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गुरुवार, 2 जुलाई 2020

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी:मौत को कौन नहीं जानता हैं

बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज की वाणी सत्संगी बंधु सदगुरु महाराज के प्रवचन को एकाग्र चित्त होकर पढ़ें और जीवन में उतारने का प्रयास करें

बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।

धर्मानुरागी प्यारे महाशयो!

यह बात कहने की आवश्यकता नहीं कि बुढ़ापा आता है, मृत्यु होती है। लोग बराबर इसको देखते ही हैं, फिर भी स्मरण के लिए संतलोग कहते हैं। जिस समय मृतक को उठाकर कोई श्मशान ले जाता है, उस समय का ज्ञान और उसके बाद का ज्ञान कैसा होता है? पहलेवाला ज्ञान पीछे भूल-सा जाता है। जब वह कंधे पर मृतक को जलाने के लिए चलता है, तब उसके मन में विराग रहता है कि मेरी भी एक दिन यही हालत होगी।
बलख बुखारे का बादशाह बहुत विलासी था, परंतु सत्य का अन्वेषण करता रहता था।
वह यह नहीं समझता था कि साधु लोग संसार से विमुख क्यों होते हैं, लोग संन्यासी-फकीर क्यों बनते हैं? जो साधु उसके दरबार के सामने जाता, उससे वह पूछता कि तुम फकीर क्यों हुए?
 जो साधु ठीक-ठीक नहीं समझा सकता था, उसको कैद कर लेता था। उस देश के बहुत फकीर कैद हो गए। भारत के भी बहुत फकीर वहाँ जा-जाकर कैद हुए। यह खबर रामानंद स्वामी के पास पहुँची। उन्होंने अपनी शिष्य-मण्डली से कहा कि कोई वहाँ जाकर राजा को समझा सकता है और फकीरों को छुड़ा सकता है? 
कबीर साहब ने इसका बीड़ा उठाया
और वहाँ जाकर बोले - ‘मैंने भी घर छोड़ दिया है, मुझे कुछ खिलाओ।' बादशाह ने उनसे पूछा कि तुम संन्यासी फकीर क्यों हुए? उन्होंने कहा कि यदि मैं अपने फकीर होने का कारण कहूँ तो तुम भी फकीर हो जाओगे। बादशाह ने कहा - 'कहो।' 
संत कबीर साहब ने कहा – ‘मैंने मौत को पहचाना है।बादशाह के वजीरेआजम ने कहा - ‘मौत को कौन नहीं जानता है? सबलोग जानते ही हैं कि एक दिन मरेंगे ही, फिर भय कैसा?’ बादशाह ने आदेश दिया - ‘यह फकीर बात बनाता है। इसको भी कैद कर लो।' कबीर साहब को जेल ले जाया जाने लगा तो उन्होंने बादशाह के कान में कहा - ‘यदि आप ठीक ही मौत को जानना चाहते हैं तो आज यह आदेश पारित करवा दीजिए कि आज से सातवें दिन वजीरेआजम को फाँसी की सजा होगी। फाँसी होगी नहीं।' बादशाह ने आदेश पारित कर दिया। अब वजीरेआजम को काटो तो खून नहीं। अब तो मृत्यु उनके सामने नृत्य करने लगी। उनको मौत ही मौत सूझने लगी। न खाना अच्छा लगता था और न कुछ।
सातवें रोज फाँसी का सब साज सामान इकट्ठा किया गया और वजीर साहब को । फाँसी के लिए तैयार कर खड़ा कर दिया गया। कबीर साहब को भी बुला लिया गया। कबीर साहब पूछते हैं - 'वजीर साहब! आप अपनी घोड़ी पर सैर कर आइए।‘ वजीर ने कहा – ‘मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता।‘ तब कबीर साहब ने कहा - ‘अच्छा, अब तो आपकी मृत्यु होगी ही। मृत्यु के पहले अपनी प्यारी बच्ची को थोड़ा प्यार से खिला लें।‘ वजीर ने कहा – ‘मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।‘ कबीर साहब ने पूछा - ‘क्या अच्छा लगता है?’ 
वजीर ने कहा - 'मुझे तो बस मौत-ही-मौत दिखायी देती है और कुछ नहीं। कबीर साहब ने कहा - ‘मौत को तो आप आज से सात रोज पहले भी, जब मैं दरबार में यहाँ आया था, देख रहे थे, फिर आज क्या हुआ? आप उस दिन तो इतने दुःखी और उदास नहीं थे?’ 
वजीर ने कहा - ‘उस दिन तो केवल सुनी-सुनाई बात ही कही थी। वास्तव में मौत को आज मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।
जो मौत को इस तरह देखता है कि अब कुछ ही क्षण में मैं मर जाऊँगा, तो उसका मन संसार से विरक्त हो जाता है। मौत को जानने से सभी विलास छूट जाते हैं। मौत को ठीक-ठीक जानने से संसार छोड़ सकते हो।
 साधु-संत लोग कहते हैं। तो कुछ-कुछ ख्याल आता है और जब किसी मृतक को जलाने जाते हैं, तब ख्याल आता है। जन्म होने पर और उससे बढ़ते जाने पर मालूम होता है कि अच्छा होता है, किंतु उसकी आयु क्षीण होती जाती है। रोग सताने पर भी शरीर क्षीण होता है। बुढ़ापा होने पर भी शरीर क्षीण होता है और अंत में ‘रामनाम सत्त’ हो जाता है।
550 जन्मों में भगवान बुद्ध ने सिद्धि प्राप्त की।
 साधना के जन्म 550 हुए। 550 जन्म तक साधन-भजन किया और दृढ़ता से कहा कि अब शरीर का कर्ता इस शरीर को बना नहीं सकता अर्थात्  मैं इस संसार में फिर नहीं आऊँगा और जो संसार में आने से दु:ख होता है, वह नहीं भोगूँगा। संसार में दुःख-ही-दुःख है।
 जनमने से पहले माता के गर्भ में उलटे लटके हुए रहते हो, जन्मभर कष्ट होता है। मरने पर स्वर्ग-नरकादि जाते हो। कोई भी केवल नरक या कोई स्वर्ग ही नहीं जाता। सबसे कुछ-न-कुछ पाप-पुण्य होता है, जैसे युधिष्ठिर को थोड़े पाप के कारण नरक देखना पड़ा। 
उपनिषद् कहती है कि मरने के समय जो-जो भावना करोगे, वही-वही होगा। इसलिए ऐसा यत्न करो कि फिर जन्म लेना न पड़े।
भगवान बुद्ध ने अपना रास्ता आप निकाला। उनको बहुत कष्ट हुए। छह वर्षों तक इतना तप किया कि एक आसन से उठे ही नहीं, किंतु उनके ही शिष्यों ने उनके समय में उनकी सहायता से उतना कष्ट भोगे बिना ही सिद्धि प्राप्त की। सारिपुत्र और मोदगल्यायन बुद्ध के बड़े साहसी और बड़े भजनीक भक्त थे। उपालि नाइक भगवान बुद्ध के यहाँ गए, उनसे शिक्षा-दीक्षा ली और वे बहुत बड़े महात्मा हुए। आनंद, महाकश्यप आदि बहुत बड़े-बड़े महात्मा हुए। उनको रास्ता खोजना नहीं पड़ा। उनके गुरु रास्ता बतलानेवाले हुए। 
संतों के ग्रंथों में उस रास्ते का भेद बतलाया गया है, किंतु उसे बिना गुरु के जान नहीं सकते।
 हमलोगों के समय में हमलोगों को अवश्य ही अच्छे गुरु मिले, जिस कारण भगवान बुद्ध, गुरु नानक, कबीर साहब आदि किन्हीं संत की वाणी को पढ़ते हैं तो वही ज्ञान मालूम होता है।
सबकी लाठी एक-सी नहीं होती। लाठी सहारा होती है। टेढ़ी-सीधी सभी लाठियाँ सहारे हैं। इसी तरह से जो लोग उपासनाओं के लिए कहते हैं कि उनकी उपासना वह है और उनकी वह है तो ये सब सहारे हैं। सबसे एक ही काम होता है। शैव, शाक्त, वैष्णव आदि अनेक उपासक होते हुए भी काम एक ही होता है। इस तरह यदि समझ जाओ तो स्पष्ट होगा कि अनेक उपासनाएँ लिए जो अनेक सम्प्रदाय हैं, उनमें एक ही काम होता है। जानने के बाद भेद भाव नहीं रहता, परंतु यह क्यों जानना चाहिए? इसलिए कि इस संसार में आने-जाने से छूट जाएँ। जिस केन्द्र पर पहुँचने पर संसार से छूटना होता है, वह केन्द्र परमात्मा है। उसके अनेक नाम हैं - कोई ईश्वर, कोई अल्लाह, कोई गॉड कहते हैं। कोई कहते हैं कि वह केन्द्र आत्मतत्त्व है। 
आत्मतत्त्व कहो, परमात्मा कहो - एक ही बात है।
 जैसे आकाश कहने से मठाकाश और महदाकाश - दोनों का ज्ञान होता है, वैसे ही ‘आत्मा' कहने से जीवात्मा और परमात्मा - दोनों का ज्ञान होता है। हाँ, यह अवश्य है कि हमारे यहाँ कितने ही वाद हैं - अद्वैत, द्वैत, वैत आदि; किंतु सबका केन्द्र परमात्मा है। असीम अनंत तत्त्व जो महान है, वह दो नहीं हो सकता। एक ही एक है। दो कहने से दोनों जहाँ मिलेंगे, वहाँ सीमा हो जाएगी। इसलिए अनादि अनंत तत्त्व एक ही होगा। जिस समय जिस वाद के प्रवर्तक और उसके माननेवाले विशेषरूप से होते हैं, उस वाद का प्रचार उस समय विशेष रूप से होता है। कभी अद्वैतवाद का डंका बजता है, तो कभी द्वैत का। शंकराचार्य ने अद्वैत का डंका बजाया। एक परमात्मा है। एकान्त होकर अपने अंदर प्रवेश करो।
 इसमें शिव-शक्ति का दर्शन कर सकते हो। इसका यत्न सत्संग से, सद्गुरु से प्राप्त करो।
 दर्शन करके कृतकृत्य हो जाओगे। इसी का यत्न सभी संत बताते हैं, इसका यत्न जानो और कोशिश करके अपने अंदर की शिव-शक्ति का दर्शन करो। 
सब दुःखों से छूट जाओगे।
 ‘शिव' का अर्थ ही कल्याण है। 
तुम करोगे, तुम्हारा कल्याण होगा और जो सब कोई करेंगे, उन सबका कल्याण होगा। इसलिए तो सबको इसका अभ्यास करना चाहिए।
🙏🙏🙏🙏🌺⚘श्री सद्गुरु महाराज की जय⚘🌺🙏🙏🙏

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