आदरणीय सत्संगी बंधु एवं प्रभु प्रेमियों
आप लोगों के लिए सदगुरु महाराज का
अमृत वचन नारद जी को वैकुंठ में मोह हो गया था
उसी पर बहुत ही अद्भुत दृष्टांत के साथ
सदगुरु महाराज ने समझाएं हैं
उसे पूरा विस्तार से पढ़ें
और जीवन में उतारने का प्रयास करें
।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
----:नारदजी को बैकुण्ठ में मोह:-------
(साभार – सत्संग-सुधा सागर)
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपा सिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो!
महात्मा बुद्ध से लेकर अब तक इस कलि काल में बहुत से साधु-संत हुए हैं।
उन लोगों ने जो कुछ शिक्षा दी है, लोगों ने उसे ग्रंथों में रख दिया है।
हाल के संतों ने अपने से लिख भी दिया है। संत दरिया साहब, भगवान बुद्ध, महावीर तीर्थंकर आदि ने अपने से लिखा नहीं, केवल कह दिया।
बुद्ध, महावीर के बाद तुलसी साहब भी कुछ पढ़े-लखे थे, किंतु उन्होंने लिखा नहीं।
लोगों ने वचनों को सुनकर ग्रंथाकार किया।
इसी तरह प्राचीन काल में ऋषि-मुनि हुए। उन्होंने भी लिखा नहीं, कहा। लोगों ने उसका संग्रह किया, वही उपनिषद् है।
उपनिषद् वेद का ज्ञान मानी जाती है।
उसमें कर्म और कर्मफल का वर्णन किया गया है, कर्म की विधियों का वर्णन किया गया है, जिससे इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति लिखी है।
उपासना काण्ड में भी दोनों लोकों के सुखों से हटने के लिए कहा और कहा कि ये दोनों बन्धन हैं।
दोनों में से किसी में रहो तो आवागमन में पड़े रहोगे। *दोनों के सुख क्षणभंगुर हैं, तृप्तिदायक नहीं हैं।
जिसमें पूर्ण सुख-शान्ति मिलेगी, वह विषय सुख नहीं है अर्थात् इन्द्रियों से पाने योग्य नहीं है।
अर्थात् इन्द्रियों और विषयों के संयोग से जो सुख होता है, वह तृप्तिदायक नहीं।
संतों ने कहा कि इहलोक और परलोक दोनों का सुख अनित्य है।
इससे परे का सुख नित्यानंद है।
यह आत्मा से ग्रहण होने योग्य है। नित्यानंद वह है, जो सदा रह जाय। अनित्यानंद वह है, जो कुछ काल रहे, फिर नहीं रहे।
इहलोक और परलोक - दोनों से चित्त हटा रहे,
यही उपनिषद् और संतवाणियों में है –
एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
यह चौपाई भी यही बात कहती है।
'उस नित्यानंद के लिए कहाँ ठहराव होगा?’
यदि यह पूछा जाय तो उत्तर होगा - किसी देश में नहीं, देश-काल के परे। किसी आधार पर आधेय बनकर रहना किसी लोक-लोकांतर में रहना है।
आधेय बनकर रहना नित्यानन्द नहीं है।
वह अपना आधार आप है।
शरीरों से अलग हटा हुआ है, केवल आत्मस्वरूप में रहता है। उसके रहने के लिए स्थान की आवश्यकता नहीं है। वहाँ स्थान नहीं है तो काल भी नहीं।
वह देश-काल से अतीत पद है।
उसमें आरूढ़ होने के लिए - पहुँचने के लिए संतों ने उपदेश दिया है। संतवाणी का निचोड़ यह है। इसके लिए मनुष्य पहले अपने को जाने।
लोग ऐसा ख्याल करते हैं कि जैसे धरती पर रहना है, वैसे ही अन्य लोकों में जाकर सुख से रहना होगा। परन्तु इससे विशेष बात वह है, जिसको मैने आपलोगों से कहा।
चाहिए कि इसके लिए इच्छा उत्पन्न करे और इसको सोचे।
मनुष्य अपने को नहीं जानता है, अपने शरीर को अपने तईं कहता है, तो गलत कहता है। शरीर मर जाता है, यह प्रत्यक्ष देखता है। फिर ख्याल होता है कि शरीर में रहनेवाला कहीं चला गया है।
इसलिए वैदिक धर्म में हमलोगों के यहाँ जो पुराण में प्रचार है, उससे श्राद्ध-क्रिया करते हैं। शरीर मर गया, शरीर में रहनेवाला कहीं चला गया, उसकी शान्ति के लिए, सुख के लिए श्राद्ध-क्रिया करते हैं। *श्राद्ध क्रिया यह ज्ञान देती है कि शरीर में रहनेवाला कोई था, वह चला गया।
उसके लिए श्राद्ध-क्रिया होती है। इस श्राद्ध-क्रिया से शरीर और शरीरी का ज्ञान होता है। यह पूरा ज्ञान तो नहीं है; किंतु आरम्भ का ज्ञान अवश्य है। जिस शरीर को लोग जला आते हैं, उसमें भी शरीर है।
फिर उसमें भी शरीर है। एवम् प्रकार से चार जड़-शरीर हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण। मुंशी माखनलाल चले गए या और कोई कितने गए; किंतु क्या केवल आत्मा गयी? नहीं। स्थूल शरीर छोड़कर गयी और सूक्ष्म शरीर को साथ लेकर चली गयी।
ऊपर का स्थूल शरीर छूट गया तो ऊपर में सूक्ष्म शरीर रहा। यह शरीर का पूरा ज्ञान है।
इन सब शरीरों के बाद एक शरीर और है, जिसको ‘चिदानन्दमय देह तुम्हारी' कहते हैं। यह चेतन शरीर है। चेतन से भी परे स्वरूप आत्मा का है।
जैसे स्थूल शरीर में होने पर स्थूल जगत में रहना होता है, इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर के लिए सूक्ष्म जगत होना चाहिए। इसी सूक्ष्म जगत में स्वर्ग-वैकुण्ठादि हैं।
कितने लोग स्वर्गादि को नहीं मानते हैं। उस सूक्ष्म लोक और स्वर्गादि में यहाँ के सुख से विशेष सुख और विशेष दिनों तक रहना होता है।
किंतु न यहाँ दुःख छोड़ता है और न वहाँ दुःख छोड़ता है। माया-मोह न यहाँ छोड़ता है और न वहाँ।
नारदजी वैकुण्ठ गए।
वहाँ उनका मोह और बढ़ गया। गोलोक से श्रीदामाजी कंस के पास राक्षस बनकर आए। वहाँ विषय-सुख है और माया का पसार है।
माया में जो होना चाहिए, सो होता है। इसलिए
'स्वर्गठ स्वल्प अंत दुखदाई' - भगवान श्रीराम ने कहा। संतों ने ज्ञान, योग और भक्ति; तीनों को मिलाकर चलने को कहा। घी, मीठा और अन्न तीनों मिलाकर सुन्दर मिठाई होती है।
इसी तरह ज्ञान, योग ओर भक्ति;
तीनों को मिलाकर संतों ने उपदेश दिया है।
यह प्रवचन भागलपुर जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर एकचारी में दिनांक 2.3.1955 ई० को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
श्री सद्गुरु महाराज की जय
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गुरु महाराज के
नाम 'जयगुरु' जयघोष करें
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