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सोमवार, 6 जनवरी 2025

दर्शन पाने के लिए दूर जाना है -संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

मैं तरुण कुमार संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का प्रवचन को लेकर आया हूं। पूरा देखें और उसके अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें। इसलिए पूरा पढ़ें 🙏🕉️ जय गुरूदेव 🕉️🙏 दर्शन पाने के लिए बहुत दूर जाना है-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज प्यारे लोगो ! मैं चाहता हूँ कि आपको ईश्वर-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो और अपने तईं (स्वयं) का यथार्थ ज्ञान हो। चूँकि सबके सब सुख को बहुत प्यार करते हैं, सुख के लिए ही तमाम जीवन परिश्रम करते हैं, इसलिए जो सुख पूर्ण रूप से आपको संतुष्ट कर सके, उसको आप प्राप्त करें। ऐसा नहीं कि आप कुछ भी सुख नहीं पाते। सुख पाते हैं, लेकिन संतुष्ट नहीं होते। ऐश्वर्य वाले, कम ऐश्वर्य वाले, जिनको जैसा सुख मिलता है, वे उससे संतुष्ट नहीं होते। वह सुख भी सदा नहीं रहता। सुख-भोगते हुए भी संतुष्ट नहीं होते, फिर जो सुख भागता रहता है, उससे लोग कैसे संतुष्ट होंगे? आप अपना ज्ञान करें तो आप मन नहीं हैं, कोई इन्द्रिय नहीं हैं, इनसे कुछ विलक्षण हैं। अपने स्वरूप को मन-इन्द्रिय के परे जानकर आपको सोचना चाहिए कि मन-इन्द्रिय के ऊपर जो अपना स्वरूप है, उसका सुख कैसा है? संतों के ज्ञान के मुताबिक अपने तईं का वह सुख नहीं है, जो मन- इन्द्रियों का सुख है। मन-इन्द्रिय के सुख के लिए विषय चाहिए, लेकिन अपने तईं के सुख के लिए मायिक विषय कुछ नहीं चाहिए। मन-इन्द्रिय के संग में रहकर हम अपने को मन-इन्द्रिय नहीं जानें, ऐसा ज्ञान होना चाहिए। इसी ज्ञान में अपने का और पारमार्थिक सत्ता का दर्शन वा ज्ञान होगा। इसी का ठीक-ठीक यत्न आपको बताया जाय, सत्संग का यही प्रयोजन है। इसको जानकर जो उसपर लगते हैं, वे बड़े संयमी होते हैं, वे दुष्टकर्म नहीं करते। संसार से दुष्टकर्म बिल्कुल नष्ट होना तो असम्भव है, लेकिन कम हो जाएगा। दुष्टकर्म कम हो जाएँ, तो संसार में शान्ति आ जाएगी। दुष्टकर्म से बचाव होने पर संसार में शान्ति विराजेगी। जिस राष्ट्र के शासन में शान्ति नहीं है, दुष्टकर्म की अधिकता है, उस राज्य में सुराज नहीं है। हमलोगों को स्वराज्य प्राप्त है, इसके साथ सुराज भी चाहिए। यह तभी होगा, जब हम दुष्टकर्मों को कम कर देंगे वा नहीं करेंगे। हमारा आधार क्या होना चाहिए? वह आधार वही है, जहाँ दुष्टकर्मों की पहुँच नहीं है। वह क्या है? दो बातों में से एक बात कह सकते हैं। एक कहने से दूसरे का भी ज्ञान होता है। वह है मूल सत्ता-परमात्म-तत्त्व वा अपनी आत्मा। यह कैसी बात है? कितना दुःख है कि जो हम सब लोग नहीं हैं, उसी को पहचानते हैं और मैं हूँ, हम हैं-कुप्पाघाट कहते हैं, किन्तु अपने तईं जो हम हैं, इसका ज्ञान नहीं होता है। परोक्ष ज्ञान भी तो नहीं होता, अपरोक्ष ज्ञान कैसे होगा? प्रत्यक्ष प्राप्ति का ज्ञान अपरोक्ष ज्ञान है। यह केवल कहने से वा सुनने से नहीं होगा। धन धन कहत धनी जो होते निर्धन रहत न कोई । -कबीर साहब वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण, भव पार न पावइ कोई । निशि गृह मध्य दीप की बातन्हि तम निवृत्त नहिं होई ।। -गोस्वामी तुलसीदासजी तेल तुल पावक पुट भरि धरि बनै न दिया प्रकाशत । कहत बनाइ दीप की बातें, कैसे हो तम नाशत ।। -सूरदासजी सत्यस्वरूप-निजस्वरूप वा आत्मस्वरूप का अपरोक्ष और परोक्ष दोनों ज्ञान होना चाहिए। जिसको पहले परोक्ष ज्ञान होगा, वही अपरोक्ष ज्ञान को पा सकता है। यह केवल विचार-ही-विचार से नहीं होगा। ईश्वर की भक्ति करो। पहले परोक्ष ज्ञान होगा, बाद में अपरोक्ष ज्ञान हो जाएगा। योग शास्त्र कहता है कि योग का पहुँचाना समाधि तक है। कबीर साहब ने कहा है- लम्बा मारग दूरि घर, विकट पन्थ बहु मार । कहो सन्तौ क्यूँ पाइए, दूर्लभ हरि दीदार ।। दर्शन पाने के लिए बहुत दूर जाना है। उस रास्ते में चलते हुए बहुत विघ्न बाधा है। वहाँ तक कैसे पहुँचोगे? उत्तर दिया- अनहद बाजै निझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान । आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान ।। इसीलिए भगवान बुद्ध ने भी कहा कि- भिक्षुओ, ध्यान करो। पहले प्रत्याहार, उसके बाद धारणा, धारणा के बाद ध्यान और अन्त में समाधि होती है। यह केवल संन्यासी के लिए ही है, ऐसा जानना गलत है। गृहत्यागी और गृहस्थ दोनों ही संयमी होकर रहने से लाभ कर सकते हैं। स्वयं भगवान बुद्ध को इसके लिए बहुत जन्म लेने पड़े। जब उन्होंने बुद्धत्व को लाभ किया, यह उनका आखिरी जन्म था। शरीर और संसार को देखो। शरीर पिण्ड और संसार ब्रह्माण्ड है। तत्त्वों की जितनी संख्या से ब्रह्माण्ड की बनावट है, शरीर भी उतने ही तत्त्वों से बना है। संसार में जितने तल हैं, शरीर के भी उतने ही तल हैं। शरीर के जिस तल पर रहो, संसार के भी उसी तल पर रहोगे। शरीर के सब आवरणों को पार करो तो संसार के सब आवरणों को पार करोगे। यही ब्रह्मज्ञान है। यहीं पर पहुँच कर ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ होता है। हम इन सब बातों को जानें और साधन-भजन करें। शरीर के जीवन का अन्त है, लेकिन निज आत्मस्वरूप का विनाश नहीं होता। आत्मा का जीवन बहुत लम्बा है। शरीर के ज्ञान से तबतक नहीं छूटेगा, जबतक आत्मज्ञान नहीं होगा। जैसे स्वप्न का दुःख-सुख मिथ्या है, सांसारिक दुःख-सुख भी वैसा ही है। जगना ऐसा होगा कि यह संसार स्वप्न मालूम होगा। इसीलिए मायामिथ्यात्व वाद का ज्ञान संसार में है। मायामिथ्यात्व वाद का ज्ञान तबतक नहीं छूटता, जबतक हम मोह में सोए रहेंगे-तीन अवस्थाओं में रहेंगे। चौथी अवस्था में जाने पर यह संसार स्वप्न होगा। थोड़ा करो, तब भी बड़ा लाभ प्राप्त होगा। थोड़ा करो तो थोड़ा- थोड़ा लाभ होता जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। यह ज्ञान संसार में मनुष्य को गिरने नहीं देता। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है; क्योंकि हे तात! कल्याणमार्ग में जानेवाले की कभी दुर्गति होती ही नहीं। पुण्यशाली लोग जिस स्थान को पाते हैं, उसको पाकर वहाँ बहुत समय तक रहने पर योगभ्रष्ट मनुष्य पवित्र और श्रीमान् के घर जन्म लेता है या ज्ञानवान योगी के ही कुल में वह जन्म लेता है। जगत में ऐसा जन्म अवश्य बहुत दुर्लभ है। हे कुरुनन्दन! वहाँ उसे पूर्व जन्म के बुद्धि- संस्कार मिलते हैं और वहाँ से वह मोक्ष के लिए आगे बढ़ता है। उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश्य योग की ओर खिंचता है। योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म को पार कर जाता है। लगन से प्रयत्न करता हुआ योगी पाप से छूटकर अनेक जन्मों से विशुद्ध होकर परमगति को पाता है। भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत । ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।। भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़ै जो चोल । कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।। -कबीर साहब रविदासजी में साधन-भजन का उतना ही बल था, जितना गोस्वामी तुलसीदासजी में। उच्च वर्ण के हों वा नीच वर्ण के, दोनों ने साधन किया, लेकिन दोनों पहुँचे वहाँ एक ही स्थान में। स्वरूप में कोई भेद नहीं। हरि की भक्ति करै जो कोई । सूर नीच सू ऊँच सो होई ।। -सूरदासजी ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। उस तक पहुँचने का रास्ता चाहिए। रास्ता पर चलने का संयम चाहिए। औषधि सेवन करने से रोग कम हो जाता है। असंयमित होने से रोग बढ़ता है। संयम में जोर दे दो तो भजन में बढ़ोगे। भजन में जोर देने से संयम बढ़ेगा। जिभ्या का स्वाद तृष्णावर्द्धक और असन्तुष्ट रखनेवाला है। अपने आप में देखो तो बड़ा विचित्र है। जाग्रत से स्वप्न में जाने में चैन मिलता है। वहाँ संसार का कुछ भी नहीं है। यह थोड़ा सा नमूना है कि भीतर प्रवेश करने में चैन मिलता है। स्वप्न में आप मनोमय जगत में रहते हैं। जगने पर फिर इस संसार को देखते हैं। स्वप्न में मनोमय राज्य में-मनोमय भोग में थोड़ा-सा सुख पाते हैं। यह बहुत नजदीक की बात है। इतना अपने अन्दर में धँसो कि अपने की पहचान हो जाय। स्वप्न में अपने जाग्रत के सुख-दुःख का कुछ ज्ञान नहीं रहता। सुषुप्ति में तो और क्या रहेगा? सुषुप्ति अवस्था में ठहराव कम होता है, फिर भी अचेतन अवस्था वहाँ है। जाग्रत, स्वप्न वा सुषुप्ति; किसी में भी सुख नहीं है। जबतक निदिध्यासन करते हुए सफल रहो, तबतक चौथी अवस्था में रहोगे। एक तो अभ्यास द्वारा पकड़ना चाहता है और दूसरी बात है कि वह स्वयं पकड़ा जाता है। लम्बा मार्ग यह है कि तीनों अवस्थाओं को पार करो। जाग्रत का संसार बहुत दूर तक है। इसमें भी ऊँचे-नीचे तल हैं। इसी तरह चौथी अवस्था दूर तक है और ऊँचा-नीचा तल है। इसका अभ्यास संन्यासी करे, गृहस्थ नहीं, बहुत गलत बात है। हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। गीता में, महाभारत में, बौद्ध ग्रन्थों में हमारे लिए ‘आर्य’ शब्द छोड़कर दूसरा नहीं आया है। हाल में तुलसीदासजी हुए, इनकी रचना में ‘आर्य’ के सिवा दूसरा शब्द नहीं है। ‘आर्य’ कहते हैं-बुद्धिमान को। हमको बुद्धिमान बनना चाहिए। ‘बुद्धि’ वह हो, जिसमें आत्मज्ञान हो। *************** *यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 11. 4. 1966 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
*************** पूरा पढ़ने के आपका सहृदय आभार और बहुत बहुत साधुवाद।

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