स्वामी विवेकानंद जी महाराज की वाणी
हिंदू हृदय सम्राट युवा के हृदय का धड़कन और
विश्व में हिंदू धर्म का पताका फहराने वाला
धर्म धुरंधर ज्ञानवान महान संत
युवा संन्यासी बाल ब्रह्मचारी स्वामी विवेकानंद जी का अमृतवाणी को पढ़कर
अपने जीवन को धन्य धन्य करें और
यह युवाओं के लिए जीवन को परिवर्तन करने वाला है।
आइए पढ़ें SWAMI VIVEKANAND SPEECH
हम अपने शरीर के संबंध में बड़े ही अज्ञ है।
इसका कारण क्या है?
यही कि मन को उतनी दूर तक एकाग्र नहीं कर सकते, जिससे कि शरीर के भीतर की अतिसूक्ष्म गतियों तक को समझ सकें। मन जब बाह्य विषयों का परित्याग करके देह के भीतर प्रविष्ट होता है और अत्यंत सूक्ष्मावस्था प्राप्त करता है, तभी हम उन गतियों को जान सकते हैं।
इस प्रकार सूक्ष्म अनुभूतिसंपन्न होने के लिए पहले स्थूल से आरंभ करना होगा, देखना होगा,सारे शरीरयंत्र को चलाता कौन है और उसे अपने वश में लाना होगा।
वह प्राण है इसमें कोई संदेह नहीं श्रवास-प्रश्वास की उस प्राणशक्ति की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
मन भी इन स्नायविक शक्तिप्रवाहों द्वारा संचालित हो रहा है
इसलिए उनपर विजय प्राप्त करने से मन और शरीर दोनों ही हमारे अधीन हो जाते हैं,
हमारे दास बन जाते हैं।
ज्ञान ही शक्ति है और यह शक्ति प्राप्त करना ही
हमारा उद्देश्य है।
इसके लिए निरंतर साधना की आवश्यकता है।।
साधना के द्वारा ही मेरी बात की सत्यता का प्रमाण मिलेगा। जब देह के भीतर इन शक्तियों की प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव करने लगोगे,
तभी सारे संशय दूर होगें,
परन्तु इसके अनुभव के लिये कठोर अभ्यास आवश्यक है।
Swami vivekanand speech
(12).जब किसी प्रकार का दु:ख या संशय आता है
अथवा मन चंचल हो जाता है,तो उस समय मन अशांत हो जाता है,
ऐसे समय के लिए ही मंदिर,गिरजाघर आदि के निर्माण का उद्देश्य था।
अब भी बहुत से मंदिरों और गिरीजाघरों में यह भाव देखने को मिलता है, लेकिन अधिकतर स्थलों में लोग, इसका उद्देश्य भूल गये हैं।
चारों ओर पवित्र चिंतन के परमाणु सदा स्पन्दित होते रहने के कारण,
वह स्थान पवित्र ज्योति से भरा रहता है।
संसार में पवित्र चिंतन का एक स्त्रोत बहा दो।
मन-ही-मन कहो,
"संसार में सभी सुखी हों,
सभी शांति लाभ करें,
सभी आनंद पाये।"
इस प्रकार पूर्व, पश्चिम , उत्तर दक्षिण चारों ओर पवित्र चिंतन की धारा बहा दो।
ऐसा जितना करोगे,उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे।
बाद में देखोगे 'दूसरे सब लोग स्वस्थ हों ' यह चिंतन ही स्वास्थ्य-लाभ का सहज उपाय है।
'दूसरे लोग सुखी हों ' ऐसी भावना ही अपने को सुखी करने का सहज उपाय है।
इसके बाद जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं,वे ईश्वर के निकट प्रार्थना करे–अर्थ,स्वार्थ अथवा स्वर्ग के लिए नहीं बल्कि हृदय में ज्ञान और सत्यत्व के उन्मेष के लिए।
इसके अलावा सभी प्रार्थानाएँ स्वार्थ भरी है।
इसके बाद भावना करनी होगी,मेरा शरीर ब्रजपत, दृढ़ सबल और स्वस्थ है।
यह देह ही मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है।
इसी की सहायता से मैं यह जीवन समुद्र पार कर लुँगा"।
जो दुर्बल है वो कभी मुक्ति नहीं पा सकता,समस्त दुर्बलताओं का त्याग करो।
देह से कहो 'तुम बहुत बलिष्ठ हो' मन से कहो,'तुम अनंत शक्तिधर हो,
और स्वयं पर प्रबल विश्वास और भरोसा रखो।
(13).भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत दो पदार्थों से निर्मित है,
उनमें से एक का नाम है आकाश।
यह आकाश एक सर्वव्यापी,सर्वानुस्यूत, सत्ता है।
जिस किसी वस्तु का आकार है,जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है,वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है।
यह आकाश ही वायु में परिणत होता है यही तरल पदार्थ का रूप धारण करता है।,
यही फिर ठोस आकार को प्राप्त होता है।
यह आकाश ही, सूर्य, पृथ्वी,तारा, धूमकेतु आदि में परिणत होता है।
समस्त प्राणियों के शरीर,पशुओं के शरीर,उद्भिद, आदि जितने रूप हमें देखने को मिलते हैं,
जिन वस्तुओं का हम इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर सकते हैं,यहाँ तक कि संसार में जो कुछ भी वस्तुऐं हैं,
सभी आकाश से उत्पन्न हुई है।
इन्द्रियों द्वारा इस आकाश की उपलब्धि करने का कोई उपाय नहीं,यह इतना सुक्ष्म है कि
साधारण अनुभूति के अतीत है।
जब यह स्थूल होकर कोई आकार धारण करता है,
तभी हम इसका अनुभव कर सकते हैं।
सृष्टि के आदि में एक मात्र आकाश रहता है,
फिर कल्प के अंत में समस्त ठोस,तरल और वाष्पिय पदार्थ पून: आकाश में लीन हो जाते हैं।
बाद की सृष्टि फिर इसे इसी तरह आकाश से उत्पन्न होती है।।
(14). किस शक्ति के प्रभाव से आकाश का जगत के रूप में परिणाम होता है?
इस प्राण की शक्ति से।
जिस तरह आकाश इस जगत का कारणस्वरुप अनंत,सर्वव्यापि और भौतिक पदार्थ है,
प्राण भी उसी तरह जगत की उत्पत्ति की कारणस्वरूप अनंत सर्वव्यापि विक्षेपकर शक्ति है।
कल्प के आदि में और अंत में संपूर्ण सृष्टि आकाश के रूप में परिणत होती है,
और जगत की सारी शक्तियां प्राण में लीन हो जाती हैं, दूसरे कल्प में फिर इसी प्राण से समस्त शक्तियों का विकास होता है।
यह प्राण ही गति रूप में अभिव्यक्त हुआ है
–यही गुरुत्वाकर्षण या चुम्बकशक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।
यह प्राण ही स्नायविक शक्ति प्रवाह के रूप में,
विचारशक्ति के रूप में और समस्त दैहिक क्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त हुआ है।
विचारशक्ति से लेकर अति सामान्य बाह्य शक्ति तक, सबकुछ प्राण का ही विकास है।
वाह्य और अंतर जगत की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती है,तब उसी को प्राण कहते हैं।
सज्जनों यह स्वामी विवेकानंद जी महाराज की वाणी को पढकर आप गर्व महसूस कर रहे हैं ।
और इसी तरह सत्संग, प्रवचन, article पढने के लिए नीचे article को पढें ।और हाँ कमेंट्स देना ना भूलियेगा ।।
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