना ही है कि और भी है? यदि इतना ही रहता तो श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद, शास्त्र आदि क्यों होते? यह मोटा ज्ञान उसके लिए है जो पहले से कुछ नहीं जानता।

यह ईश्वरकृत शरीर भी जड़ है। एक पत्थर लो और अपनी देह देखो। दोनों में मोल किसका विशेष है? दोनों ईश्वरकृत हैं। शरीर की इज्जत पत्थर से विशेष है। हीरा, लाल, मोती आदि भी मनुष्य से कम नहीं हैं। फिर भी मनुष्य देह जड़ है। तब और जो पत्थर है, उसका क्या मूल्य है? 

गुरु यदि गोरू हो तो उसकी सेवा से क्या लाभ होगा?

 ईश्वर को जानना है, तो यदि इतना ही जाने कि शालिग्राम ही ईश्वर है, तो इतने से काम नहीं चलेगा। यदि गुरु को ही ईश्वर मानो, जैसा तुलसीकृत रामायण में है -

बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। 

महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।

वाल्मीकि जी ने भी श्रीराम से कहा था –

तुम्ह तें अधिक गुरुहिं जिय जानी। 

सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।

ईश्वर सबमें है। इसलिए कि ईश्वर सबसे पहले का है।

उसके पहले कुछ नहीं था। खुदा - खुद+आ = स्वयं आया। इसी का जोड़ा हमलोगों के यहाँ ‘स्वयंभू' शब्द है। किंतु यह शब्द भी कमजोर है। जो पहले से है, वह छोटा नहीं हो सकता या बड़ा भी हो तो परिमाण-सहित, आदि-अंतसहित चाहे करोड़ों योजन लम्बा-चौड़ा हो, अनादि-अनंत से छोटा ही है। यदि कहा जाय कि सबसे पहले का सीमावाला पदार्थ था, तो प्रश्न होगा कि उसकी सीमा के पार में क्या था? सीमावाला मान लेने पर ईश्वर सबसे पहले का सिद्ध नहीं होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है –

व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। 

अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।

जो पहले का होगा, उसकी सीमा नहीं होगी और वह सबमें होगा। इसीलिए कबीर साहब ने कहा –

है सब में सबही तें न्यारा। 

जीव जन्तु जल थल सबही में, सबद वियापत बोलनहारा।

शालिग्राम, श्रीराम या गुरु की मूर्ति को जो बताया गया है, वह तो इसलिए कि तुम कुछ नहीं जानते हो, तो उनमें मन लगाने के लिए बताया। यदि कहो कि ईश्वर से मिलकर क्या होगा? तो देखो, यहाँ पर आराम नहीं है, बेचैनी लगी रहती है। 

चाहे राजा हो या कुछ बने रहो।

अंग्रेज हमलोगों के यहाँ से भाग गया। वह यहाँ था, तब उसको बेचैनी थी। इसको छोड़कर भाग गया, तब भी बेचैनी है। सोचकर देखिए, आपकी एक कट्ठा जमीन कोई ले लेता है, तो आपको कैसा मन होता है? जिसके हाथ से सारा भारतवर्ष छूट गया, उसका मन कैसा होता होगा? इसलिए संसार में शान्ति चैन कहीं नहीं है, चाहे कुछ बन जाओ। सूर्य, चन्द्र, तारे आदि सभी देश काल से घिरे हैं। 

देश-काल के अंदर रहोगे, तो बेचैनी में और दुःख में रहोगे।इन्द्र, ब्रह्मा, शिव आदि सब-के-सब बेचैन रहते हैं। इसलिए देश-काल से जो परे है, उससे मिलो। यही योग है। इसी योग का अर्थ ‘भक्ति' है। 

परमात्मा से मिलने के लिए कोशिश करो। यही भक्ति है।

मोटी बातों से भक्ति का आरंभ है। भक्ति का जहाँ अंत है, वहाँ परमात्म-दर्शन है।

इस भक्ति में ईश्वर के पास जाना है, ईश्वर को बुलाना नहीं है। यदि कोई कहे कि ईश्वर को सर्वव्यापी मानते हो, तो उसको यहाँ क्यों नहीं पकड़ते? तो उत्तर में कहेंगे कि जानने-पहचानने के लिए हमारे पास पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। ये मोटी मोटी हैं; किंतु ईश्वर झीने से झीना है। उसको इन मोटी इन्द्रियों से कैसे पकड़ सकेंगे? इसलिए वहाँ जाना है, जहाँ सब शरीरों और सब इन्द्रियों से छूट जायँ, तब ईश्वर दर्शन होगा।

🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏🙏

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