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गुरुवार, 14 मई 2020

सदगुरू महर्षि में हीं परमहंस जी महाराज की वाणी:घर में रहकर त्यागी बनें

संत
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का अमृत वचन
संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का अनुभव वाणी आप लोगों के सेवा में प्रस्तुत है सज्जनों बीसवीं सदी के महान संत सतगुरु महाराज ने अपना कष्ट झेल करके यह अनमोल रत्न दिया है हम सब इसे गहन अध्ययन करें और जीवन में उतारें तो जीवन सुख में होगा कल्याण में होगा
 सदगुरु महाराज ने कहा था की तुम केवल बाहर में रहकर सत्संग भजन भजन कर सकते हो ऐसा कोई बात नहीं है तुम अगर सच्चे साधक हो तो घर में रहकर त्यागी बनो और प्रभु का भक्ति करो आइए पूरा विस्तार से जाने


प्यारे लोगो!
भक्त, योगी, ज्ञानी बनने में मन की एकाग्रता
आवश्यक है। 
कुछ भी बनो प्रेम के कारण मन एकाग्र
होता है। 
प्रणवध्वनि शब्द को कहते हैं जिसे ओंकार भी
कहते हैं। सब आकार विन्दु से उत्पन्न होता है।
 सृष्टि का
आरम्भ नाद से। पहले सूक्ष्म सृष्टि हुई, पीछे स्थूल। पहले
अरूप=रूपरहित, पीछे रूप सहित। रूप भी सूक्ष्म,
उसके भी परे सूक्ष्म, है। विन्दुरूप, नाद प्रणव रूप दोनों
में जो अपने वृत्ति को जोड़ता है, जैसे वायु के वेग से
बादल छिन्न भिन्न हो जाता है, वैसे ही वह प्रणव विन्दु
में सुरत लग जाने से माया छिन्न भिन्न हो जाती है।
 तब
आत्मा स्वयं प्रकाशमय हो जाता है। 
मन इधर-उधर
करने से जो आनन्द मालूम होता है, वह अस्थाई आनन्द
नहीं है। संत कबीर साहब कहते हैं-

भजन में होत आनन्द-आनन्द ।।
बरसत विसद अमी के बादल, भीजत है कोई
संत ।।

भजन का आनन्द सबसे विशेष आनन्द है। 
ईश्वर-
सेवा का मतलब यह नहीं कि सिर्फ फूल, अच्छत से ही
पूजा करते रहो। 
यह तो मोटी सेवा है। इस सेवा की भी
आवश्यकता है, आत्मा के लिए नहीं। जिसे भूख-प्यास
नहीं लगे, जिसको कुछ आवश्यकता नहीं। 
जिसको कुछ
आवश्यकता है उसे पूरा करना उनकी सेवा है। बुखार
लगने पर दवाई, पानी देना यह शरीर की सेवा है,
आत्मा का नहीं। 
औषधि सेवन से शरीर को फायदा होता
है, परमात्मा को नहीं। परमात्मा के लिए मन की एकाग्रता
ही उसकी सेवा है। एकाग्रता से ऊर्ध्वगति होती
है।
 ईश्वर-भक्ति में पहले विन्दु-ध्यान होता है, इसके बाद
नाद-ध्यान होता है। देखने की कोशिश से विन्दु, सुनने
की कोशिश से अन्तर्नाद प्राप्त होता है, यही ईश्वर की
भक्ति है। 
अन्तर्नाद बिना कान के केवल चेतन धारा से
सुनते हैं। स्थूल में फँसी हुई सुरत से नाद ध्यान नहीं हो
सकता। इसलिए विन्दुध्यान द्वारा स्थूल से ऊपर होकर
नाद ग्रहण करो।
 गुरु नानक साहब का वचन है-

तीनों बन्द लगाय के सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहीं भोर ।।


विष्णुभगवान की वैष्णवी मुद्रा, पूर्णिमा दृष्टि।
शिवजी की शाम्भवी मुद्रा अमा दृष्टि। व्यास देव जी की
अमादृष्टि। अमा दृष्टि में तकलीफ नहीं होती।


 भगवान
कृष्ण भी ब्रह्ममुहूर्त्त में उठकर नित्यप्रति ध्यान करते थे।
श्रीमद्भागवत में ध्यान मुद्रा का चित्र है।
ठण्डा मन सुख पहुँचाता है, गरम मन दुःख पहुँचाता है।
ध्यान करने से मन ठण्डा होता है। शाम्भवी
या वैष्णवी, किसी मुद्रा से ध्यान करो। आँखें बन्दकर ध्यान
करने से आलस शीघ्र आता है। हमारे गुरुमहाराज यही
बतलाते थे कि आलस्य बहुत बड़ा दुश्मन है, इससे
बचो।
 कबीर साहब का वचन है-

आँख, कान, मुख बन्द कराओ अनहद झींगा शब्द सुनाओ ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ तब देखो गुलजारा है ।।

आँख बन्दकर मन को एकाग्र करने का कोशिश
करो। मन भागे फिर लौटाकर लाओ। 
प्रत्याहार के बाद ध्ारणा होगी। धारणा के बाद ध्यान होगा। 
दृष्टियोग का
अभ्यास करते हुए दाहिने कान से शब्द सुने। 
यह
प्रारम्भिक दशा है। लेकिन वृत्ति जब स्थिर होती है तब
दायें बायें का ख्याल नहीं रहता। 
गुरुनानक देवजी का
वचन है-

सुखमन के घर राग सुनि सुन मण्डल लिव लाय ।

दादू साहब कहते हैं-

क्यों करि उल्टा आणिये पसरि गया मन फेर ।
दादू डोरि सहज की यौं आनै घेरि घेरि
।।

जिसको पूर्व जन्म का संस्कार है, लेकिन नाम
भेद नहीं लिए हैं, उसके लिए अन्तर प्रवेश करना
मुश्किल है। 
सिर्फ राम-राम कहने से नहीं होगा।
 एक दिन
अन्तर में आना ही होगा। मनु शतरूपा को सिर्फ स्थूल
उपासना में लगे रहने के कारण पुत्र का वरदान माँगते हैं,
क्या यही सार भक्ति है? ध्रुव, प्राद ने प्राणायाम
किया था। ध्यान की बात है कि आँख बंदकर देखिए।
लेकिन लोग समझते हैं कि किसी शब्द को रट लो, बस
हो गया। लेकिन कहाँ तक हुआ यह समझिए। यह तो एक
दरजा हुआ। सब दर्जे को टपो तब पूर्ण भक्ति होगी। मैं
तो कहता हूँ कि ध्रुव लोक भी निर्वाण पद में नहीं है।
साधु लोग कहते हैं पलंग पर बैठे रहो, भजन करो। न
बेशी खाओ न भूखा रहो। न विशेष सोओ न जागो।
उलटा नाम बाल्मीकि के विषय में लोग कहते हैं, वह
सिर्फ मरा मरा जपते थे।
मुँह से जो बोलते हैं वह शब्द नीचे से ऊपर है,
अन्तर्नाद ऊपर से नीचे है। यह एक दूसरे से उल्टा हुआ।
मुँह से जो बोलते हैं उसका उल्टा ध्वन्यात्मक शब्द ही है।
 उल्टा नाम जपत जग जाना बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।
देह सुखाना, शरीर पर मिट्टी लगाना, यही भक्ति
नहीं है। परमात्मा ने जो औकाद दी है उस हिसाब से
बैठने के आसन पर बैठो, और ईश्वर का भजन करो।
जंगल जाने से, जटा बढ़ाने से कोई तपस्वी नहीं हो
जाता।



ज्ञान सरोवर में एक कथा है
-एक बार राध्ा कृष्ण जंगल में विचर रहे थे। 
उसने देखा एक साधु
जंगल में तप कर रहा है। 
तप के बल से उसके शरीर
की हड्डी झलख रही है। 
राधा बोली कृष्ण! ये महात्मा
बड़ा त्यागी है! 

भगवान समझ गए कि ये त्यागी हैं कि
ढोंग हैं।
 राधा को शिक्षा देने के लिए एक माया रची।
अपने माया से भगवान श्री कृष्ण अंधरपानी बरसाने
लगे। 
भगवान कृष्ण वृद्ध का वेश धारण कर लिया और
राधाजी एक सुन्दर लड़की बन गई।
 अब दोनों तपस्वी के
कुटिया पर पहुँचे। 
वृद्ध वेश में कृष्ण कहने लगे कि संध्
या हो चली है, यह मेरी लड़की है बहुत अन्धरपानी आ
गया है, मेरी लड़की को रहने दीजिए। 
तपस्वी ने पहले
तो रहने नहीं देना चाहा, पीछे बात मान लिए और रहने
दे दिया। अन्धरपानी जोरों से आ गया। 
कुटिया में
अकेली युवती को देखकर तपस्वी के मन में विकार
उत्पन्न हो गया। उसने अपना मन्तव्य सुन्दर युवती के
सामने प्रकट किया। 
तपस्वी के मन में कुभाव आ गया,
वह एक युवक वेश में आकर पलंग पर लेट गया।
 बुढ़ा
वेश में जो कृष्ण था, वह सर्प बन गया। वह देखता
है-एक युवक पलंग पर बेहोश पड़ा है, उनको होश में
लाने के लिए उपाय कर रहा है। 
तबतक में भगवान
अपने रूप में आकर उनके सिर पर हाथ दिए, आशीष
दिए वह युवक अच्छा हो गया। 
सर्प देखते ही अब मुनि
के मन की इच्छा पर पानी फिर गया। 
भगवान कृष्ण और
राधा दोनों वहाँ से चल दिए।
 भगवान कृष्ण राधा से
कहने लगे राधा अब तुम दोनों बातों को विचारो कि
घर मे रहकर त्यागी हो सकता है कि नहीं। त्यागी होने
पर भी कामना उत्पन्न हो सकती है।


भगवान बुद्ध घर में रहते-रहते विरक्त हुए।
उनके घर पर भौतिक सुख-सुविधा का प्रर्याप्त प्रबन्ध
था। 
फिर भी संसार में उनका मन नहीं लगा। 
नित्यप्रति
भजन करो, संयम से रहो, सत्संग करो, कोई विद्या तुरत
नहीं होती। 
पहले आरम्भ होता है, फिर मध्य होता है, फिर
अन्त होता है।
जयगुरू 

 इसी तरह से पढ़ते रहिए खुश रहिए आनंदित रहिए और प्रभु का भजन करते रहिए और घर में रहते हुए हमेशा प्रभु भजन में मन को लगाते रहिए

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