बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की अमृतवाणी कहा था कि संसार के लोगों एक तुम्हारा शरीर ही है कि तुम परमात्मा तक पहुंच सकते हो वह कैसे साधना और यत्न करके और शीर्षक दिया था भजन के छोड़ को पकड़े रहो तो अवश्य परमात्मा तक पहुंच जाओगे कल्याण होगा जीवन सुख में होगा आइए पढ़ते
प्यारे महाशयो!
संसार के अन्दर जो वस्तु है, वह आप इन्द्रियों से
जानते हैं।
पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा रूप, रस, गंध,
स्पर्श और शब्द जानते हैं। इसी पाँच पदार्थ को आप
पहचानते हैं।
जिस तरह संसार की वस्तुओं को आप
पहचानते हैं, उसी प्रकार ईश्वर को किस प्रकार, किससे
जानेंगे।
हमारे पूर्वज परमेश्वर को मानते आए हैं।
पहले
ऐसे ही मानते हैं, पीछे विचार द्वारा जानने पर। अगर
कुछ असत्य प्रतीत होता है तो उसे छोड़ सकते हैं।
किन्तु परमेश्वर का मानना, उनका असल सत्य है।
हमारी पाँचों इन्द्रियाँ माया से बनी है। उससे परमेश्वर
को कैसे पहचान सकते। कोई जिस जाति, किस्म की
चीज होती है, उससे उसी जाति से ग्रहण हो सकती है।
पाँच तत्त्व से शरीर बने हुए हैं।
किन्तु आँख में अग्नि
तत्त्व विशेष होने के कारण रूप देखा जाता है। कान में
आकाश तत्त्व की प्रबलता है इसलिए शब्द ग्रहण होता
है। नाक में पृथ्वी तत्त्व की प्रबलता है। इसलिए गंध
ग्रहण होता है। इत्यादि जिसमें जिस तत्त्व की प्रबलता
है, तो उसके गुण को वे ही ग्रहण कर सकते हैं। किन्तु
परमात्मा को किस्से ग्रहण कर सकते हैं ?
मायावी होते
माया नहीं। मायावी चीज तो बनती-बिगड़ती है। अगर
परमात्मा भी बिगड़ जाए तो फिर परमात्मा कैसा?
जानना दो प्रकार का होता है।
एक प्रत्यक्ष जानना दूसरा
अप्रत्यक्ष जानना। पहले श्रवण, मनन से जाना जाता है,
इसे अप्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। इस जन्म में कम-से-कम
इसे अवश्य जानना चाहिए, अगर इस ज्ञान को नहीं
जानोगे तो बह जाओगे अर्थात् ठिकाना नहीं कि फिर
कौन शरीर मिलेगा।
किन्तु जो श्रवण, मनन ज्ञान को
प्राप्त करते हुए परमात्मा से मिलने की इच्छा रखेगा
तथा इस जीवन में नहीं हुआ तो दूसरा जन्म उसे मनुष्य
का शरीर होगा।
जो सब शरीरों में रहता है वह शरीर रहित है।
सब विनाशी पदार्थ में रहते हुए भी अविनाशी है। जो
उसको जानता है। वह चिन्ता रहित हो जाता है। बहुत
पढ़ाई किया चाहे कोई भी पुस्तक हो खूब पढ़ा है,
इसलिए वह परमात्मा को पहचानेगा, हो नहीं सकता
है। चेतन-आत्मा के द्वारा ही परमात्मा प्राप्त हो सकता
है। जो आत्मा से जानने के लिए प्रयत्न करता है,
उसके लिए परमात्मा अपने स्वरूप को प्रकट कर देता
है। सत सुरति=चेतन-आत्मा से सत्य है।
इसका सम्हाल
करो अर्थात् इसका साधन करो। सम्हालना क्या है?
इन्द्रियों तथा शरीरो में इसका विखरना हो गया है।
इसको समेटो। उसी चेतन-आत्मा से परमात्मा को ग्रहण
कर सकोगे। किसी विषय को ग्रहण करने के लिए
अपनी चेतन-आत्मा को उस ओर लगाओ।
सुरत फँसी संसार में ताते परिगा दूर ।
सुरत वान्धि सुस्थिर करो आठो पहर हजुर ।
----------------संतकबीर साहब
मन में जो विचार करता है, उसी प्रकार का कर्म
बनता है। हमारी वर्त्तमान हालत हमारे विचारों का फल
है भगवान बुद्ध। पंच पापों से बचकर रहो।
सत्संग से
भजन करना
भोजन करना है। भजन के छोर पकड़े रहो, कभी-न-कभी
अवश्य पूर्ण होगा। मारवाड़ में कुआँ का पानी बहुत
नीचे रहता है, उसमें लम्बी डोरी लगती है, उसके छोर
को पकड़े रहने से कभी-न-कभी अर्थात् खींचते-खींचते
पानी अवश्य मिलेगा।
किन्तु जो छोर को छोड़ देंगे, तो
उनकी रस्सी और लोटा दोनों नष्ट हो जाएगा। उसी
प्रकार भजन के छोर को पकड़े रहो छोड़ने से अनर्थ हो
जाएगा। नष्ट हो जाएगा।
उत्तम कर्म भजन करना है,
मध्यम सत्संग है। तथा उससे नीचे दर्जे का सांसारिक
काम है।
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