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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

मन से स्वतंत्र कैसे होंगे -संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

मैं तरुण कुमार आप सभी के लिए संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के प्रवचन को प्रस्तुत कर रहे हैं। एक बार जरूर पढ़ें और अपने जीवन में सुख शांति अनुभूति करेंगे। 🙏🕉️जय गुरूदेव 🕉️🙏 मन से स्वतन्त्र कैसे होंगे?-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज धर्मानुरागिनी प्यारी जनता! ईश्वर की भक्ति को समझ सकें, इसके लिए आपको याद दिलाता हूँ। ईश्वर की भक्ति के समझने में, पहले ईश्वर-स्वरूप का निर्णय होना चाहिए। ईश्वर मायातीत होने के कारण इन्द्रिगम्य नहीं हैं। इसलिए वे प्रत्यक्ष नहीं हैं। भक्ति कहते हैं-सेवा को। जो प्रत्यक्ष नहीं है, उनकी सेवा हम कैसे करें? उनके प्रत्यक्ष रूप का भजन या भक्ति संतों के संग भी हैं। यह एक तरह की सेवा है। जहाँ ईश्वर संबंधी कथाएँ हां, सुनो; यह भी एक तरह की भक्ति है। इन्द्रियों को काबू में रखने के लिए, बहुत से कर्मों से अपने को बचाए रखो। पंच पापों से बचे रहकर ही सज्जनों के धर्मानुकूल बर्ता जा सकता है। इन्द्रियों के रोकने का स्वाभाववाला बनने के लिए केवल विचार से ही नहीं होता है। इन्द्रियों के संग, मन की धारें लगी रहतीं हैं। इन धारों को इन्द्रिय के स्थानों से समेट कर एक केन्द्र पर रखो, तो दमशीलता होगी। दमशीलता के अंदर मन का रूप बहिर्मुख से अंतर्मुख हो जाता है। यह ऊर्ध्वगमन ही ईश्वर की भक्ति होती है। जैसे जगन्नाथजी जानेवाले का चलना जगन्नाथजी की भक्ति है, उसी प्रकार ईश्वर की ओर चलना भी ईश्वर की भक्ति है। जो लोग ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन के वास्ते अंदर-अंदर चलते हैं, उनका वह चलना ईश्वर-भक्ति के अंदर दाखिल है। किसी भी मन्दिर में मूर्ति का दर्शन करके प्रत्यक्ष दर्शन की लालसा रह जाती है। दर्शन प्रत्यक्ष होना चाहिए। अन्तर्मार्गी को प्रत्यक्ष दर्शन होता है। बाहर घूमते हो इन्द्रियों के संगे-संग और अंदर घूमते हो इन्द्रिय और शरीर का संग छोड़कर। अंदर चलते-चलते अपने का पता लग जाएगा। उसी को ईश्वर का भी पता लगेगा। चेतन आत्मा के ऊपर से जब सब आवरण उतर जाते हैं, तो आत्मदृष्टि होती है। यह आत्मदृष्टि किसी के देने से नहीं होती। अन्तरंग साधना द्वारा ईश्वर की ओर चलना, ईश्वर की भक्ति है। यही परा भक्ति है। जीवात्मा शरीरों को छोड़ते-छोड़ते परमात्मा में अपने आप जा मिलती है। दमशील होने के साथ- साथ शमशील भी होना चाहिए। ‘दम’ के बिना ‘शम’ नहीं होता। ‘शम’ का साधन पूर्ण सिमटाव में पहले विन्दु पर अवस्थित रहकर वहाँ जो शब्द होता है, उसको ग्रहण करके होता है। जहाँ कम्पन है, वहीं शब्द है। जहाँ कम्पन नहीं, वहाँ रचना नहीं। कम्पन में शब्द अनिवार्य रूप से होता है। सभी शब्द सुन नहीं पाते, इसलिए कहते हैं कि कम्पन में शब्द नहीं होता। कम-से-कम 20 कम्पनांक के शब्द को तथा ज्यादे-से-ज्यादे 20 हजार वा 30 हजार कम्पनांक के शब्द सुन सकते हैं। उससे कम या अधिक कम्पनांक के शब्द कों सुन नहीं सकते। चाहे स्थूल जगत हो या सूक्ष्म जगत, बिना कम्प के रचना बन नहीं सकती। जहाँ रचना है, वहाँ शब्द है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक आता है। अभ्यासी एक विन्दु पर, उस सूक्ष्म मण्डल के केन्द्रीय शब्द को सुनता है। एकविन्दुता के कारण सूक्ष्म मण्डल में प्रवेश हुआ, इसलिए सूक्ष्म मण्डल के केन्द्र का शब्द पकड़ा जाता है। संतों ने पुकारकर कहा है-‘जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै।। (कबीर साहब) यही ईश्वर का प्रतीक है। ईश्वर तक पहुँचने का दृश्यमान र्चिं विन्दु है। बाहर में प्रतीक बनाते हैं, यह स्वकृत है। ईश्वरकृत र्चिं जैसा मनुष्यकृत र्चिं नहीं हो सकता। चलना रास्ते पर होता है। रास्ते का ओर-छोर होता है। इसका आरंभ एकविन्दुता से होता है और अंत परमात्मा में होता है। यह ज्योति मार्ग और शब्दमार्ग सबके अंदर-अंदर मौजूद है। अध्यात्म- वैज्ञानिक अपने शरीररूपी धरती में खोजकर ज्योति और शब्द पाते हैं। नहीं करनेवाला अगर कहे कि ‘नहीं है’ तो उसका यह कहना गलत है। प्रत्याहार में जो हैरानी होती है, वह साधन करते-करते मिट जाती है। शमशीलता शब्द-साधना से होती है। परा भक्ति को जो नहीं जानते हैं, वे मोटी भक्ति को पकड़े रहते हैं। पूजा-पाठ में जो एकाग्रता आती है, उससे अधिक एकविन्दुता में आती है। स्थूल भक्ति, भक्ति का पैर है और सूक्ष्म भक्ति, भक्ति का शिर है। केवल पैर ही पैर नहीं जानो, शिर को भी जानो। पंच पापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से बचे रहो। संसार में दुष्टकर्म से जनता में कष्ट होता है। हमलोगों को सुराज्य प्राप्त है। इसके लिए कितने गोली के शिकार हुए और फाँसी पर चढ़े। परन्तु सुखी हम अपने को नहीं पाते हैं। हमें पापों से रहित होना चाहिए। अपने को पापों से छुड़ा ले, तो दुष्ट कर्म बिल्कुल मिट जाएँगे और स्वराज्य में सुराज हो जाएगा। ईश्वर की भक्ति करनेवाले पापों से छूटते हैं। सबको चाहिए कि अपने को भक्त बना लें। किसी तरह धन कमा लो, इसमें पापों को नहीं छोड़ते हैं। परन्तु ईश्वर की भक्ति में पंच पापों को छोड़ना आवश्यक है। अपने तईं अपने को ईश्वर तक पहुँचाना ही ईश्वर की भक्ति है। हमलोग तन से स्वतंत्र हो गए हैं, परन्तु मन से नहीं। *************** *यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रूपौली में दिनांक 27. 12. 1965 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।* *************** इस प्रवचन को पढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत साधुवाद एवं कमेंट बॉक्स में जयगुरु जरूर लिखें और शेयर करें 🙏

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