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शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी: आत्मा को जानना सच्चा ज्ञान

 बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का अमृत वचन 
  • महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का अमृत वचन को हम एकाग्र चित हो करके पढ़ें और जीवन में उतारने का प्रयास करें और अपने को भाग्यशाली समझे कि ऐसे पूर्ण संत का अमृत वचन को पढ़ रहा हूं आइए उसका पूरा अंश आप लोगों का सामने प्रस्तुत है जिसका शीर्षक है आत्मा को जानना ज्ञान है विश्लेषण नीचे दिखते हैं


 प्यारे सज्जनो !
बहुत पहले यहाँ संस्कृत का अत्यधिक प्रचार था।
प्राय : सब संस्कृत में बोलते थे।
उस समय ऋषियों तथा मुनियों ने जो समय - समय पर प्रवचन कहे , उन्हीं के सदुपदेशों को उपनिषद् कहते हैं।
कुछ काल पहले अपने देश में संकुचित विचार भी था।
लोग सर्वसाधारण को यह उपनिषद् - ज्ञान नहीं बताते थे , इसलिए इसका विशेष प्रचार नहीं हुआ योगशिखोपनिषद् में शिव और ब्रह्मा का संवाद है।
ब्रह्मा ने शिवजी से पूछा - कोई योग और कोई ज्ञान को मोक्ष - प्राप्ति के लिए बतलाते हैं , आपका क्या मत है?
इसपर शिवजी ने उत्तर दिया - ज्ञानहीन योग और योगहीन ज्ञान मोक्ष कर्म में समर्थ नहीं होता , इसलिए मुमुक्षु को ज्ञान और योग ; दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास करना चाहिए।
मोक्ष का अर्थ है - बन्धन से छूट जाना।
हम सबलोग बन्धन में बंधे हुए कैद हैं।
शरीर में कैद हैं और जड़ - चेतन की गिरह से बँधे हुए हैं।
इसलिए सब लोग दुःख उठाते हैं।
यह दुःख क्यों होता है?
शरीर रहने पर ही दुःख होते रहते हैं , काम - क्रोध उत्पन्न होते रहते हैं।
इसका कारण शरीर है।
शरीर और संसार से छूटने से ही दुःख छूटेगा।
ज्ञान का अर्थ है - जानना।
योग का अर्थ है - मिलना।
ज्ञान से जानने में आवेगा कि किससे मिलना है।
योग जानने से उसकी क्रिया करके उससे मिलेंगे । 
ईश्वर से मिलने के लिए जो क्रिया है , वह योग है।
जप - ध्यान सरल योग का अभ्यास है।
सत्संग करना ज्ञान का अभ्यास करना है।
शरीर और आत्मा को जानना ज्ञान है।
लिखा - पढ़ा आदमी पुस्तक पढ़ता है , तो उससे उसको ज्ञान होता है ; किंतु किसी विशेषज्ञ के पास जाकर सुनने से विशेष ज्ञान होता है।
अक्षर और मात्रा को पढ़ने से पुस्तक पढ़ लेते हैं , किंतु उसका अर्थ ठीक - ठीक नहीं समझ सकते।
ठीक - ठीक समझने - पढ़ने के लिए ही लोग कॉलेज और विद्यालयों में जाते हैं।
इसीलिए पढ़े - लिखे लोगों को चाहिए कि जहाँ कहीं कोई विशेषज्ञ हों , उनके पास जाकर सुनें और सीखें।
यह जानकर ज्ञान और योग ; दोनों का अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है।
बहुतों का ख्याल है कि थोड़ा जप - ध्यान करते हैं , मरने पर मुक्ति हो जाएगी ; किंतु उपनिषद्कार ने बताया कि मरने पर जो मुक्ति होती है , वह मुक्ति नहीं है।
जब तुम जीवन में मुक्ति प्राप्त करो और तुम्हें परमात्म - स्वरूप की प्रत्यक्षता हो , तब तुम मरने पर मुक्त ही हो।
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो।
जब लगजीवनमुक्तानाही , तबलगदुख सुख भुगताहो।
देह संग नहिं होवे मुक्ता , मुए मुक्ति कहँ होई हो।
जल प्यासा जैसे नर कोई , सपने मरे पियासा हो।।
              -कबीर साहब

जीवत छूट देह गुण , जीवत मुक्ता होइ।
जीवत काट कर्म सब , मुक्ति कहावै साइ॥
जीवत जगपति कौं मिले , जीवत आतम राम।
जीवत दरसन देखिये , दादू मन विसराम॥
जीवत मेला ना भया , जीवत परस न होइ।
जीवत जगपति ना मिले , दादू बूड़े सोइ।
मूआँपीछे मुकति बतावै , मूआँ पीछै मेला।
मूआ पीछे अमर अभै पद , दादू भूले गहिला।
               -दादू दयाल

सुनि समुझहिंजन मुदित मन , मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारिफल अछत तनु , साधु समाज प्रयाग ।।
             -गोस्वामी तुलसीदासजी

 फिर इस योगशिखोपनिषद् में कहा गया है कि
 ' मरते समय जैसी भावना रहेगी , उसी के अनुकूल शरीर होगा । '

यदि मरने के समय पाशविक भावना हो तो बड़ा बुरा होगा।
इसलिए सचेत रहो कि मरने के समय यह बुरी भावना न आने पावे।
जिस आदमी की जाग्रत अवस्था के काल में जिस ओर विशेष ख्याल लगा रहता है , स्वप्न में भी 
वही वह देखता है।
उसी प्रकार जीवनकाल में जैसी भावना बारम्बार होती रहेगी , मरने के समय भी वैसी ही भावना होगी।
इसलिए जीवनकाल में अच्छी भावना रखो , जिससे कि मरने के समय भी अच्छी भावना हो।

श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥
प्रयाण काले मनसा चलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
         -गीता , अध्याय ८ / ९ -१०
अर्थात्
जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से , भक्ति से सराबोर होकर और योगबल से भृकुटी के बीच में अच्छी तरह प्राण को स्थापित करके सर्वज्ञ , पुरातन , नियन्ता , सूक्ष्मतम , सबके पालनहार , अचिन्त्य , सूर्य के समान तेजस्वी , अंधकार से पर स्वरूप का ठीक स्मरण करता है , वह दिव्य परमपुरुष को पाता है।
जीवन - भर अपना कुछ पूजा - पाठ करो , यदि उससे दर्शन नहीं हो या किसी प्रकार का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो जाय , तो संतोष नहीं होता।
संतों की युक्ति है , जिसके अनुकूल साधन - भजन करने ऐसा होता है।
जैसे ठाकुरबाड़ी में कोई जाय और ठाकुरजी को नहीं देखे तो कहना चाहिए कि उसको देखने की आँख नहीं है।
उसी प्रकार जिससे परमात्मा का कुछ चिह्न देखने में आता है , वह दृष्टि सबको है , किंतु उससे काम लेने के लिए देखने के लिए लोग नहीं जानते हैं।
जानकर भी कितने साधन नहीं करते।
यदि साधना किया जाय तो प्रत्यक्ष हो जाय।
जिनको दर्शन हुआ वे कहते हैं आपका शरीर शिवालय है , इसमें शिवलिंग की स्थापना है।
बाहर में प्रस्तर का शिवलिंग बनाकर पूजते हैं।
आपके अंदर बनी हुई प्रतिमा या शिवलिंग प्राकृतिक है। 
वह बना हुआ है ही , बनाने की जरूरत नहीं।
वह नादरूप है।
शब्दरूप शिवलिंग है।
शिवलिंग के नीचे जलढरी रहती है , उसी प्रकार उस नाद के नीचे विन्दु है।
शिवलिंग नाद है और विन्दु ( शक्तिचिह्न ) रूप जलढरी है।
जो साधन करे , उसको ये अपने अंदर में प्रत्यक्ष होंगे।
जो अच्छी तरह कोशिश करे , तो अवश्य देखेगा।
ये कोई ऊँचे दर्जे की चीजें नहीं है , नीचे की ही हैं।
किन्तु मन को पवित्र रखना जरूरी है।
जिसका मन पवित्र नहीं है , वह उसे देख नहीं सकता।
नाद का अर्थ है - शब्द और विन्दु का अर्थ है - छोटे - से - छोटा चिह्न।
जिसमें परिमाण नहीं , केवल स्थान है , वह विन्दु है।
बाहर ऐसा चिह्न नहीं हो सकता है , जो आँख से देख सकते।
कोई भी आकार या दृश्य विन्दु के बिना बन नहीं सकता।
कोई चित्र बनाओ , पेन्सिल रखने से जो पहले चिह्न उदय होगा , वही विन्दु होगा।
फिर उसी को बढ़ाकर , लंबाई , चौड़ाई बनाकर आकार बनाते हैं।
इसलिए बिना विन्दु के कोई आकार नहीं बन सकता।
असली विन्दु को कोई यौगिक दृष्टि से देख सकता है।
उसके लिए किसी पेन्सिल वा कलम की जरूरत नहीं।
अपनी दृष्टि की नोक जहाँ दृढ़ता से ठहरा रखेंगे , वहीं विन्दु उदित होगा।
 विन्दु जलढरी है।
जलढरी पर शिवलिंग खड़ा रहता है।
उसी प्रकार जहाँ विन्दु उदित होता है , उसके ऊपर नाद खड़ा हो जाता है। संसार में बिना शब्द के कोई जगह नहीं है।
शब्द कैसे होता है?
शब्द संघर्ष से होता है , गति से होता है।
गति कहते हैं , चलने को - कम्प को।
तारे चलते हैं , पृथ्वी चलती है।
सबकी गति में शब्द होता है।
किंतु आप सुन नहीं पाते।
गति में ध्वनि है , संसार में सब पदार्थों की गति है।
बिना शब्द के संसार का एक रत्ती भी खाली नहीं।
हमलोगों का शरीर बढ़ता है , इसमें भी गति होती है।
इसके शब्द को सुन नहीं पाते।
नाड़ियाँ चलती हैं , इससे भी आवाज होती है।
जहाँ कुछ गति है - संचालन है , वहाँ ध्वनि है।
संसार गतिशील है , इसलिए संसार शब्द से भरा है।
आपके शरीर में भी शब्द है।
स्थूल शब्द को डॉक्टर लोग कान में यंत्र लगाकर सुनते हैं ; किंतु बारीक शब्द को नहीं सुन सकते।
बारीक शब्द तब सुन सकते हैं , जब आप विन्दु को प्राप्त कर।
विन्दु को प्राप्त करनेवाला उस सूक्ष्म शब्द को सुन सकता है।
वह शब्द शिवरूप है।
शिव का अर्थ ' कल्याणकारी ' है।
उसको जो प्रत्यक्ष करता है , उसका कल्याण होता है।
विन्दु में जो अपने मन को समेटता है , दृष्टि को समेटकर देखता है , तो उसमें शक्ति आ जाती है।
फैलाव में शक्ति घटती है , सिमटाव में शक्ति बढ़ती है।
जिसकी दृष्टि सिमट गई है , उसकी शक्ति बढ़ जाती है।
रूप या दृश्य का बनना बिना विन्दु नहीं होता।
इसलिए सब दृश्य का बीज विन्दु है किसी आकार और दृश्य का आरम्भ एक विन्दु से होता है और उसका अंत एक विन्दु पर ही होता।
दृश्य जगत का बीज विन्दु है और अदृश्य जगत का बीज शब्द है।
जिसकी वृत्ति शब्द - रूप शिव को पकड़ लेती है , वह सारी सृष्टि को अंत कर जाता है।
उसे मोक्ष के साथ परमात्म - स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है।
🙏🏻🙏⚘श्री सदगुरू महाराज की जय 🙏🙏🙏🌺⚘
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