के बारे में बहुत ही सरल सरल शब्दों में अपने भक्तों
के पास समझाएं उसी का एक अंश आप लोगों
के सामने प्रस्तुत है जो बहुत ही सारगर्भित बात है
आइए जानते हैं उपासना के सभी विधियों और
पद्धतियों के खास नियम:-
👉 उपासना विद्वानों का कहना है कि उपासना शब्द की व्युत्पत्ति उप+ आस+ ल्यूट् से हुई है।
जिसका अर्थ होता है सेवा परम प्रभु परमात्मा की सेवा जो इच्छा रहित है ।
उनकी सेवा कैसे की जाए
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने
इस संबंध में कहा है :-
नैनो सो नैनहिं देखिए जैसे ,त्वचाहि त्वचा सुख पाइए जैसे ।
आत्म परमात्महि पैखे तैसे। आत्म परमात्म मिलन सुख तसै।।
जीवात्मा परमात्मा से मिल जाए यही उनकी सबसे बड़ी उपासना कही जाएगी ।
परमात्मा परम प्रभु सर्वेश्वर के बारे में सुनिए सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज ने
उपासना के संबंध में अपनी अनुभव वाणी का प्रतिपादन निम्न शब्दों में किया है :-
अंतर में आवर्णों से छूटते हुए चलना परम प्रभु सर्वेश्वर की निज उपासना भक्ति है
या यह पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का अव्यर्थ साधन है।
इस अंतर के साधन को आंतरिक सत्संग भी कहते हैं ।।
संतमत में उपासना के निम्न चार अंग है:-
(1) मानस जप
(2)मानस ध्यान
(3) दृष्टि योग
(4) नादानुसंधान
#जप:-जब गुरु प्रदत्त मंत्र की बारंबार इस तरह आवृत्ति करना है कि मन में मंत्र रहे और मंत्र में मन रहे जप कहलाता है।
जब 3 तरह के होते हैं।
(1) वाचिक जप
(2) उपांशु जप
(3)और मानस जप
(1)वाचिक जप:-
वाचिक जप में मंत्र का जोर जोर से बारंबार उच्चारण करते हैं इसमें स्वयं तो सुनते ही हैं दूसरे व्यक्ति भी सुनते हैं ।
(2)उपांशु जप:-
इसमें मंत्र का उच्चारण धीमे स्वर में किया जाता है जीभ कंठ और ओस्ट हिलते हैं स्वयं अपने कान से सुनते हैं दूसरा व्यक्ति नहीं इसे उपांशु जप कहते हैं।
* वाचिक जप से अधिक सिमटाव उपांशु जप में होता है
इसलिए वाचिक जप से सौ गुना श्रेष्ठ उपांशु जप को माना गया है ।
#मानस जप :-
मानस जप स्थूल रूप उपासना है
इस जप में जीभ ऑस्ट और कंठ नहीं हिलते हैं ।
मन ही मन मंत्र की आवृत्ति होती है ।
मानस जप के शब्दों को अपने कान भी नहीं सुन पाते हैं।
उपांशु जप से हजार गुना श्रेष्ठ मानस जप है ।
इसलिए मानस जप को जपों का राजा कहा जाता है। सूफी फकीर लोग इसे जिकर कहते हैं ।
मानस जप पूरी एकाग्रता के साथ करना चाहिए।
मन यदि गुनावन करने लग जाए तो उसे हट पूर्वक पुनः जप में लगाना चाहिए
जब पूरा अभ्यास जप का हो जाता है तब बिना प्रयास के ही मानस जप होता रहता है ।
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज कहा करते थे कि
"जप ऐसा करो कि जप रहे और तुम रहो"
किसी मंत्र का जप हो उसमें एकाग्रता अनिवार्य है ।
#मानस ध्यान :-
स्थूल सगुण रूप उपासना है।
इसके लिए उत्तर या पूर्व मुंह करके बैठना चाहिए।
धड़ गर्दन और सिर को एक सीध में रखकर मुंह तथा आंख को बंद कर लेना चाहिए।
मानस ध्यान में चित ध्येय तत्व पर टिका रहता है।
सूफी फकीर इसे फिकर कहते हैं।
ध्यान दो प्रकार का होता है:-
(1) शगुन ध्यान और
(2) निर्गुण ध्यान
#सगुन ध्यान :-
ईस्ट के स्थूल रूप और ज्योतिर्मय बिंदु रूप तथा अनहद नादो के ध्यान को सगुन ध्यान कहते हैं।
शगुन ध्यान में ही मानस ध्यान आता है ।
ईस्ट के देखे हुए स्थूल रूप को अपने
मानस पटल पर हूबहू उतारने की क्रिया
को मानस ध्यान कहते हैं।
जिन इष्ट के नाम का मानस जप करते हैं।
उन्हीं के स्थूल रूप का मानस ध्यान करना चाहिए ।
इसको फकीर लोग फनाफिल मुर्शिद कहते हैं।
मानस ध्यान में ईस्ट के मनोंमय रूप पर कुछ काल तक दृष्टि के अस्थिर हो जाने पर दृष्टि योग की क्रिया की जाती है।
#निर्गुण ध्यान:-
जिस आदि शब्द से सृष्टि का विकास हुआ है।
उसे सार शब्द भी कहते हैं ।
वह त्रयगुण रहित होने से निर्गुण कहलाता है।
उसी सार शब्द के ध्यान को निर्गुण ध्यान कहते हैं ।
#दृष्टि योग :-
इसे सूक्ष्म सगुण रूप उपासना कहते हैं ।
दृष्टि देखने की शक्ति को कहते हैं।
दोनों आंखों की दृष्टिओं को मिलाकर
मिलन स्थल पर मन को टीका कर
देखने की क्रिया को दृष्टि योग कहते हैं ।
इस अभ्यास से एक बिंदुता कि प्राप्ति होती है।
जिससे सूक्ष्म व दिव्य दृष्टि खुल जाती है ।
तब साधक के अंदर अंधकार नहीं रहता है ।
अपने अंदर उसे प्रकाश ही प्रकाश दिखता है ।
मन का पूर्णतः सिमटाव हो जाता है ।
दृष्टि के चार भेद है:-
(1) जागृत की दृष्टि
(2)स्वपन की दृष्टि
(3)मानस दृष्टि और
(4)दिव्य दृष्टि
दृष्टि के पहले तीनों भेदों का निरोध होने से
मनोनिरोध होता है ।
और दिव्य दृष्टि खुल जाती है ।
तेजोमय बिंदु का ध्यान को परम ध्यान कहा जाता है।
इसको फकीर लोग सगलेनसीरा कहते हैं।
नाशाग्र को संतों ने आज्ञा चक्र ,सुखमन, दशम द्वार ,तीसरा तिल आदि कहा है।
Jai Gurudev... dhanyavaad gurudev yoganand Maharaj ji
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