निज काम क्या है?
(साभार – सत्संग-सुधा सागर)
https://youtu.be/5Vg_i4u0wy8
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो!
आस्तिक कुल में जन्म लेने से जब किन्हीं को कुछ समझ-बोध होता है, तब से उनको अपने घर के विश्वास के अनुकूल विश्वास होता है कि ईश्वर है; क्योंकि आस्तिक घरों में कोई-न-कोई शब्द, जो ईश्वर-संबंधी है, बोला जाता है।
यह सिलसिला चलता ही रहता है। वही बच्चा जिसने बचपन में अपने घर में ईश्वर होने का विश्वास पाया है, जवान और बूढ़ा होता है और यह विश्वास अपने संग लिए चल देता है।
संग के कारण इसमें अदल-बदल भी हो जाता है। ईश्वर नहीं माननेवाले का संग अधिक हो जाने से पहला विश्वास जाता रहता है।
जिन लोगों का विश्वास नहीं जाता है, उनसे आप युवा या वृद्ध किसी अवस्था में पूछिए कि ईश्वर क्या है, तो वे पूरा-पूरा कह नहीं सकते।
घर के सिखाए अनुकूल वे शिव या महादेव कोई ईश्वर-वाचक नाम कहते हैं।
किसी घर में कोई कहते हैं कि विष्णु भगवान हैं; और वे उस रूप का वर्णन करते हैं। कोई माता के रूप में देवी का वर्णन करते हैं। किन्हीं के घर का ईश्वर अमूर्त है।
वे ऐसा कहते हैं कि वह अकाल है, अमूर्त है; परन्तु बिल्कुल ठीक-ठीक बता देने में बहुत गम्भीरता है। कहनेवाले कहते हैं कि वह अनेक रूपों में है; लेकिन अनेक कहने पर भी वह एक है।
अनेक नाम रूपों में वह एक-ही-एक है।
ऐसा विशेष ज्ञान जाननेवाले लोग कहते हैं। वह शिव नहीं, विष्णु नहीं, अकाल अमूर्त नहीं - ऐसा नहीं कहते। वे कहते हैं, सब ठीक है। यह कहकर वे समझाते हैं कि अनेक नाम-रूप होने पर भी एक ही है वह। विष्णु एक रूप, शिव एक रूप और देवी एक रूप, ये अनेक रूप हैं। फिर भी वह एक है।
उस एक को समझाना कठिन हो जाता है। इसके लिए मिसाल यह है कि बाहर में शून्य है। यह विस्तृत आकाश (शून्य) सब घरों के बनने से पहले का है और इसके अंदर बहुत से घर बन गए हैं और बनते जाते हैं, फिर सब घरों में शून्य है। वस्तु बनने पर भी शून्य रह ही जाता है।
यदि घर से सभी वस्तुओं को निकाल लीजिए, तो फिर भी शून्य रह ही जाता है। जितने घर हैं और उन घरों के अतिरिक्त जंगल, पहाड़, चन्द्र, सूर्य, भूमण्डल जो कुछ हैं, सबके बनने के पहले से ही शून्य था। अगर शून्य नहीं हो, तो कोई वस्तु रख नहीं सकते।
और सब कुछ के बनने पर जंगल, पहाड़, चन्द्र, सूर्य में शून्य समझना कठिन होगा, लेकिन घर का शून्य समझने में कठिन नहीं होगा। घर बनने के पहले शून्य था। घर में शून्य है। सब वस्तुओं को घर से निकाल दो, फिर भी शून्य है। घर के शून्य को बाहर के शून्य से मेल है। वह टूटकर अलग नहीं हो गया है।
प्रत्येक घर का आकार अलग-अलग है। सब आकारों के शून्य को विचारिए तो घर और बाहर के शून्यों का एक ही प्रकार होता है। जैसे विविध आकार-प्रकार के घरों में आकाश एक ही है, उसी तरह शिव, विष्णु, शक्ति, गणेश आदि सबमें वह ईश्वर एक ही है। इसलिए कहते हैं कि इनमें भेद नहीं है।
सब आकारों को अलग कर दो, तब वह कैसा? तब वह आकार नहीं रखता।
आकार में रहने के कारण आकार-सदृश और आकार को हटा दो, तो आकार-रहित।
मूलस्वरूप उसका आकार-रहित है।
अभी जो पाठ हुआ –
निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा।।
ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान रखना चाहे तो यह ईश्वर है। आकाश का उदाहरण तो दिया, किंतु वह वस्तुतः आकाश के जैसा नहीं है।
इससे भी विलक्षण है। विलक्षणता क्या है? पहाड़, नदी, जंगल आदि सब कुछ आकाश के अन्दर हैं। यह आकाश स्थूल आकाश है। यह कितना बड़ा है? यह प्रत्यक्ष नहीं देख पाते कि कहाँ इसका अंत है। ज्ञान कहता है कि इसका अंत है। स्थूल आकाश, सूक्ष्म आकाश, कारण आकाश, महाकारण आकाश ईश्वर के अंदर कितने घुसे हुए हैं ठिकाना नहीं। वर्णित आकाश उस परमात्मा में कितने समाए हुए हैं, ठिकाना नहीं, फिर भी वह खाली रहता है।
इसलिए ‘नभ सत कोटि अमित अवकाशा' कहा।
आकाश स्वयं झीना है, किंतु वह कितना झीना है कि सभी उसमें समाए हुए हैं।
बुद्धि निर्णय करती है, किंतु पहचान नहीं सकती कि वस्तु रूप में वह क्या है। वस्तु रूप में संसार की वस्तुओं को कैसे जानते हैं? बोला जानेवाला, सुना जानेवाला पदार्थ शब्द है। प्रश्न हो कि शब्द क्या है, तो कहेंगे कान से जो पकड़ा जाय, वह शब्द है। जो आदमी जन्म से बहरा है, वह आँख से देख सकता है, किंतु बहरा रहने के कारण कुछ सुन नहीं सकता। उसको किसी तरह लिखने-पढ़ने के लिए सिखलाया जाय और उसको लिखकर दिया जाय कि कान से जो सुनते हो, वह शब्द है तो वह समझेगा कि कान से जो सुना जाता हो, वह शब्द है; किंतु हमारा कान खराब है, इसलिए हम नहीं सुन सकते हैं।
वह समझ जाएगा कि श्रवण-शक्ति से जो पकड़ा जाय, वह शब्द है। जो नेत्र से ग्रहण हो, वह रूप है। इस तरीके से भी वस्तु को जाना जाता है।
अंधे को यदि समझाया जाय कि तुम नहीं देख सकते हो; किंतु मैं देखता हूँ। आँख से जो पकड़ा जाय, वह रूप है। इसी तरह वस्तु रूप में वह परमात्मा क्या है? अनेक आकाश जिसके अन्दर समा जाते हैं, वह आकाश है, यदि ऐसा कहा जाय तो भी समझ में ठीक-ठीक नहीं आता। पहले तो अपने को पहचानो कि तुम कौन हो? प्रत्येक इन्द्रिय का अलग-अलग विषय है।
तुम इस शरीर में रहते हो, तुम्हारा निज काम क्या है? अभी तुम इन्द्रियों में रहते हो। इन्द्रियों से अलग होकर तुम्हारा क्या काम है? अपने को इन्द्रियों के द्वारा नहीं पहचानते हो। अपने को अपने द्वारा और अपने ही द्वारा परमात्मा को प्राप्त करोगे।
जो तुम्हारा निज विषय है, वह परमात्मा है। जैसे आँख का विषय कान से नहीं जाना जाता, आँख से ही जाना जाता है, उसी प्रकार आत्मा जीवात्मा से ही जाना जाता है, दूसरे से नहीं। ईश्वर का ज्ञान सत्संग से होता है। जो केवल निज आत्मा से जाना जाता है, वही ईश्वर है।
आपको आँख से रूप देखने में आता है, कान से शब्द सुनने में आता है, किन्तु अपने से कुछ करने नहीं आता। आप देह और इन्द्रियों से फूटकर जान सकेंगे कि आप अपने से क्या कर सकते हैं। जाग्रतावस्था में आप काम करते हैं। स्वप्न से यदि आप जगकर देखें तो ज्ञात होगा कि यह शरीर बिछौने पर पड़ा था और मानसिक कर्म होता था। जिस प्रकार शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर बौद्धिक कर्म होता है, उसी तरह शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर परमात्म-ज्ञान होता है।
वह ईश्वर एक है। जबतक उसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, परम कल्याण नहीं होता। इसलिए संतों ने उसको प्राप्त करने के लिए कहा। वह अंतर्मुख होने से जाना जाता है। ?
शरीर से संबंधित रहने से उसको नहीं जान सकते।
अंतर-अंतर अभ्यास करना होगा। अभ्यास करते-करते जड़-चेतन अलग-अलग होंगे। तब उसकी पहचान होगी। श्रवण-ज्ञान और समझ-ज्ञान से उसका प्रत्यक्ष-ज्ञान नहीं होता। इसके लिए बहुत पवित्र बनना होगा।
जो संसार के प्रलोभनों में नहीं उलझता, जो पापों से बचा रहता है, ध्यानाभ्यास करता है, उसको परमात्मा प्रत्यक्ष होता है।
लोग कहते हैं कि अयोग्य को क्या कहना है।
मैं कहता हूँ कि आप उसे योग्य बना दीजिए। केवल रामनाम, सतनाम आदि कहता है, तो यह अपूर्ण ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान के लिए उसे समझाओ, सिखाओ।
https://youtu.be/166mzpVO_J4
यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर जोतरामराय में दिनांक 18.2.1955 ईo को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
श्री सद्गुरु महाराज की जय
और भी article पढ़ने के लिए
लिंक पर क्लिक करें और पढ़ें
👇👇👇👇👇👇👇👇
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
kumartarunyadav673@gmail.com