।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🙏
केवल विद्वता से संतवाणी नहीं समझ सकते
(साभार – सत्संग-सुधा सागर)
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो!
मनुष्य अपने परम कल्याण के वास्ते भजन करें।
भजन ऐसा करें कि ईश्वर को प्राप्त कर लें।
ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ऐसा विश्वास मत करो कि अभी कुछ जप ध्यान कर लो, मरने पर प्रभु मिलेंगे।
भजन इस जन्म में पूरा नहीं होगा, तो दूसरे जीवन में या अनेक जन्मों के बाद किसी जीवन-काल में ही परमात्मा मिलते हैं।
नाम-भजन सबसे श्रेष्ठ है।
नाम-भजन दो तरह से होता है - जप और ध्यान।
वर्णात्मक नाम का जप और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान करो।
इसी ध्वन्यात्मक नाम के ध्यान को नाम-भजन और सुरत-शब्द-योग भी कहते हैं। इसको अंतर्मुख होकर करना पड़ेगा। यह शब्द मनुष्य का बनाया हुआ नहीं है। इसको कोई मनुष्य मुँह से उच्चरित करके किसी से कह भी नहीं सकता है।
इसकी युक्ति जानो और ध्यान करो।
ध्यान करने से आप-ही-आप यह नाद सुन पड़ेगा। संतों की वाणी में जो पाँच शब्द आते हैं, वे ये हैं कि परमात्मा से सृष्टि के लिए जो मौज होती है, उससे जो धारा प्रवाहित होती है, उससे पाँच मण्डल बनते हैं।
उन्हीं पाँच मण्डलों के केन्द्रीय शब्दों को पाँच शब्द कहते हैं।
कबीर साहब ने कहा है -
*पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग।
सो मंदिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग।।
और गुरु नानकदेवजी ने कहा है -
पंच सबदु धुनिकार धुन तहँ बाजे सबदु निसानु।
जो अपने अंदर गहरा ध्यान करता है, उसको यह नाद मिलता है और उस नाद को गहण कर परमात्मा को पाता है। इससे सरल और सुलभ कोई मार्ग नहीं है।
बाबा साहब ने यह नहीं कहा कि मैं एक पुस्तक बना देता हूँ, इसी को पढ़ो।
बल्कि उन्होंने कहा कि दुनिया की सारी किताबों को पढ़ो, जो संतों की बनाई हुई हैं।
किसी एक कोटरी में अपने को बन्द करके मत रखो। सभी कोठरियाँ तुम्हारी हैं।
'गुरुग्रंथ साहब’ में कितने संतों के वचन हैं। यह उदारता है।
सभी संतों के ग्रंथों को पढ़ो।
नानकपंथ के दसवें गुरु-गुरु गोविन्द सिंहजी ने कहा है -
बाजे परम तार तत हरि को, उपजै राग रसारं।
यह नादानुसंधान है।
नादानुसंधान सभी संतों के ग्रंथों में मिलता है।
आजकल बड़े-बड़े विद्वान लोग संतों की वाणियों की खोज करते हैं और उससे वे बड़े-बड़े पुरस्कारों को प्राप्त करते हैं; किंतु केवल विद्वता से कोई संतवाणी को नहीं समझ सकते हैं
और ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि विद्या की आवश्यकता नहीं। बिना विद्या के शब्द का अर्थ नहीं जान सकते। जो बहुत पढ़े हैं, रायचन्द, प्रेमचन्द पास करते हैं।
उनके पास शब्दों का भण्डार हो जाता है।
अगर वे साधन की क्रिया को जानते हैं, तो ठीक-ठीक अर्थ कर सकते हैं, समझ सकते हैं और समझा सकते हैं।
यदि साधना की क्रिया नहीं जानते हैं, केवल पढ़-लिखकर विद्वान हुए हैं, तो संतवाणी का ठीक-ठीक अर्थ नहीं कर सकते हैं।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि तासों करो निहोर।
संत कबीर साहब की इस पंक्ति का एक विद्वान ने अर्थ किया था कि कबीर साहब मुसलमान खानदान में पाले पोसे गए थे, इसलिए पश्चिम कहकर उन्होंने मक्का का संकेत किया है।
विद्वानों को संतों की साधना जाननी चाहिए। साथ ही उसका अभ्यास करना चाहिए।
अभ्यास के साथ-साथ सदाचारी भी बनना होगा। तभी संतवाणी को ठीक-ठीक जान सकेंगे।
आजकल विद्वानों में एक भ्रामक विचार फ़ैल गया है कि संतों की साधना में कुछ करना नहीं पड़ता है। आँख भी बन्द नहीं करनी पड़ती।
वे कबीर साहब की
ये पक्तियाँ कहते हैं -
आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।।
पूरा इस प्रकार है -
साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली।। जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा। जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावँ पियौं सो पूजा। गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।। शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी।
ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी।।
कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई।
दुख सुख से कोइ परे परम पद, तेहि पद रहा समाई।।
संत कबीर साहब ने कहा –
‘खाँव पिऊँ सो पूजा।‘
श्रीरामकृष्ण परमहंस भी पीछे चलकर ऐसे ही हो गए थे कि कोई जो कुछ भी काली माई को चढ़ाते थे, वे अपने मुँह में ले लेते थे और खा जाते थे – ‘कालिकाय्ये नम:’ कहकर खा जाते थे।
केवल कहने से नहीं होगा। इसकी योग्यता होनी चाहिए।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी को इसकी योग्यता हो गयी थी।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
इस कसौटी पर कसकर देख लीजिए कि उनमें द्वैत भाव है कि नहीं।
आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।।
ऐसी स्थिति उनमें आ गई कि नहीं?
शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी।
ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी।।
आत्मस्वरूप के दर्शन में ही 'आँखि न मूँदौं कान न रूधौं’ होता है। साधनारम्भ में नहीं होता है।
साधना के लिए तो कबीर साहब ने कहा है –
बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।
गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै, गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं।
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं, समुझि विचारि ले मने माहिं।।
राह बारीक गुरुदेव तें पाइए, जनम अनेक की अटक खोलै।
कहे कबीर गुरुदेव पूरन मिलै, जीव और सीव तब एक तोलै।।
यह समाधि में होता है।
बाबा नानक ने कहा -
तीनों बंद लगाय कर, सुन अनहद टंकोर।
नानक शून्य समाधि में, नहिं साँझ नहिं भोर।।
ये तीन बंद क्या है?
कबीर साहब ने कहा –
आँख कान मुख बंद कराओ, अनहद झींगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।
संतों के पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान बिना साधु-संतों का संग किए नहीं होता।
पूर्व का अर्थ होता है - जो पहले हो। इसलिए
जो पहले हो, वह पूर्व है। इसका उलटा जो हो वह है पश्चिम।
परम सहायक को दाहिना कहते हैं।
गोस्वामीजी ने लिखा है – ‘जे बिनु काज दाहिने बायें।‘ जो उपकारक के विरुद्ध हो जाय, वह दाहिना नहीं है।
दाहिना अर्थात् दक्षिण, जो बड़ा मददगार होता है। उत्तर यानी दक्षिण दिशा का उलटा। उत्तर सबसे परे होता है।
नक्शे का उत्तर ऊपर होता है। इसलिए 'प्राणसंगली' के पहले भाग में नक्शा है, उसमें बताया है कि *पूर्व अंधकार को कहते हैं। प्रकाश को पश्चिम, शब्द को दक्षिण और निःशब्द को उत्तर कहते हैं।
संतों के पारिभाषिक शब्दों के ये अर्थ हैं। और विद्वानों को सूझ गया पश्चिम का अर्थ मक्का।
विद्वता भी चाहिए और अच्छे साधु-संत का संग भी। ज्ञान-वृद्धि के लिए एकाग्रता की जरूरत है। एकाग्रता में ज्ञान-वृद्धि होती है।
ध्यान में एकाग्रता होती है।
एकाग्रता में सिमटाव होता है। सिमटाव होने पर ऊर्ध्वगति होती है। इससे परमात्मा तक पहुँच सकते हो। एकाग्रता जैसे हो, वैसे करो।
मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में तीन प्रकार से सिमटाव करना बतलाया है - अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा से। आँख बन्दकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है।
उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए। जिससे जो निभता है, करता है। करने दो।
ध्यान में स्थूल, सूक्ष्म - दोनों भेदों को जानिए।
सदाचारी बनकर रहिए और ध्यान कीजिए।
यह प्रवचन भागलपुर जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर एकचारी में दिनांक 3.3.1955 ई० को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
अंत में कमेन्ट्स में
श्री सद्गुरु महाराज की जय
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