बीसवीं सदी के महान संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी
आईये सदगुरू महराज के अमृत वचन " गोद में बालक नगर में ढिंढोरा " को पढें
और जीवन में उतारने का प्रयास करें
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।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो!
संतमत-सत्संग में प्रधान उपदेश ईश्वर-प्राप्ति का है। मुख्यता इसी विषय की रहती है।
केवल इसी का उपदेश हो और संसार में जीवन-यापन का कोई विषय नहीं हो, ऐसा नहीं। संतों के सदुपदेशों को जानकर संसार में निरापद रह सकते हैं।
जैसे –
छिमा गहो हो भाई, धरि सतगुरु चरनी ध्यान रे।
मिथ्या कपट तजो चतुराई, तो जाति अभिमान रे।।
दया दीनता समता धारो, हो जीवत मृतक समान रे।। सुरत निरत मन पवन एक करि, सुनो शब्द धुन तान रे।। कहै कबीर पहुँचो सतलोका, जहाँ रहे पुरुष अमान रे।।
भाई कोई सतगुरु संत कहावै, नैनन अलख लखावै।। डोलत डिगै न बोलत बिसरै, जब उपदेश दृढ़ावै।
प्रान पूज्य किरिया तें न्यारा, सहज समाधि सिखावै।। द्वार न रुंधे पवन न रोकै, नहिं अनहद अरुझावै।।
यह मन जाय जहाँ लग जबहीं, परमातम दरसावै।।
करम करै निःकरम रहै जो, ऐसी जुगत लखावै।।
सदा विलास त्रास नहिं मन में, भोग में जोग जगावै।। धरती त्यागी अकासहुँ त्यागै, अधर मड़इया छावै।
सुन्न शिखर के सार सिला पर, आसन अचल जमावै।। भीतर रहा सो बाहर देखै, दूजा दृष्टि न आवै।
कहै कबीर वसा है हंसा, आवागमन मिटावै।।‘
- कबीर साहब
कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान।।
सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।
आप रहै जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै।।
जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै।
कर छोड़ै मुख वचन, चित्त कलसा में लावै।।
फणि मणि धरै उतारि, आपु चरने को जावै।
वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै।।
पलटू सब कारज करै, सुरति रहै अलगान।
कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान्।।
- पलटू साहब
कर से कर्म करो विधि नाना।
मन राखो जहँ कृपा निधाना।।
संतों की वाणी में इस तरह सांसारिक कार्यों के सम्पादन सहित ईश्वर-दर्शन के साधन का वर्णन है और उनकी वाणी में ईश्वर से प्रेम और उसकी प्राप्ति के विषय का भी प्रचुर वर्णन है।
जहाँ प्रेम है, वहाँ भक्ति है; जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ भक्ति नहीं। बिना श्रद्धा या विश्वास के प्रेम नहीं होता है। ईश्वर की सत्ता और प्रभुताई जानने पर आपको ईश्वर में श्रद्धा होगी, प्रेम होगा और उसके प्रति भक्ति होगी।
संतों ने कहा है - ईश्वर, परमात्मा की स्थिति अवश्य है, इसको आप अन्धविश्वास से मान लें, सत्संग का यह आग्रह नहीं है। बल्कि तर्कयुक्त विचार से भी इसे मानिए। यदि वहाँ तक आपका विचार नहीं जाता है, तो आप इसके लिए यत्न कीजिए। करते-करते यत्न का अन्त होगा, तब आपको मालूम होगा, उसकी-परमात्मा की स्थिति है या नहीं?
संतों के ग्रंथों में परमात्मा उस परम पदार्थ को माना गया है, जो आदि अन्त रहित स्वरूपतः असीम और अज है।
आप पहले अज पर विचार लीजिए।
अज का मतलब जो जन्म नहीं ले।
जो जन्म लेता है, उसका जन्म माता के पेट से भले नहीं हो, किंतु किसी तरह उत्पन्न होना भी एक प्रकार का जन्म है। अब विचारणीय है कि ऐसा कुछ है कि नहीं, जो किसी से उपजा नहीं, बना नहीं और बनाया गया नहीं। संसार के पदार्थों में विचार को दौड़ाइए। तो मालूम होगा कि यह पदार्थ इससे जनमा और वह पदार्थ उससे हुआ। इस प्रकार का ज्ञान आजकल भौतिक विज्ञान देगा। इससे विशेष दर्शनशास्त्र ज्ञान कराता है। दर्शनशास्त्र केवल विचार में समझाता है। आधिभौतिक-विज्ञान प्रयोग द्वारा दिखा देता है। दर्शन जितना बोध करा देता है, उन सबको आधिभौतिक-विज्ञान प्रत्यक्ष नहीं करा सकता। आधिभौतिक-विज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग को हम इन्द्रियों से देखते हैं। आधिभौतिक विज्ञान स्थूल इन्द्रियों को प्रत्यक्ष कराता है। भले ही इस आँख से नहीं देखते हैं, तो खुर्दबीन आदि लगाकर दिखाते हैं। किंतु आखिर आपको उसका ज्ञान इन्द्रियों से ही होता है। दर्शनशास्त्र इससे आगे बतलाता है। मन को पकड़ने का यंत्र अभी तक नहीं निकला है; क्योंकि यह स्थूल इन्द्रियों से ऊपर की चीज है। दर्शनशास्त्र सूक्ष्म भौतिक ज्ञान का बोध कराता है, फिर अभौतिक का भी बोध कराता है।
दर्शन मायिक और अमायिक दोनों का बोध कराता है।परंतु भौतिक-विज्ञान स्थूल मायिक तत्त्व तक रहता है। फिर भी कहा जाता है कि अभी यह अपूर्ण है, कब पूर्ण होगा, ठिकाना नहीं। भौतिक-विज्ञान के सहारे जो कोई ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, वह असंभव को संभव करना चाहते हैं। भौतिक-विज्ञान को स्थूल मायिक पदार्थों की प्रत्यक्षता होती है। भौतिक-विज्ञान से जो ऊपर है, जो अमायिक है, वह भौतिक-ज्ञान से प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? यहाँ पर परमात्मतत्त्व है,यह अभौतिक है, निर्मायिक है, इसको भौतिक-विज्ञान से कोई जान नहीं सकता। दर्शनशास्त्र कह सकता है कि उसकी स्थिति है। जैसे कहते हैं - वह अनादि है, असीम है, अजन्मा है। संसार में एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से तथा दूसरे तीसरे से उत्पन्न होते हैं। सांसारिक पदार्थों में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो सदा से हई है, कभी जन्म नहीं लिया है। स्थूल इन्द्रियों के ज्ञान में जो है, उसमें अज कुछ भी नहीं है। माया का अर्थ छल है। इन्द्रिय-गोचर निश्छल पदार्थ तो कुछ हई नहीं है।
सांसारिक पदार्थ रहता है और नहीं भी रहता है।
गंगाजी की धारा यहाँ थी, अब नहीं है। गंगाजी यहाँ नहीं थी, अब है और प्रलय होने पर फिर नहीं रहेगी।
संसार के जितने पदार्थ हैं, सब होते हैं, विनसते हैं, इसलिए सांसारिक पदार्थ कोई अज नहीं है। जो पदार्थ अज नहीं है, उसे अविनाशी मानने के लिए बुद्धि नहीं मानती। भगवान श्रीराम तथा श्रीकृष्णजी आए, उनको लोग अपने देश में भगवान मानते हैं। वे संसार में आए और चले गए। रूप में अदल-बदल हुआ।
वाल्मीकीय रामायण में है - 'श्रीराम बहुत लोगों के साथ सरयू नदी के जल में गए। सबकी देह छूट गयी और श्रीराम की देह छूटी तो नहीं, देह बदल गया।‘ परंतु महाभारत में तो उनका भी शरीर छूटना लिखा है।
(रामं दाशरथिं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम। योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाः पुत्रानि वौर सान।। शान्ति-पर्व, राजधर्म अ0 29, किसी-किसी प्रति में यह श्लोक अ0 28 में है। पुनः - रामं दाशरथिं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम। यं प्रजा अन्वमोदतं पिता पुत्रानि वौर सान।। द्रोणपर्व।
दशरथजी के पुत्र रामचन्द्रजी को देह छोड़नेवाला सुनते हैं।
महाभुजवाले रामचन्द्रजी ने ग्यारह हजार वर्ष पर्यन्त राज्य किया। वह भी तुझ (सृंजय) पिता-पुत्र से अधिक पुण्यात्मा, दानी, प्रतापी होकर इस अनित्य शरीर को त्याग गए। फिर तू पुत्र शोक व्यर्थ करता है।) श्रीराम जिस समय जन्म लिए चतुर्भुजी रूप थे।
माता बोली - बालक रूप बनिए, तो भगवान श्रीराम उस रूप को छोड़कर बालक रूप में आ गए। श्रीकृष्ण के लिए तो लिखा है उनका शरीर छूटा (ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः। अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः।। महाभारत मूसलपर्व अo 7, ‘यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पंकज लोचनः। सकृष्णः सः रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।।‘ महाभारत मूसलपर्व अo 9।) जिनका दाह अर्जुन ने किया। भागवत में लिखा है जैसे कोई एक काँटे से दूसरे काँटे को निकालकर फिर दोनों को फेंक देते हैं, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्ट के विनाश के लिए जो नर शरीर धारण किया था।
उससे दुष्टों का विनाश कर अपना उस नर शरीर को छोड़ दिया। ( ययाऽहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः।। कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम्। - श्रीमद्भागवत स्कन्ध 1 अo 15। यथा मत्स्यादि रूपाणि धत्तेजह्याद् यथा नटः। भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम्। - श्रीमद्भागवत स्कन्ध 1 अo 15। अर्थात् भगवान कृष्ण ने लोक दृष्टि में जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटे-से-काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान हैं। जैसे वे नट के समान मत्स्यादिरूप धारण करते हैं और उनका त्याग कर देते हैं,वैसे ही उन्होंने जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था उसी का त्यागकर दिया। लोकाभिरामाः स्वतनुं धारणा ध्यान मंगलम्। योग धारणयाऽऽग्ने-याऽऽदग्ध्वा धामा विशस्वकम्।। - श्रीमद्भागवत स्कन्ध 11 अo 31
अर्थात् भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारण का मंगलमय आधार है और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है, इसलिए उन्होंने अग्नि देवता संबंधी योग धारण के द्वारा उसको जलाया नहीं सशरीर अपने धाम में चले गए।
उद्धृत किए गए महाभारत के श्लोकों के विषय का मेल तो श्रीमद्भागवत के पहले स्कन्ध के श्लोकों से मिलता है। परंतु श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंध से उद्धृत किया हुआ श्लोक से वह मेल नहीं मिलता है। इसलिए पहले स्कन्ध के श्लोकों के विषय का पक्ष विशेष दृढ़ जान पड़ता है।) इस प्रकार का शरीर भी अज नहीं है। कोई भी व्यक्त या इन्द्रियगोचर पदार्थ को अज अविनाशी नहीं मान सकते। प्रत्येक देह में अव्यक्त आत्मा है। मनुष्य अपनी देह को देखता है, किन्तु अपने को नहीं। अपने अन्दर दृष्टियोग साधन से दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर भी आत्मस्वरूप देखा नहीं जा सकता। आत्मा अव्यक्त तत्त्व है। आपकी एक-एक देह में वह अव्यक्त भरा है। किसी का शरीर छूट जाने पर मर जाने पर - उसका मृत शरीर रहता है। किंतु वह बोलता, चलता और कुछ करता नहीं। जिससे बोलता, चलता और कुछ करता था, वह क्या है?
वह ज्ञानमय अव्यक्त पदार्थ है। वह चेतन तत्त्व है। चेतन तत्त्व अव्यक्त है, किंतु उसका कार्य व्यक्त होता है।
शरीर में चेतन के रहने से शरीर हिलता डुलता है तथा उसके नहीं रहने से शरीर निश्चेष्ट रहता है, इससे मालूम होता है कि चेतन चलनात्मक है। तब यह कहेंगे कि उसका जनम हुआ या नहीं? शरीर के मरने पर वह मरा या नहीं? तो उसके मरने की बात नहीं।
स्थूल शरीर का विनसना बारम्बार होता है, किन्तु सूक्ष्म देह का विनसना स्थूल की भाँति नहीं होता।
अब इसपर विचार करते हैं कि यह आदि-अंत-रहित है कि नहीं? जो आदि-अंत-रहित हो, असीम हो, उससे बचा हुआ कुछ खाली स्थान नहीं रह सकता है। जब खाली स्थान नहीं है, तब वह हिल-डोल कैसे सकता है? चेतन चलनात्मक है, इसलिए उसके अगल-बगल में खाली जगह है। इसलिए यह असीम नहीं है, सादि सांत है। उसके अतिरिक्त कुछ दूसरा पदार्थ होगा, जो कम्पनमय नहीं होगा, ध्रुव होगा। आदि-अन्त सहित ससीम के बाद कुछ नहीं है, कहना बुद्धि के विपरीत है। सादि सांत के बाद अनादि अनंत तत्त्व है, यह बुद्धि को मानना पड़ता है।
जो अनादि अनंत है, असीम है, वह ध्रुव है, निश्चल है। ऐसा एक पदार्थ का होना अवश्य मानना पड़ेगा।
असीम जो होगा, वह अजन्मा होगा। वह किसी से जन्मा हुआ नहीं होगा। जो चलनात्मक है, उसका पैदा होना उसी परमात्मा से हुआ है। जिस प्रकार आकाश से हवा उत्पन्न होती है। यदि शून्य नहीं रहे तो हवा नहीं पा सकते। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। आकाश से वायु उपजती है। आकाश ध्रुव है, कँपता नहीं है, किन्तु हवा कँपती है। उसी प्रकार परमात्मा से चेतन उपजा है। चेतन-मण्डल बहुत बड़ा है, किन्तु वह अज नहीं है। वह कारणरूप नहीं, कार्यरूप है। संतों ने कहा, मायिक पदार्थ को पकड़े हो, तब देखो तुम्हारी क्या हालत है? कभी तृप्ति नहीं होती और दरिद्रता छूटती नहीं है।
नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख कछु नाहीं।।
किसी को बहुत धन है, किंतु उसको तृप्ति नहीं है, तो वह महादरिद्र है। संतों ने कहा - यहाँ तुमको सुख, संतोष और तृप्ति नहीं हो सकती। तुम छल की दुनिया में पड़े हो। इससे परे परमात्मा को पकड़ो तो तुम तृप्त हो जाओगे। उसको पकड़ना तो दूर है, किंतु यदि तुम उसके पकड़ने के रास्ते पर चलो तो तुमको शांति और तृप्ति मिलने लगेगी। उस प्रभु को अपने अंदर में पकड़ो। जो अपने घर में वस्तु है और बाहर में भी है, तो घर में लेना सुगम होगा कि बाहर का लेना? गोदी में बालक शहर में ढिंढोरा। कभी-कभी ऐसा होता है, गमछा कंधे पर है और बाहर में खोजते हैं।
अपुनपौ आपुन ही में पायो।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो।।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो।।
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण, भ्रम भयो कह्यो गँवायो। दियो बताइ और सत जन तब, तनु को पाप नशायो।। सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो। जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है, ना कहूँ गयो न आयो।। सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसुकायो।
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुर खायो।।
- सूरदासजी महाराज
अपने अन्दर तलाश करो। इसका यत्न संतों ने सिलसिले के साथ बताया है।
तुलसी साहब का छन्द है –
हिये नैन सैन सुचैन सुन्दरि। साजि श्रुति पिउ पै चली।। गिरि गवन गोह गुहारि मारग। चढ़त गढ़ गगना गली।। जहाँ ताल तट पट पार प्रीतम। परसि पद आगे अली।। घट घोर सोर सिहार सुनि कै। सिंध सलिता जस मिली।। जब ठाट घाट वैराट कीना। मीन जल कंवला कली।। आली अंस सिंध सिहार अपना। खलक लखि सुपना छली।।
अस सार पार सम्हारि सुरति। समझि जगजुग जुग जली।।
गुरु ज्ञान ध्यान प्रमान पद बिन। भटकि तुलसी भौ भिली।
जब बल विकल दिल देखि विरहिन। गुरु मिलन मारग दई।।
सखी गगन गुरुपद पार सतगुरु। सुरति अंस जो आवई।। सुरति अंस जो जीव घर गुरु। गगन वस कंजा मई।। आली गगन धार सवार आई। ऐनि वस गोगुन रही।।
सखी ऐन सूरति पैन पावै। नील चढ़ि निर्मल भई।।
जब दीप सीप सुधार सजकै। पछिम पट पद में गई।।
गुरु गगन कंज मिलाप करिकै। ताल तज सुनि धुनि लई।। सुनि शब्द से लखि शब्द न्यारा। प्राल बद जद क्या कही।। जेहि पार सतगुरु धाम सजनी। सुरति सजि भजि मिलि रही।।
जस अलल अंड अकार डारै। उलटि घर अपने गई।।
यहि भांति सतगुरु साथ भेटै। कर अली आनन्द लई।। दुःख दाव कर्म निवास निसदिन। धाम पिया दरसत बही।। सतगुरु दया दिल दीन तुलसी। लखत भै निरभै भई।।
अपने अन्दर की दृष्टि से अपने को सजाकर सुरत सुन्दरी अपने पिउ के पास चली। दृष्टि आपके पास है, उसे अन्तर्मुखी कीजिए।
अन्तर्मुख होने से अन्तर की यात्रा कर सकेंगे।
बाहर के दर्शन को कोई परमात्मा का दर्शन कहे तो मेरी समझ में नहीं आती। बाहरी इन्द्रियों से उसे कोई ग्रहण नहीं करता। वह इन्द्रियों से परे है। बाहर की इन्द्रियों से खोज करनी थोथी खोज है।
आँख से सुनना चाहें तो कैसे होगा? उसी प्रकार इन्द्रियों से ईश्वर को ग्रहण करना नहीं हो सकता।
इसको चेतन आत्मा ही पहचान सकती हैं, इसके लिए अन्तर-ही-अन्तर चलना होगा।
सन्तों ने विश्वास दिलाया कि एकबार भी यदि भीतर में पाओगे, तो बाहर भीतर एक ही हो जाएगा।
बाहरि भीतर एको जानहु इहु गुर गिआन बताई।' (गुरु नानक)
संतों के विचार में ऐसा ही है और सदग्रंथों में भी ऐसा ही है। इसपर विश्वास रखना चाहिए।
उपर्युक्त साधन में अनिवार्य रूप से सदाचार का पालन करना पड़ता है, जिससे संसार में भी निरापद रहना पूर्ण संभव है।
⚘🌺🌹🙏🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏🙏⚘⚘⚘
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