संत सतगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस ने कहा
विद्या अच्छी तरह पढ़ो और नम्रता से रहो
आइये सत्संगी बंधु पूरा पूरा पढें
बहुत अद्भुत आनंद आयेगा ।
👉✍मेरे कहने का विषय आज का यह होगा
कि ईश्वर को लोग सर्वव्यापी और
इन्द्रियातीत क्यों मानते हैं?
फिर उस तक पहुँचने के लिए जो भक्ति है,
वह किस तरह की जानी जाती है।
मेरे सामने में बहुत बच्चे हैं,
इसलिए बच्चों की समझ में आने योग्य बात
पहले कहना ही ठीक है।
यद्यपि जवान और बूढ़े भी हैं,
किन्तु बच्चों की संख्या विशेष है।
प्यारे बच्चो!
विद्या बहुत अच्छी चीज है।
जहाँ तक पढ़ाई होती है, पढ़ोगे तो
तुम्हारी बहुत उन्नति होगी।
आजकल राजा कोई नहीं, जनता का राज्य है।
कोई किसी पर राज्य नहीं करता है।
इतिहास में पढ़ो और जितने पढ़े हो, याद करो।
अपना देश छोटे-छोटे राज्यों से भरा पड़ा था।
लोग आपस में मेल नहीं रखते थे।
अनमेल के कारण विदेश के लोग आए
और उनका राज्य हो गया।
छोटे-छोटे राज्य थे, इसलिए हर्ज नहीं।
आपस में मेल से नहीं रहना विष है।
इसलिए बच्चो! याद रखो कि
किसी से बेमेल मत होओ।
आपस में लड़ोगे-झगड़ोगे तो कष्ट होगा।
अध्यापक के पास कहोगे, तो
वे भी तुमको दण्ड देंगे।
विद्यालय में और घर में मेल से रहो।
अनमेल बहुत बड़ा विष है।
इसी अनमेल के कारण आज
स्वराज्य होते हुए भी दुःख भोग रहे हैं।
अभी तुमलोग राजकुमार हो।
बड़े होओगे, तब राजा हो जाओगे।
विद्या अच्छी तरह पढ़ो और नम्रता के साथ रहो।
उम्र में जो बड़े हैं, जिनसे विद्यापाठ सीखते हो,
उनसे नम्रता से रहो।
जो घर में माता-पिता की बातों की परवाह नहीं करता,
बड़े लोगों की आज्ञा नहीं मानता,
अध्यापक की बात नहीं सुनता,
वह विद्वान नहीं हो सकेगा,
जिससे उसे पीछे कष्ट होगा।
इसलिए माता-पिता, गुरुजनों की आज्ञा को मानो
और आज का पाठ कल के लिए मत छोड़ो।
नित्य का पाठ नित्य याद करो।
पाठ नित्य याद नहीं करने से
उसका पाठ पीछे पड़ जाता है
और परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है।
अपनी तन्दुरुस्ती बनाए रखने के लिए
कुछ खेलो भी, जिससे तुम्हारी तन्दुरुस्ती अच्छी रहे,
ऐसा नहीं कि पढ़ने के समय में खेलो।
कुछ बड़े बच्चों के लिए बात यह है कि
मस्तिष्क मजबूत रहने से पाठ अच्छी तरह
याद कर सकता है।
शरीर और मस्तिष्क को बलवान बनाकर
रखने के लिए भोजन और व्यायाम है।
भोजन से रक्त, रक्त से वीर्य और वीर्य से ओज बनता है। जिसका वीर्य पतला होता है,
उसका ओज ठीक नहीं बन सकता।
ओज ठीक नहीं बनने से वह पाठ को
ठीक धारण नहीं कर सकता;
उसकी स्मरण शक्ति क्षीण हो जाती है,
वह विशेष विद्वान नहीं हो सकता।
इसीलिए वीर्यरक्षा, नित्य पाठ-अध्ययन और
अपनी तन्दुरुस्ती; इन तीनों बातों पर ध्यान दो।
मैं अपने प्रान्त के अतिरिक्त दूसरे प्रांतों में भी घूमता हूँ,
किंतु ऐसा कोई गाँव नहीं, जहाँ कि
लोग ‘राम-नाम', सत् नाम, वाहगुरु आदि न बोलते हों।
इसका मतलब है कि हमारे देश के लोग आस्तिक हैं।
ईश्वर को हम मानते हैं।
माता-पिता के कहने से ‘राम-राम' कहते हैं।
यह तो बचपन से ही कहते हैं, परन्तु नहीं समझते थे
कि ईश्वर का होना यथार्थ में है या नहीं।
तर्क-वितर्क करके नहीं जान सके थे।
अध्यापक महोदय विद्यालय में स्तुति कराते हैं,
जिससे बच्चों के मन में ईश्वर के होने का
भाव उत्पन्न होता है।
इतना होने पर भी हम मान लेते हैं,
किन्तु ठीक से जान नहीं पाते।
कितने आदमी तो कहते हैं कि
ईश्वर एक कल्पना है।
बुद्धि-विचार के द्वारा ईश्वर की स्थिति को
जानें और उसपर पूर्ण विश्वास करें।
बुद्धि-विचार में सुनो - हमारे बच्चे कभी-कभी देखते हैं
कि कोई मर जाता है,
तो उस मृतक को रथी पर चढ़ाकर ले जाते हैं।
कोई रोते-रोते जाते हैं, कोई रामनाम सत्त कहते जाते हैं।
शरीर में से कुछ निकल गया, तब शरीर मर गया।
इसके लिए श्रद्धापूर्वक एक काम होता है,
जिसको श्राद्ध-क्रिया कहते हैं।
वह कर्म करते हैं और विश्वास करते हैं कि
शरीर में से जो चला गया, उसका कल्याण होगा।
हमारे मुसलमान भाई कहते हैं कि शरीर छूट गया
और उससे रूह निकल गई।
चालीस दिनों तक जाकर कब्र पर नमाज पढ़ते हैं।
ईसाई लोग भी कुछ ऐसा अनुष्ठान करते हैं।
शरीर मरा है, किन्तु शरीर में रहनेवाला नहीं मरता।
जैसे अन्धड़ में घर टूट जाय और
घर में रहनेवाला भाग जाय वह मरता नहीं,
उसी प्रकार शरीर मर गया; किंतु रूह जीवात्मा मरा नहीं।
जिस शरीर में रूह नहीं है,
वह कुछ बोलता-चालता नहीं, सोचता-विचारता नहीं।
एक चीज में बोलना-चालना, विचारना नहीं होता
और दूसरा बोलता-चालता, विचार करता है – इस प्रकार दो पदार्थ हुए।
शरीर में ज्ञानमय पदार्थ के रहने से चलता-फिरता, बोलता है; इससे जीवात्मा निकल जाने पर यह शरीर सड़-गल जाता है, कुछ कर नहीं सकता।
इस शरीर को जड़ कहते हैं। इसमें रहनेवाला चेतन है।
कोई कहे कि जड़-जड़ मिलकर चेतन हो गया, तो यह किस तरह विश्वास हो?
जिस वस्तु का स्वाद कड़ुवा हो, उन सब पदार्थों को मिलाओ, तो वह कड़ुवा ही रहेगा, दूसरा स्वाद नहीं होगा।
यह चेतन पदार्थ भिन्न-भिन्न शरीरों में रहते हुए भिन्न-भिन्न दिखाई देता है, यह व्यष्टि रूप है।
इस न्याय से हम सब एक तत्त्व हैं।
इसलिए एक ही भाव से रहना बहुत अच्छा है।
हमलोग जो बचपन से ही ईश्वर को मानते चले आये हैं,
तो उसे संतवाणी, वेद, पुराण आदि से खोजते हैं,
तो जानने में आता है कि
वह अनादि-अनन्त-स्वरूपी है, पूर्ण है, हीनशक्ति नहीं,
जिसकी शक्ति चूकती नहीं। वह स्वरूप से अपरम्पार है। इसलिए उसकी शक्ति भी अपरंपार ही है।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
- गोस्वामी तुलसीदास
और गुरु नानकदेव ने कहा –
अलख अपार अगम अगोचर,
ना तिसु काल न करमा।
जाति अजाति अजोनि संभउ,
ना तिसु भाव न भरमा।।
कबीर साहब के वचन में देखें, तो वे कहते हैं -
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा।
सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा।।
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना।
चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना।।
जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै।
ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै।।
जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं।
रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं।।
जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा।
कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा।।
- कबीर साहब
बड़ा से बड़ा अनन्त ही होता है।
अब बुद्धि-विचार से देखिए।
एक अनादि-अनन्त नहीं मानने से उपाय नहीं।
अनन्त = लामहदूद। यदि कोई कहे कि सभी सादि, सान्त हैं, तो प्रश्न होता है कि उसके बाद क्या है?
एक अनादि, अनन्त को मानना आवश्यक है।
दो अनन्त कहने से दोनों की सीमा हो जाएगी।
जो सबमें व्याप्त है, तो सब उनके अन्दर हैं।
जो सबसे विशेष है, उसके अन्दर सबको रहना पड़ता है।
उसे ही ईश्वर कहते हैं।
किसी विद्वान ने कहा कि एक अनादि अनन्त है, तो रहने दो; किन्तु उसको ईश्वर क्यों मानें?
जो अनन्त है, तो सभी पदार्थ उसके अंदर हैं।
जो सबके अन्दर हैं, तो उनपर उनका आधिपत्य है,
फिर उसे ईश्वर क्यों न कहें?
जो सर्वत्र घुसा हुआ है, वह तरल, वाष्प सभी में होगा; तभी वह अनन्त होगा।
अनन्त होने के कारण ही वह सर्वव्यापक है।
इन्द्रियों से उसका ग्रहण इसलिए नहीं होता कि
जो पदार्थ जैसा रहता है, उसको पकड़ने के लिए भी वैसा ही यंत्र चाहिए।
हाथ की घड़ी और एक बड़ी घड़ी के यन्त्र दोनों बराबर ही रहते हैं; किंतु जो पदार्थ जैसा रहता है,
उसको पकड़ने के लिए यंत्र भी वैसा ही होना चाहिए।
संसार में आप पाँच ही पदार्थ पाते हैं,
जिन्हें पंचविषय कहते हैं।
एक-एक इन्द्रिय एक-एक विषय को ग्रहण करती है।
जब एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकते,
तब इन मोटी इन्द्रियों से ईश्वर को कैसे पहचान या
पकड़ सकते हैं? संसार के जितने पदार्थ हैं, सब माया ही माया हैं।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
- रामचरितमानस
वह अपरम्पार वचन में आने योग्य नहीं।
इन्द्रियों से बाहर वह परमात्मा है।
आप याद रखें, तो संतवाणी और बुद्धि-विचार से इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि ईश्वर को इन्द्रियों से पकड़ा नहीं जा सकता।
सदाचार का पालन करो।
सदाचारी ईश्वर का भक्त बनता है।
भक्त बनने से उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं।
ईश्वर की भक्ति करो, तो मुक्ति मिलेगी।
विद्वान बनो और सदाचारी होकर ईश्वर की भक्ति करो,
तो संसार में ऊँचापद प्राप्त करोगे और
मुक्ति भी प्राप्त करोगे।
लोग कहते हैं कि विद्या की क्या आवश्यकता?
कितने संत हुए, जो पढ़े-लिखे नहीं थे।
तो जानना चाहिए कि केवल स्कूल-कॉलेज जाने से ही पढ़ना-लिखना नहीं होता है।
पहले मौखिक विद्या ही थी।
हाल में स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरु विरजानन्द स्वामी थे।
ये जन्मान्ध थे।
वे कैसे विद्वान हुए?
यह कहना नहीं पड़ेगा कि भक्ति में विद्या की आवश्यकता नहीं।
संतों में जो पढ़े-लिखे नहीं हुए, उन्होंने संतों के पास जाकर सुना, समझा और ध्यानाभ्यास किया।
ईश्वर अनादि-अनन्त है, सर्वव्यापक है।
वह अत्यन्त झीना है।
उसको इन इन्द्रियों से पकड़ नहीं सकते।
सब इन्द्रियों में जो चेतन तत्त्व है,
उसी से उसे पकड़ सकते हैं।
जैसे रूप आँख का विषय है, उसी तरह चेतन आत्मा का निज विषय परमात्मा है।
कोई कहे कि शब्द क्या होता है?
तो कहा जाएगा - जो कान से सुनते हैं।
उसी तरह ईश्वर क्या है?
तो कहिए, जो चेतन आत्मा से पकड़ा जाय।
चेतन आत्मा अभी शरीर और इन्द्रियों में बंधी हुई है,
इसलिए ईश्वर का दर्शन नहीं होता है।
शरीर और इन्द्रियों से अपने को ऊपर उठाना यही भक्ति है।
सीताजी का हरण हुआ था।
श्रीराम उसे खोजते-खोजते शवरी के आश्रम गए।
वहाँ उनको नौ प्रकार की भक्ति बताई।
नवो को पूर्ण करो, तब भक्ति पूर्ण होगी।
ईश्वर के सम्बन्ध में, मोक्ष के सम्बन्ध में सत्संग में बातचीत होती है।
इसलिए पहले संतों का संग करो।
यह पहली भक्ति है।
सत्संग सुनो, तो
मन लगाकर सुनो - यह दूसरी भक्ति है।
तीसरी भक्ति है - मान-रहित होकर गुरु-पद-पंकज की सेवा करनी।
गुरु-सेवा में अपनी मान-मर्यादा को खोना पड़ता है।
मान-प्रतिष्ठा खोओ, तो गुरु-सेवा होगी।
सेवा में सेवक को तन-सुख और मन-सुख खोना पड़ता है।
जो स्वयं अपना तन-सुख और मन-सुख चाहता है,
वह दूसरे की सेवा नहीं कर सकता।
बड़े के सामने में नवो।
बड़े घराने में भी लोग नवते हैं।
बड़े भाई, चाचा आदि - सबकी सेवा करो।
वृद्ध चार प्रकार के होते हैं - वयोवृद्ध, सम्बन्धवृद्ध, पदवृद्ध और ज्ञानवृद्ध।
ज्ञानवृद्ध सबसे बड़े होते हैं।
इन सब गुरुजनों की सेवा करो।
जो अपने तन-मन के सुख में डूबा हुआ है,
जो अपनी मान-प्रतिष्ठा खोजता है,
उससे सेवा नहीं हो सकती।
इसलिए अमानी होकर गुरु-पद की सेवा करो।
ऐसा नहीं होना चाहिए कि -
अहं अग्नि हिरदे जरै, गुरु से चाहै मान।
तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान।।
चौथी भक्ति है - ईश्वर का यशोगान करो।
पाँचवीं भक्ति है - मंत्र जाप करो, जो गुरु बता दे।
किन्तु गुरु हो गोरू नहीं हो।
ज्ञानवान को गुरु कहते हैं।
गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरू शिष्य न कोय।।
ज्ञानवान और चरित्रवान हो, तो वह गुरु है।
ज्ञानवान हो और चरित्रवान नहीं हो तो
उस गुरु को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि वह झूठा गुरु है।
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झूठे गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार।
द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार।।
साँचे गुरु के पच्छ में, मन को देय ठहराय।
चंचल ते निःचल भया, नहिं आवै नहिं जाय।।
एकाग्र मन से जपो।
लोग कहते हैं –
भाव कुभाव अलख आलसहू।
नाम जपत मंगल दिसि दसहू।।
दशो दिशाओं में मंगल-शुभ होगा।
दसो दिशाएँ माया में हैं, इसलिए माया में शुभ होगा।
इससे मुक्ति नहीं होगी।
उस नाम को भी जानो।
नाम दो प्रकार के होते हैं - वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक।
जप वर्णात्मक नाम का होता है और ध्यान ध्वन्यात्मक शब्द का होता है।
छठी भक्ति है - इन्द्रियों को रोकने का स्वाभाववाला बनना। इन्द्रियों का सूत मन के साथ है।
मन इन्द्रियों को चलाता रहता है।
इन्द्रियों के साथ मन भी साधा जाता है।
मन का जो सूत इन्द्रियों से लगा है,
उसको उस स्थान में समेटो, जहाँ से यह बिखरा है।
दमशीलता के साधन में इन्द्रियों के साथ-साथ मन का भी साधन होता है।
ध्यान की क्रिया से मन के सूतों को समेट सकते हैं।
समेटने से ही इन्द्रियों की धार मन में आकर एकत्रित होती है।
इस सिमटाव में एक विचित्र मौज मिलती है।
ऐसे साधक का मन विषयों से अलग हो जाता है।
श्रीराम कहते हैं - 'एहि तन कर फल विषय न भाई।
इन्द्रियों में से चेतनधारों को समेटकर केन्द्र में केन्द्रित करो।
केन्द्र में केन्द्रित करने से उसमें जो आनन्द है, वह मिलेगा।
यहाँ एक पल के लिए भी यदि ठहरेगा, तो
उसका मन बारम्बार उस ओर होता रहेगा।
तब विषयों की ओर से उसका मुँह मुड़ने लगेगा और
परमात्मा की ओर होने लगेगा।
और बहुत से कर्मों को छोड़कर सज्जनों के अनुकूल चलो।
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काम कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा।
कर्म त्याग नहीं हो सकता।
कर्म-फल का त्याग हो सकता है।
समाधिस्थ होने पर कर्मफल त्याग होता है।
शरीर में रहने पर कुछ न कुछ काम अवश्य करेगा;
किन्तु कर्म की सफलता-विफलता में आसक्त नहीं होगा। सज्जनों के धर्म में बरतना छठी भक्ति है।
झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करे
- यह सज्जनों का धर्म है।
एक ईश्वर पर भरोसा करो।
ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी,
इसका दृढ़ निश्चय रखो।
सत्संग करो।
ध्यान करो और गुरु-सेवा करो।
इन पंच विधि कर्मों को करना और पाँच निषेध कर्मों को नहीं करना - सज्जनों का धर्म है।
सातवीं भक्ति है –
सातवँ सम मोहिमय जग देखा।
मोते संत अधिक करि लेखा।।
सातवीं भक्ति में मन का साधन होता है।
यह ऊँचे दर्जे का साधन है।
‘शम' के साधन के लिए मनोलय होना चाहिए।
शिवसंहिता में लिखा है - न नाद सदृशो लयः।
इसलिए नादसाधन करने के लिए कहा।
मन और दृष्टि का बहुत संबंध है।
जहाँ आप देखेंगे, मन वहीं रहेगा, इसलिए दृष्टिसाधन से मन सधता है।
दृष्टिसाधन आँख से होता है।
इसलिए इन्द्रियों के साथ मन का साधन 'दम' कहलाता है ।
और केवल मन का साधन ‘शम’ कहलाता है।
दृष्टिसाधन के बाद नाद अभ्यास है।
नाद खोजने के लिए बाहर जाना नहीं पड़ता।
वह आपके अंदर है।
वह परमात्मा की ध्वनि है।
उस ध्वनि को जो प्राप्त करता है, शमशील हो जाता है, फिर वह समता प्राप्त कर लेता है।
समता प्राप्त करने पर वह दूसरों के दुःख-सुख को अपने समान मानता है।
वह दूसरों का दोष नहीं देखता।
इस प्रकार जानकर सबको चाहिए कि ईश्वर की भक्ति करें।
ईश्वर को जो प्राप्त नहीं करते, वे सदा दु:ख में पड़े रहते हैं। संसार को चीन्हतें हो, तो दुःख-सुख लगा रहता है,
मायाजाल में फँसे रहते हो, आवागमन में पड़े रहते हो।
ईश्वर को प्राप्त करो, तो आवागमन से छूट जाओगे;
संसार के दुःखों से छूट जाओगे।
जो पदार्थ आपस में उलटे-उलटे होते हैं, उनके गुण भी उलटे-उलटे होते हैंhttps://amzn.to/3aXloP3
संसार नाशवान है और परमात्मा अविनाशी है।
संसार मायिक है तो परमात्मा निर्मायिक है।
संसार को चीन्हते हो तो देखो तुम्हारी क्या हालत है?
ईश्वर को पहचानो, तो इसका बिल्कुल उलटा हो जाएगा। किंतु यह याद रखो कि
ईश्वर का दर्शन इस आँख से नहीं होगा।
यदि कहो कि प्रह्लाद को इसी आँख से दर्शन हुआ,
तो यह माया का।
गोस्वामीजी की यह पंक्ति याद रखो –
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।
यह क्षेत्र दर्शन हुआ, क्षेत्रज्ञ का दर्शन नहीं हुआ।
क्षेत्रज्ञ को मन-बुद्धि से भी पहचान नहीं सकते,
फिर और इन्द्रियाँ उसके लिए काफी नहीं हैं।
उसको तो आत्मा से पहचान सकते हो।
नररूप, देवरूप, विराटरूप, नरसिंहरूप के
दर्शन में माया के बहुत काम बनते हैं;
किंतु सब काम नहीं बनते।
अर्जुन भगवान के साथ रहते थे।
भगवान के चले जाने पर उनके शरीर में बल ही नहीं रहा। युधिष्ठिर को भगवान के दर्शन कई बार हुए थे;
अपने भी वे बड़े धर्मात्मा थे,
किंतु द्रोणाचार्य को मरवाने के लिए एक झूठ बोले थे,
जिससे उनको कुछ काल के लिए नरक देखना पड़ा।
तो इस प्रकार के दर्शनों से आप मुक्ति नहीं पा सकते।
मुक्ति तो आत्मस्वरूप के दर्शन से ही होती है।
इसलिए सभी संतों ने परमात्मा के स्वरूप को
प्राप्त करने के लिए उपदेश दिया।
ईश्वर- भक्ति में ऊँच-नीच, जाति-पाँति का विचार नहीं है।
यदि आप भक्त होंगे, ईश्वर की भक्ति करेंगे, तो आप बड़े हो जाएँगे, लोग आपका आदर करेंगे।
रविदासजी चमार थे;
किंतु उन्हें लोग आदर की दृष्टि से देखते हैं, पूजते हैं।
आज आप राजा हैं।
आपकी संतान राजकुमार है; किंतु फिर भी दुःख-सुख भोगते हैं, https://amzn.to/3aXloP3
इसलिए कि संतों के कहे अनुकूल चलते नहीं।
यदि संतों के कहे अनुकूल चलें तो शिष्ट हो जाएँगे,
किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं होगा।
पुलिस जो पहरा देती है, उसको भी
काम से फुर्सत मिलेगी।
आप सबलोग भक्ति करें और सदाचार का पालन करें,
तो संसार और परलोक - दोनों जगह सुखपूर्वक रहेंगे।
सत्संग प्रेमी आपको पढकर अच्छा लगा होगा
निवेदन है कि फाॅलो करें ।
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