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शनिवार, 9 मई 2020

Swami vivekanand speech

Swami vivekanand ki vani
-:स्वामी विवेकानंद जी महाराज की वाणी :-
जब पाश्चात्य जगत हमें एक है दृष्टि से देख रहा था उस समय स्वामी विवेकानंद जी महाराज ने अमेरिका के शिकागो में और जहां-जहां गए अपना जो भाषण प्रवचन स्पीच दिए दुनिया का मन मोह लिया और हिंदू धर्म का डंका पूरे विश्व में बजाया सनातन धर्म का डंका पूरे विश्व में बजाया और पूरा विश्व को अपने सामने झुका दिया और पूरा दुनिया भी माननीय को विवश हो गया कि हां हिंदू धर्म ही श्रेष्ठ हैं और यह सबसे प्राचीन धर्म है यह एक सनातन धर्म है और उसका ध्वजा पूरी दुनिया में स्वामी स्वामी विवेकानंद जी महाराज ने ठहराया है और मैं इसे हृदय से स्वीकार करता हूं आइए आज उसी महान संत देशभक्त युवाओं के हृदय सम्राट स्वामी विवेकानंद जी महाराज का अमृत वचन या स्पीच कहिए या भाषण कहिए हम लोग पढ़ें

✍✍(1)जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते-करते ऐसी वस्तु के साक्षात दर्शन कर लेता है जिसका किसी काल में नाश नहीं,जो स्वरूपत: नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है,तब उसको फिर दु:ख नहीं रह जाता।
 भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दु:खो का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं,तब उसे फिर मृत्यु भय नहीं रह जाता।
उसकी जगह इसी देह में परमानंद की प्राप्ति हो जाती है।
  ‌ 
इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एक मात्र उपाय है एकाग्रता।
 मन की शक्तियों को एकाग्र करने के शिवा अन्य किसी भी तरह संसार में ये ज्ञान उपलब्ध नहीं हुए हैं। 
मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। 
वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है।।
 
     
✍✍(2) 
मन को बाहरी विषय पर केन्द्रित करना अपेक्षाकृत सरल है।
 मन स्वभावत: बहिर्मुखी है, लेकिन धर्म, मनोविज्ञान, अथवा दर्शन के विषय में ऐसा नहीं है।।
 मन की एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह अपने अंदर जो कुछ हो रहा है,उसे देख सकता है।
 –इसको अंत: पर्यवेक्षण-शक्ति कहते हैं।।
         
मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उसका प्रयोग करना होगा।
 जैसे सूर्य को तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अन्धकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अंतरतम रहस्य प्रकाशित कर देगा।
 तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुँचेगें।
 तभी हमको सही रूप में धर्म प्राप्ति होगी।

✍✍(3) प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्व का अनुसंधान करने की शक्ति है,प्रत्येक व्यक्ति का किसी भी विषय से क्यों न हो, कारण पूछने का अधिकार है
 और उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपने आंतरिक विश्लेषन से ही उस प्रश्नों का उत्तर भी पा सके। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं।।
       
हममें मन के निग्रह की शक्ति बहुत थोड़ी है। 
मन पर यह अधिकार पाने के लिए शरीर और मन पर आधिपत्य लाने के लिए कुछ बहिरंग साधनाओं की–दैहिक साधनाओं की आवश्यकता है। 
मन जब बहुत कुछ वश में आ जायेगा,तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकेंगें,उसकी वृत्तियों को एकमुखी होने के लिए मजबूर कर सकेगें।।


✍✍(4) जो तुमको दुर्बल बनाता है,
वह समूल त्याज्य है। 
रहस्यस्पृहा मानव-मस्ष्तिक को दुर्बल कर देती है।

          "शास्त्र का यह कथन है–अंधविश्वास करना ठीक नहीं। 
अपनी विश्वासशक्ति और युक्ति काम में लानी होगी।" 
यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है, वह सत्य है या नहीं।
 भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो,
 ठीक उसी ढंग से यह धर्म विज्ञान भी सिखना होगा।


✍✍(5)  योगी प्रयत्न करते हैं कि
 वे अपने को ऐसा सूक्ष्म अनुभूतिसंपन्न कर मानसिक अवस्थाओं को प्रत्यक्ष कर सके। समस्त मानसिक प्रतिक्रियाओं को पृथक-पृथक रूप से मानस-प्रत्यक्ष करना आवश्यक है। 
प्रत्येक विषय की शिक्षा की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। कोई भी विज्ञान क्यों न सीखो, पहले अपने आप को उसके लिए तैयार करना होगा, फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा, इसके अतिरिक्त उस विज्ञान के सिद्धांतों को समझने का और कोई उपाय नहीं है।

         भोजन के संबंध में कुछ नियम आवश्यक है, जिससे मन खूब पवित्र रहे ऐसा भोजन करना चाहिए।
 योगी को अधिक विलास और कठोरता दोनों ही त्याग देने चाहिए।
 गीता कहती है–
जो अपने को निरर्थक क्लेश देते हैं वे कभी योगी नहीं हो सकते। 
अतिभोजनकारी,उपवासशील, अधिकजागरणशील, अधिक निद्रालु,अत्यंत कर्मी अथवा बिल्कुल आलसी, इनमें से कोई योगी नहीं हो सकता।

✍✍(6)   यम और नियम चरित्र निर्माण के साधन हैं। 
इसको नींव बनाये बिना किसी तरह की योग साधना सिद्ध ना होगी। 
यम और नियम में दृढ़ प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी अपनी साधना का फल अनुभव करना आरंभ कर देते हैं। 
इनके ना रहने पर साधना का कोई फल ना होगा।
 योगी को चाहिए कि वे तन मन वचन से किसी के विरुद्ध हिंसाचरण ना करे। 
दया मनुष्यजाति में ही आबद्ध ना रहे बल्कि उसके परे भी वह जाये।
      
यम और नियम के बाद आसन आता है। 
जबतक उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती,तबतक रोज़ नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती है।
 इसलिए जिससे दीर्घकाल तक एक ढ़ंग से बैठा जा सके ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है।
 जिसको जिस आसन में बैठना आसान हो,
उसको उसी आसन पर बैठना चाहिए


✍✍(7)   आसन सिद्ध होने पर प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया,वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। 
इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय का उल्लेख है।।
        
सदा अभ्यास आवश्यक है।
 तुम रोज देर तक बैठे हुए मेरी बात सुन सकते हो, लेकिन अभ्यास के बिना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते।
 सबकुछ साधना पर निर्भर है। 
प्रत्यक्ष अनुभूति बिना ये तत्व कुछ भी समझ में नहीं आते। 
स्वयं अनुभव करना होगा,केवल व्याख्या और मत सुनने से नहीं होगा शरीर स्वस्थ ना रहे तो साधना में बाधा पड़ती है 
अतः शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। 
किस प्रकार का खान-पान करना होगा, किस प्रकार जीवनयापन करना होगा,इन सब बातों की ओर हमें विषेश ध्यान देना होगा। स्वास्थ उद्देश्य के एक मात्र उपाय है।
 हम जो कुछ भी नहीं देख पाते उसके संबंध में संदिग्ध हो जाते हैं, मनुष्य कितनी भी चेष्टा क्यों न करें वो केवल बात के भरोसे नहीं रह सकता। 
यही कारण है कि योग शास्त्रोंक्त सत्यता के संबंध में संदेह उपस्थित हो जाता है।

✍✍(8 ) प्रकृति को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेना ही हमारा लक्ष्य है। 
इसके सिवा और कुछ भी हमारा प्रकृत लक्ष्य नहीं हो सकता।
 शरीर या मन कुछ भी हमारे स्वामी कभी नहीं हो सकते।

 हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि– शरीर हमारा है – और हम शरीर के नहीं'।

        
एक देवता और एक असुर किसी महापुरुष के पास आत्मजिज्ञासु होकर गये‌। 
उन्होंने उन महापुरुष के पास एक अरसे तक रहकर शिक्षा प्राप्त की।
 कुछ दिन बाद उन महापुरुष ने उनसे कहा– 
"तुम लोग जिसको खोज रहे हो वह तो तुम्हीं हो।"
फिर उन लोगो ने सोचा, 
"देह ही आत्मा है।"
 फिर उन लोगो ने यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था, मिल गया, सन्तुष्ट चित्त से अपनी-अपनी जगह को प्रस्थान किया।
उन लोगों ने जाकर अपने-अपने आत्मीय जनों से कहा– 
जो कुछ सीखना था सब सीख आये, अब आओ,भोजन पानी, और आनंद में दिन बितायें।
–हमीं वो आत्मा है इसके सीवा और कोई वस्तु नहीं।
 उस असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था, इसलिए इस विषय में उसने आगे अधिक अन्वेषण नहीं किया। 
अपने को ईश्वर समझकर वो पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गया।
 उसने आत्मा शब्द से देह समझा।
 परंतु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था।
 वे भी पहले इस भ्रम में पड़े थे कि 'मैं का अर्थ यह शरीर ही है;यह देह ही ब्रह्म है, इसलिए इसे स्वस्थ और सबल रखना, सुंदर वस्त्रादि पहनाना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का भोग करना ही कर्त्तव्य है, परन्तु कुछ दिन जाने पर उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ यह नहीं हो सकता कि देह ही आत्मा है बल्कि देह से भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है।
 तब उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा
 "गुरु आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य है कि
–देह ही आत्मा है? 
परन्तु यह कैसे हो सकता है?
 सभी शरीर तो नष्ट होते हैं, पर आत्मा का तो नाश नहीं।" 
आचार्य ने कहा
 "तुम स्वयं इसका निर्णय करो तुम वही हो 
– "तत्त्वमसि।"
 तब शिष्य ने सोचा शरीर में क्रियाशील जो प्राण है,शायद उनको लक्ष्य कर गुरु ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था।
 वे वापस चले गये किंतु, फिर शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और ना करने पर मुरझाने लगते हैं। 
तब वे पुनः गुरु के पास आये और
 कहा–
 "आपने क्या प्राणों को आत्मा कहा है।
 गुरु ने कहा "स्वयं तुम इसका निर्णय करो, तुम वही हो।" 
उस अध्यवशायशील शिष्य ने गुरु के यहाँ से लौटकर सोचा,तो शायद मन ही आत्मा होगा।
 परन्तु वे शीघ्र ही समझ गये कि मनोवृत्तियाँ बहुत तरह की हैं। 
मन में कभी सदवृति तो कभी असदवृति उठती है। अतः मन इतना परिवर्तनशील है कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकती। 
तब फिर से गुरु के पास आकर उन्होंने कहा,मन आत्मा है ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता।
 आपने क्या ऐसा ही उपदेश दिया है?"
 गुरु ने कहा,
" नहीं तुम वही हो, तुम स्वयं इसका निर्णय करो।" 
वे न देवपुंगव फिर लौट आते,तब उनको यह ज्ञान हुआ, "मैं समस्त मनोवृत्तियों के परे एक न मेवाद्वितीय आत्मा हुँ। 
मेरा जन्म नहीं मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती,आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सुखा सकती,जल नहीं गला सकता, मैं अनादि हुँ, जन्मरहित,अंचल,अस्पर्श,सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान पुरुष हुँ। 
आत्मा शरीर या मन नहीं,वह तो इन सबके परे है।"
 इस प्रकार वह देवता ज्ञानप्रसूत आनन्द से तृप्त हो गये,पर उस असुर बेचारे को सत्यलाभ ना हुआ,
 क्योंकि देह में उसकी अत्यंत आसक्ति थी।


✍✍(9)   इस जगत में ऐसी असुर-प्रकृति के अनेक लोग हैं; फिर भी देवता प्रकृति वाले बिल्कुल ही ना हो, ऐसा नहीं है। 
ऊँचे तत्त्व को धारणा करने की शक्ति बहुत कम लोगों में देखने में मिलती है।
 सत्य को प्राप्त करने के लिए अध्यवशायशील लोगों की संख्या तो और भी महान गुण लिये है, लेकिन संसार में ऐसे महापुरुष भी हैं 
जिनकी यह निश्चित धारणा है कि शरीर चाहे हज़ार वर्ष रहे या लाख वर्ष,अंत में परिणाम एक ही होगा।
 कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता।
 शरीर सतत परिवर्तनशील परमाणुओं की समष्टि मात्र है।
     
 शरीर सतत परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है,
क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी।
 यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है।
 सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है। मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। 
यहाँ तक की देवता से भी श्रेष्ठ है।
 देवताओं को भी ज्ञान लाभ के लिए 
मनुष्य देह धारण करना पड़ता है।


✍✍(10)   श्वास-प्रश्वास मानो देहयंत्र का गतिंनियामक प्रचक्र है एक वृहत इंजन देखने पर पाते हैं 
कि पहले प्रचक्र घूम रहा है 
और उस चक्र की गति क्रमशः सुक्ष्म से सूक्ष्मतर मंत्रियों में संचारत होती है।
 इस प्रकार उस इंजन के अत्यंत सूक्ष्मतम यंत्र तक गतिशील हो जाते हैं।
श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक प्रचक है।वही इस शरीर के सब अंगों में जहाँ जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है, 
उसकी पूर्ति कर रहा है और उस प्रेरक शक्ति को नियमित भी कर रहा है।

     एक राजा के पास एक मंत्री था।
 किसी कारण से राजा उस पर नाराज हो गया।
राजा ने उसे एक बड़ी ऊँची मिनार की चोटी में कैद करके रखने की आज्ञा दी। 
राजा की आज्ञा का पालन किया गया।
मंत्री भी वहाँ क़ैद होकर मौत की राह देखने लगा। 
मंत्री की एक पतिव्रता पत्नी थी। 
रात को उस मिनार के नीचे आ उसने चोटी पर कैद हुए पति को पुकारकर पूछा,
 "मैं किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करूँ?
" मंत्री ने कहा 
"अगली रात को एक लंबा मोटा रहा, 
एक मजबूत डोरी, एक बंडल सूत, रेशम का पतला सूत, एक भृंग और थोड़ा-सा शहद लेती आना।" 
उसकी सहधर्मिणी पति की यह बात सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हो गयी। 
जो हो वह पति की आज्ञानुसार सब वस्तुएँ ले गयी। मंत्री ने उससे कहा
 "रेशम का सूत मजबूती से भृंग के पैर में बाँध दो, उसकी मुँछों में एक बूँद शहद लगा दो और उसका शीर उपर की ओर करके उसे मीनार की दिवार पर छोड़ दो।
पतिव्रता ने सब आज्ञाओं का पालन किया। 
तब उस किड़े ने अपना लंबा रास्ता पार करना शुरू किया।
 सामने शहद की महक पाकर उसके लोभ से वह धीरे-धीरे उपर चढ़ने लगा और अंत में मीनार की चोटी पर जा पहुँचा। 
मंत्री ने तुरत ही उसे पकड़ लिया और उसके साथ रेशम की सूत को भी।
 इसके बाद अपनी पत्नी से कहा,
 "बंडल में जो सूत है,उसे रेशम के छोड़ से बाँध दो।" इस तरह वह भी उसके हाथ में आ गया। 
इसी उपाय से उसने डोरा और मोटा रस्सा भी पकड़ लिया।
अब कोई कठीन काम न रह गया। 
रस्सा ऊपर बाँधकर वह नीचे उतरा और भाग खड़ा हुआ। 

हमारी इस देह में श्वास-प्रश्वास की गति मानो रेशमी सूत है इसके धारण या संयम कर सकने पर पहले स्नायविक शक्तिप्रवाह रूप सूत का बंडल, फिर मनोवृत्ति रूप डोरी और अंत में प्राणरूप रस्से को पकड़ सकते हैं।
 प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है।।
🙏🙏🙏जय गुरु 🙏🙏🙏

सज्जनों आज के इस दौर में स्वामी विवेकानंद का भाषण प्रत्येक मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक है उसके मार्ग पर गांव चलेंगे तो जरूर ही कल्याण होगा और ज्ञान भी होगा और अंत में महान भी होगा स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन में जो पाया वह सबों को जगाने का काम किया और युवाओं को तो सबसे अधिक प्रेरणा का स्रोत है और ऐसा प्रेरणा भी दिए हैं तो अंत में एक निवेदन है कि स्वामी विवेकानंद का प्रवचन पढ़ करके आपका हृदय आनंदित हुआ उठा होगा इसलिए आप कमेंट बॉक्स में उनका उद्घोष जरूर करें 
     
      
      
     

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