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रविवार, 17 मई 2020

सदगुरू महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी:सहज की डोरी

संत
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की वाणी आत्मा और परमात्मा के विषय में बहुत ही सरल सरल सरल समझाते हैं और सत्संग भजन करने के लिए सबको प्रेरणा देते हैं आइए उनके प्रवचन को पढ़कर लाभ लें


प्यारे लोगो!
स्थूल नेत्र से स्थूल देह को देखते हैं, दोनों
स्थूल-ही-स्थूल है। 
जब एक ही जाति की चीज हो ,
तब पहचान होती है। आत्मा को आत्मा से ही पहचानिएगा।
सजातीय पदार्थ ही सजातीय पदार्थ को पहचान सकता
है। आपका देह स्थूल है और स्थूल इन्द्रिय से स्थूल
देह को पहचानते हैं। 
आत्मा की जाति कोई भी अनात्मा
नहीं है। आतम आपको आपहि जाने । ब्रह्म एक होकर
सर्वव्यापक है। एक ही में अनेक डूबे हुए हैं। वह सर्वत्र
व्यापक है, परिपूर्ण है। 
इनको भिन्न-भिन्न करना बिना
अवकाश का नहीं हो सकता है। वह अवकाश ही एक
अनादि तत्त्व है। जो अपरम्पार है, वही सर्वत्र है। बाबा
देवी साहब कहते थे-जिसकी निस्बत पूछते हो उसके
पास ही चलो, वहाँ, जाने से निर्णय हो जाएगा।
ध्यान कहते हैं मन की एकओरता को। मन को
विषयहीन करने को ध्यान कहते हैं। 
पंच विषयों से मन
को हटा लेने पर मन कहाँ रहेगा? उसको कहीं अवलम्ब
नहीं मिलता है। मन पहले स्थूल विषय को छोड़ेगा,
तब सूक्ष्म विषय को छोड़ेगा। मन को एकओर रखोोरी
जिससे स्थूल विषय छूट जाए। विन्दु ध्यान से स्थूल
विषय छूट जाता है। विन्दु को देखने के यंत्र से देखा जा
सकता है। साधारणरीति से जो देखते हैं, उसको उलट
दो। 
बाहर में दृष्टि को उलटने से स्थूल चीज को ही
देखिएगा। आँख बन्द कर दृष्टि को समेटकर अपने
अन्दर में देखिए। देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं।
यह बहुत सूक्ष्म है। दृष्टि की नोक जहाँ है, वहीं परम
विन्दु है। अदृश्य अंतरनाद है, वह वर्णात्मक नहीं है।
बाहर के बाजे-गाजे के शब्द ध्वन्यात्मक है। श्रवणात्मक
स्थूल है।
 स्त्रुतात्मक सूक्ष्म है। ध्यान के जरिए मन की
एकाग्रता होगी। एकाग्रता से ऊर्ध्वगति होगी, तब मायिक
आवरणों से पार हांगे। ध्यान के बल से नाम-रूप से
रहित हो जाइएगा। सिर्फ वचन से नाम-रूप से युक्त
नहीं हांगे। शरीर में मन फैला हुआ है। खाने में आनन्द
तो आनन्द आता है लेकिन, अधिक खाने से शरीर रोगी
हो जाएगा, रोग होने से निरानन्द हो जाएगा।
 बाहरी
ख्याल को छोड़ दो और अपने मन को अन्दर में प्रवेश
कराओ, तब असली आनन्द मालूम होगा। अधनिनिया में
हाथ-पैर कमजोर होता जाता है। मालूम होता है कि ाक्ति अंतर की ओर खींची जा रही है। अंतर के
सरकाव में आनन्द होता है।
 बाहरी सुख सापेक्ष है।
अन्दर में बाहरी सुख की कोई अपेक्षा नहीं रहती है।
पंडितों का वेद है और संतों का भेद है। सहज की डोरी
पकड़ो और मन को घेरकर लाओ।
 साधन करनेवाला
सार शब्द से मिलकर रहता है, तब मन थिर होता है।
सहज की डोरी अंतरनाद है। अंतरनाद से मन रूकता है।
निर्गुण राम, नाम जिभ्या का विषय नहीं है। मन के
सन्मुख में ही प्रकाश है। आराम का स्थान मन के
सन्मुख है। जहाँ मन की बैठक है, उसके साथ मन से
मन लगकर थिर हो गया।
 मन दो है-एक तनमन, दूसरा
निजमन। शरीरमुखी मन को तनमन और आत्ममुखी
मन को निजमन कहते  हैं ।

जयगुरु 
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