अभी के पाठ में संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत दादू दयाल जी महाराज, भक्त वर्ष सूरदास जी महाराज और संत चरणदास जी महाराज की शिष्या सहजोबाई की वानियां पढ़ी गई हैं।
इन संतों की वाणी ओं में गुरु की महिमा का वर्णन हुआ है।
उपनिषद में भी है ―
दुर्लभो विष्यत्यागो दुर्लभं तत्वदर्शनम।
दुर्लभा शाहजावस्था सद्गुरो: करुणां बिना ।।.......वराहोपनिष्द
अर्थात-बिना सद्गुरु की कृपा के विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्व (ब्रह्मतत्त्व) दर्शन दुर्लभ है।सहज समाधि की अवस्था भी दुर्लभ है।
योगशिखोपनिषद में आया है ―
कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्वाक्यं प्लववदृढ़म ।
अभ्यासवासनाशक्यता तरन्ति भवसागरम ।।
अर्थात गुरु को कर्णधार (मल्लाह) पाकर और उनके वाक्य को दृढ़ नौका पाकर अभ्यास करने की वासना शक्ति से भव-सागर को लोंग पार करते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने
रामचरितमानस में लिखा है –
बिनु गुरु भाव निधि तरै न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होई ।।
इन बातों को प्रायः लोग जानते हैं।
लेकिन मानते बहुत कम लोग हैं।
संतो के इन विचारों को जिन्होंने माना , जानना चाहिए उनके जीवन के लिए बहुत बड़ा आधार प्राप्त हो गया, जिस तरह कुशल नाविक के सहारे कठिन से कठिन धारा को पार कर जाते हैं।
उसी तरह जिनको सदगुरु मिल जाते हैं। वह संसार सागर को पार कर जाते हैं।
जिनको सद्गुरु नहीं उनका जीवन धिक्कार का है, वह पूरे संसारी हैं।
जिनको सच्चे गुरु प्राप्त हो गए उनके लिए
संत तुलसी साहब कहते हैं―
"उनके तरने को नाव किनारे लागी।
कहीं विधाता मिल जाएं करें भवपारी।
बिनु सतगुरु के धृग जीवन संसारी।।
तुलसीकृत रामायण में आया है―
बिनु गुरु होहिं की ज्ञान, ज्ञान की होहिं विराग बिनु।
गावहिं वेद पुराण, सुख की लहिय हरि भक्ति बिनु ।।
शास्तकार ने ज्ञानहीन मनुष्य को
पशु के समान बताया है
― अहारनिद्राभयमैथुनञच सामान्यमेतत पशुभिर्नराणाम।
ज्ञानं नराणामधिकं बिशेषो ज्ञानेनहिना: पशुभि समाना:।।
― उत्तरगीता अ०-२
अर्थात― आहार निद्रा भय तथा मैथुन यह सब विषय पशु और मनुष्य में एक समान ही है।
यानि कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञान लाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है।
सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है की ज्ञानहीन मनुष्य, पशु तुल्य है।
जिस ज्ञान के बीना मनुष्य, पशु तुल्य हो जाता है वह ज्ञान कैसा है।
वह ज्ञान है आत्मज्ञान, जिससे संसार के सारे बंधनों से जीव छूट जाता है
एक संत ने कहा है―
बास सुरति के आवई, शब्द सूरत ले जाय ।
परिचय श्रुति है स्थरे, सो गुरु दई बताय ।।
यह गुरु ज्ञान की महिमा है। इस ज्ञान में ईश्वर भक्ति की बात है! संत-वाणीयों एवं धर्म-शास्त्रों के श्रवण मनन से यह बात ठीक ठीक बुद्धि में जँच जाती है कि पूर्ण सुख एकमात्र परमात्मा में है।
इसलिए संतों का उपदेश है कि उस सुख को पाने के लिए प्रयत्नशील बनो उसकी जो साधना विधि है
वह संत सद्गुरु की सेवा करके जान सकते हैं।।
अधिक से अधिक प्रवचन को पढ़ने के लिए फाॅलो करना मत भूलें।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
kumartarunyadav673@gmail.com