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मंगलवार, 19 मई 2020

सदगुरू मेंहीं बाबा का उपदेश:संसार से बाहर होने के लिए सात्विक प्रवृत्ति होनी चाहिए

संत सद्गुरु
महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की वाणी अगर संसार में सुख चाहते हो तो संसार से बाहर होने के लिए सातवीं की बुद्धि का होना जरूरी है यह सदगुरु महाराज ने अपने प्रवचन में बहुत ही अच्छे और सरल शब्दों में और प्रेरक प्रसंग के माध्यम से समझाएं हैं सज्जनों आइए सदगुरु महाराज के अमृत वाणी को पूरा पूरा परिचय और लाभ ले और अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें तो जरूर ही इस लोक और परलोक दोनों बनेगा क्योंकि गुरु महाराज का सभी प्रवचन आत्मा और परमात्मा से जुड़ी हुई वाणी से ही लक्षित होती है तो आइa

प्यारे लोगो!
वसुओं में एक वसु देवव्रत थे। वे वसुओं में मिल
गए और कृष्ण नारायण के अंश में मिल गए। कृष्ण के
कर्म का अंत होने पर उसमें लीन हो गए। कोई आकाश
से गिरा, कोई माता के गर्भ से पैदा हुआ तो इससे क्या
हुआ? 
कोई आकाश से गिरा और कुछ नहीं कर सका,
कोई माता के गर्भ से पैदा होकर बड़े प्रभावशाली हुए,
तो वही श्रेष्ठ है। भगवान के वचनों को जो सुनते हैं
तथा उसका पालन करते हैं, वे ही भगवान को मानते
हैं। भक्ति की बात सुनते हैं और उसके अनुसार चलते
हैं, वे ही असली भक्त है। जो माया के परे है, वही
भगवान कृष्ण का स्वरूप है। 
असल में आत्मस्वरूप
असली चीज है, न कि शरीर। किन्तु शरीर का भी
निरादर नहीं है। इन्द्रियों में विषयों का खिंचाव होते
रहता है। मन को समेट लो, यानी मन को एक स्थान
में केन्द्रित करो। जब मन एक जगह रहेगा, तब विषय
की ओर नहीं जाएगा।
 विवेचन शक्ति (बुद्धि) सारथी है
और आत्मा रथी। कृष्ण सारथी है और जीवात्मा रथी।
शरीर रथ है, दशो इन्द्रियाँ घोड़े हैं और मन लगाम है।
कर्ण और कर्ण के सारथी; दोनों में तकरार होता है,
ऐसा नहीं रथ को। जिधर नहीं ले जाना चाहिए उधर ले
जाए, ऐसा सारथी ठीक नहीं। संसार से बाहर होने के
लिए सात्विकी बुद्धि चाहिए।
मैं सर्वांग युक्त हूँ, मैं कपड़े से युक्त हूँ, पर मैं
कपड़ा नहीं हूँ। सर्वप्रथम ध्यान में पूरे अंग का ध्यान
हुआ, इसके बाद सिर्फ मुख पर रहा, फैलाव कम हो
गया, धीरे-धीरे सिमटता गया।

 शून्य ध्यान सब के मन माना। 
तुम बैठो आतम स्थाना ।।

शून्य ध्यान से मन का सिमटाव हो जाता है।
जैसे बालक किसी चीज के लिए जिद्द पकड़ लेता है तो
वह बार-बार उस चीज को ही माँगता रहता है। उसी
प्रकार मन बारम्बार विषय की ओर जाने के लिए जिद्द
पकड़ लेता है।
 शून्य ध्यान से मन का जिद्दीपना छूट
जाता है।

कबीर, नानक, सभी गुरु का ध्यान करने के
लिए बतलाए हैं-

मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
 -----------संत कबीर साहब

गुर की मूरति मन महि धिआनु । गुर के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ।गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।
 -गुरु नानक साहब

गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जौं विरंचि संकर सम होई।।
 -गोस्वामी तुलसीदासजी

गुरु कैसा होना चिहए तो कहा-
 ज्ञान कहै अज्ञान बिनु , तम बिनु कहै प्रकास ।
 निर्गुण कहै जो सगुण बिनु, सो गुरु तुलसी दास ।।

जो अज्ञान से ऊपर उठ कर ज्ञान की बात कहता
है, अंधकार को छोड़कर प्रकाश का वर्णन करता है
और सगुण को पार कर निर्गुण का वर्णन करता है,
वही सच्चा गुरु है। 
संतों ने प्रथम स्थ ूल ध्यान करने
कहा। मोटे-मोटे अक्षरों को लिखने के बाद ही बारीक
अक्षर लिखा जाता है। ज्योति, शब्द जबतक है, तबतक
श ून्य है। 
ज्योति और शब्द के पार चले जाने से श ून्य
अशून्य कुछ नहीं रहता है। 

गुरु गोरखनाथजी महाराज
की वाणी में है-
 बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती ,अगम अगोचर ऐसा ।
 गगन सिखर मँहि बालक बोलहिँ, वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।


संत कबीर साहब कहते हैं-
जस कथिये तस होत नहीं, जस है तैसा सोय ।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होय ।।

दृष्टियोग=बिहंगमार्ग शब्दयोग=मीन मार्ग। नाम जपने
में सिर्फ राम=राम ही कहो, यह जिद्द ठीक नहीं है।

 संत
दादू दयाल का वचन है-
 दादू सिरजन हार के केते नाम अनन्त ।
चित्त आवे सो लीजिये यौ सुमरै साधु संत ।।


कबीर साहब का वचन है-
विमल विमल अनहद धुनि बाजै, सुनत बने जाको ध्यान लगे ।।
सिंगी नाद संख धुनि बाजै, अबुझा मन जहाँ केलि करे ।
दह की मछली गगन चढि गाजै, बरसत अमी रस ताल भरे।। ़पछिम दिसा को चलली बिरहिन, पाँच रतन लिये थार भरे ।
अष्ट कमल द्वादस के भीतर, सो मिलने की चाह करे ।।
बारह मास बुन्द जहाँ बरषै, रैन दिवस वहाँ लखि न परे ।
बिरला समुझि पडे वहि गलियन, बहुरि न प्रानी देह धरे ।।़
काया पैसि करम सब नासै, जरा मरन के संसै गये ।
निरंकार निर्गुन अविनासी, तीनि लोक में जोति बरे ।।
कहै कबीर जिनको सतगुरु साहब, जन्म जन्म के कष्ट हरे ।
धन्य भाग्य जिनकी अटल साहिबी, नाम बिना नर भटकि मरे ।।

व्याकुलता को ही विरह कहते हैं। किसी से मिलने
का जब विरह होता है, तो उसका मन दूसरी ओर नहीं
लगता है। विरही=विरहिन। पश्चिम दिशा का अर्थ है
अंधकार से प्रकाश की ओर। जो पापों से नहीं बचता है
अर्थात्-झूठ, चोरी, नशा आदि पंच पापों में आसक्त
रहता है, उससे निवृत्ति नहीं हो सकती। 
अष्टकमल में
दो दल (ह, क्ष) कमल है। पाँच तत्त्व तीन गुण वहाँ से
प्रकट होता है, इसलिए उसे अष्टकमल दल कहते हैं।
जो इस बारह के भीतर आ जाए, वह मिलने की चाह
करता है। जो जीव के बैठक से बारह अंगुल पर रहेगा
उसकी ऊर्ध्वगति होगी। बारह अंगुल से आरम्भ नहीं
होता, ध्यान करते-करते बारह अंगुल पर आता है। 
बिना
प्राणायाम किए ही इसमें कुम्भक हो जाएगा। एक
प्रकार से वर्षा होती है। पानी तो नहीं फिर भी वर्षा होती
है। वहाँ मोती बरसता है। जब ध्यान लगेगा तब मालूम
हो जाएगा। 
इस रास्ते से बिरले कोई-कोई जाते हैं। जो
जाते हैं, वे फिर शरीर नहीं धारण करते हैं। एकदम
शान्त हो जाते हैं, स्थिर हो जाते हैं। 
जयगुरू 
बीसवीं सदी के विश्व किरण पुंज सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का प्रवचन यह प्रवचन यहां पर समाप्त हुआ सज्जनों प्रवचन को पर के अपने अंतस पटल पर विचारने का और अंतर्मन में सोचने का भाव पैदा हुआ है और जीवन में उतारें तो अधिक से अधिक लाभ होगा इसी तरह से अधिक से अधिक प्रवचन को पढ़ने के लिए नीचे में जाए और प्रवचन है और गुरु महाराज का जयघोष कमेंट बॉक्स में जरूर करें

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