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बुधवार, 15 जुलाई 2020

महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज:मनुष्य अपने स्वरूप को जानें

सतगुरु महर्षि मेंहीं के द्वारा दिया प्रवचन  
बीसवीं सदी के महान संत सतगुरु महर्षि मेंहीं  परमहंस जी महाराज की वाणी 
MAHARSHI MEHI PARAMHANS JI MAHARAJ KI VANI 
🙏🙏🙏🙏🙏🙏⚘🌺🌹🌷✍👇🌷🙏
आइये सत्संगी बंधु 
सदगुरू महराज की अमृत वचन का पान करें 

🙏🙏🙏🌷🙏।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🌷🙏🙏🙏🙏
 मनुष्य अपने स्वरूप को जाने
संसार के जितने प्राणधारी हैं, सबको अपना सुख बहुत पसन्द है। अपने सुख को छोड़कर कोई भी आनन्दित नहीं होता। सुख के लिए सभी कोशिश करते हैं। इसके लिए सभी परिश्रम करते हैं। सुख को पहचानना चाहिए।बच्चे खेल-कूद में सुख समझते हैं। कुछ दिनों के बाद वे खेल-कूद को छोड़ देते हैं, जिस तरह वे बचपन में खेलते हैं। या तो विद्याध्ययन करते हैं अथवा घर के कामों में लगते हैं। जवान लोग विषयों को भोगते हैं, उसमें सुख मानते हैं। उम्र बढ़ने पर फिर कुछ ज्ञान-ध्यान की बात समझने लगते हैं और तब इसी में सुख मानने लगते हैं। सबको इस सुख के लिए चेष्टा करनी चाहिए। धर्म को सभी चाहते हैं, लेकिन बिना कर्म के धर्म नहीं होता। सुख के पहले थोड़ा दु:ख उठाना होता है।
शिक्षा पाने के पहले बच्चे शिक्षा पाने में दु:खी होते हैं, फिर वे सुखी होते हैं। 
जो विषय में सुख समझते हैं, उसके बाद जो निर्विषय सुख है, उन्हें उसको भी समझना चाहिए।
 इहलोक के सुख को छोड़ने से परलोक के सुख की प्राप्ति होती है। परलोक को पाने के लिए जब दत्तचित्त होते हैं, उसको पाने पर तब धीरे-धीरे वे इधर के सुख को छोड़ते हैं और उधर के सुख को पाने लगते हैं। कितने यहाँ के सुख के सुख में लगे रहते हैं और परलोक के सुख का ख्याल नहीं करते, यह ठीक नहीं है। 
संतों ने कहा है कि परलोक सुख को भी देखो। इन्द्रियजन्य सुख को सुख कहें, यह ठीक नहीं है।
 भौतिक के बाद आध्यात्मिक है, उसके लिए भी यत्न करना चाहिए। जो आध्यात्मिक सुख पाने की कोशिश करता है, वही धर्मवान होता है। वही इस लोक और परलोक; दोनों में सुखी रहता है। हमलोग सुख चाहते हैं। संसार में धनवान, प्रतिष्ठावान, शक्तिमान किसी तरह से कुछ बनकर रहो, उसमें कभी दुःख न आवे, सुख-ही-सुख रहे, ऐसा नहीं होता। बड़े-बड़े हुकूमतवाले, बड़े-बड़े ज्ञानी आए, राजराजेश्वर आए, उन सबको सुख के साथ दु:ख भोगना पड़ा।
 श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों के जीवन में भी ऐसा नहीं मालूम होता है कि उनको दु:ख नहीं हुआ। इसलिए परलोक के सुख की ओर देखना चाहिए। हमलोग शरीर और संसार के बंधन में पड़े हैं, इनसे छूटना चाहिए। यह शरीर स्थूल हाड़मांस-चाम का बना हुआ है। इसकी आयु है। आयु भोगकर 100 वा 50 वर्ष में ही यह शरीर छूट जाता है, लेकिन इसके छूटने से ही मुक्ति नहीं होती। 
जड़ के चार शरीर होते हैं, वे सभी छूट जायँ तब मुक्ति होती है।
 आयु पूरी होने पर जो शरीर छूटता है, इससे मुक्ति नहीं होती है। अपने अख्तियार से स्थूल-सूक्ष्म आदि चारों शरीरों को छोड़ता है, तब मोक्ष पाता है, उसको दु:ख नहीं होता। 
जीवनकाल में जो बंधनों से छूटे होते हैं, वे जीवनमुक्त कहाते हैं। ऐसे पुरुष भी सत्संग करते हैं। संसार में रहकर वे संसार का उपकार करते हैं।
संसार में रहकर भी सुखी रहो, इसके लिए उद्यमी, पुरुषार्थी बनो, डरपोक नहीं। 
जो आलसी हैं, अनुद्यमी हैं, वे दुःखी होते हैं।
 जो साहसी, पुरुषार्थी, उद्यमी और परिश्रमी होते हैं, वे संसार में सुखी होते हैं और परलोक का यत्न करने पर वहाँ भी सुख पाते हैं। रामचरितमानस में है कि श्रीराम राज्य करते थे, उनकी सारी प्रजा सुखी थी, उनका राज्य बहुत अच्छा था। 
उन्होंने देखा कि केवल ऐहिक सुख ही हो, परलोक सुख नहीं हो तो प्रजा को अवश्य दुःख होगा।
 इसलिए उन्होंने एक सभा की और उपदेश दिया। यद्यपि उनके गुरु भी उस सभा में थे, जो बड़े ज्ञानी थे। उस सभा में और बड़े-बड़े ज्ञानी विद्वान भी थे। उनलोगों से नहीं कुछ कहलाकर स्वयं कहा। ऐसा क्यों? इसमें बात है कि कोई विद्वान और कोई महात्मा हैं तो उनको उपदेश देने का बल है और राजा उपदेश देता है तो उसको उपदेश देने का भी बल है और शासन का भी बल है।
 इसलिए उन्होंने अपने से अपनी प्रजा को उपदेश दिया। श्रीराम ने जो पहली बात कही, वह यह कि 
बड़े भाग मानुष तनु पावा। 
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।‘ 
मनुष्य शरीर पानेवाले सभी बड़े भाग्यवान हैं, चाहे वे कोई भी कहीं के हों।
 एक नीच कुल का लोग अगर मोक्ष का यत्न करके उसको पाता है, तो उसका सुख जैसा उनको मिलता है, उच्चवर्ण के लोग यत्न करेंगे तो उनको भी वैसा ही सुख मिलता है। आप देखते हैं कि मनुष्य ही बाघ, सिंह और हाथी को भी काबू में करके नाच तमाशा करवाता है। आप जानते हैं कि आराधना के द्वारा देवताओं को भी मनुष्य वश में कर लेते हैं। इसलिए 
यह शरीर बहुत उत्तम है, जो कि देवताओं को भी दुर्लभ है।
 इस शरीर को पाकर यदि आप पशुओं की तरह विषयों में लगे रहो तो क्या हुआ? आप किसी रूप को देखकर प्रसन्न होते हैं, शब्द सुनकर प्रसन्न होते हैं। 
रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पाँच प्रकार के विषयों को लोग भोगते हैं। इन्हीं विषयों के भोगों को सुख कहते हैं। ये पाँचो विषयसुख पशु में भी हैं।
 साँप विषैला जन्तु है। शब्द से उसको ऐसा प्रेम है कि शब्द सुनकर मस्त हो जाता है और नाच दिखाता है। उसको भी अपनी जिभ्या में जो स्वाद मालूम होता है, खाता है। मनुष्य भी पंच विषयों में लगा रहा तो क्या विशेष हुआ? मनुष्य को सोचने-विचारने की शक्ति है। मनुष्य अपने को जाने, केवल अपने शरीर को ही नहीं। पशु को अपने शरीर का ज्ञान होता है, अपने स्वरूप का नहीं। कितने मनुष्य तो अपने शरीर को ही जानते हैं और स्वरूप को जानने की कोशिश भी नहीं करते। शरीर नाशवान है और जीवात्मा अनाशवान है।
आज जो आपके देश में बहुत आवश्यक काम है, वह है - जैसा कि अभी ग्रामोफोन के रेकार्ड में सुना। ‘देश कुर्बानी माँगता है, अपने को न्योछावर करने कहता है।‘ यह देश दूसरे देश पर चढ़ाई नहीं करता। हाँ, जो देश पर चढ़ाई करता है, उसको इस देश के लोग मार भगाते हैं। 
जो डरपोक है, वह लड़ नहीं सकता।
 मूल चीज है कि -
आकर चारि लच्छ चौरासी। योनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
जीव अविनाशी है, इसका विनाश नहीं होता। महाभारत का युद्ध आरम्भ होने वाला था। 
श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा कि हमको दोनों सेनाओं के बीच में ले चलिए। श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के बीच में रथ को ले गये। युद्ध के मैदान में दोनों सेनाओं में अपने स्वजन परिवार को देखकर अर्जुन को मोह हुआ। लड़ना अच्छा नहीं है, अर्जुन ने कहा। 
श्रीकृष्ण ने कहा - तुम बुद्धिमान आर्य की भाषा नहीं बोलते। अभी युद्ध करने का समय है, यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो लोक में हँसी होगी और परलोक में भी दु:खी होओगे।
 शरीर को कोई मार सकता है, शरीर के अन्दर में जो आत्मा है, वह पानी में सड़ती नहीं है, अग्नि में जलती नहीं है, हवा से सूखती नहीं है, अस्त्र-शस्त्र से उसका भेदन नहीं होता। मेरा मामा, मेरा दादा कहकर तुम अपने को क्षत्रिय-धर्म से नीचे गिराते हो। शरीर मरेगा, शरीर में रहनेवाला नहीं मारा जाएगा। मेरे और तेरे बहुत जन्म हो गए हैं। जैसे पुराना कपड़ा फटने पर नया कपड़ा पहनते हैं, इसी तरह चेतन आत्मा पर नया-नया शरीर चढ़ता है। इस तरह उन्होंने आत्मज्ञान की शिक्षा देकर अर्जुन को मजबूत बनाया और कहा कि 
तुम युद्ध भी करो और परलोक-चिन्तन भी मत छोड़ो।* इस तरह हमारे देश के लोगों को आज भी जरूरत है। आत्मज्ञान बलवान बनाता है और शरीर-ज्ञान कमजोर बनाता है।
इस देश के पंजाब प्रान्त में बन्दावीर ने अपना पुरुषार्थ दिखलाया था। वह गुरु गोविन्द सिंह का शिष्य था। जब वह मुगल बादशाह से पकड़ा गया था तो लोहे के चूँटे को आग में तबाकर उसका मांस नोचा जाता था, फिर भी वह प्रसन्न था। बादशाह फर्रुखसियार ने पूछा - ‘तुम अभी भी प्रसन्न मालूम पड़ते हो, ऐसा क्यों?' 
उन्होंने कहा - ‘हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता है, तुम मेरे शरीर को नोचते हो, मुझे नहीं नोच सकते। अध्यात्म-ज्ञान के बिना आदमी घबराता है, साहसी नहीं होता है। इसलिए अध्यात्म-ज्ञान होना आवश्यक है। इसीलिए श्रीराम ने अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश दिया। अध्यात्म-ज्ञान केवल सुनने से पूरा नहीं होता। इसके लिए साधन करना चाहिए, जिससे आत्मा की पहचान हो। केवल सुनने से ज्ञान पूरा नहीं होता। 
पहले सुनने से, विचारने से, साधन करने से और साधन के पूर्ण होने से अंत में पूर्ण ज्ञान होता है। इसी को श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान कहते हैं।* इसलिए तबतक उतने मजबूत नहीं होते, जबतक कि वे पहचानवाला ज्ञान प्राप्त नहीं करते।

समत्व प्राप्त कर युद्ध करो' श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था। समत्व की प्राप्ति समाधि में होती है।
 इसके पहले श्रवण-मनन अवश्य चाहिए। श्रवण-मनन से निर्णय हो जाता है, तब कोई कुछ कर सकता है। निदिध्यासन ज्ञान के पूरा होने पर पूरा ज्ञान होता है। श्रीराम ने प्रजा को उपदेश दिया था - 
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दु:खदाई।' 
अर्थात् मनुष्य-शरीर प्राप्त करने का फल विषय-सुख भोगना नहीं है। अगर स्वर्ग का सुख प्राप्त कर सको, तो वह भी थोड़ा ही है।
 यहाँ जैसे विषयों से कोई तृप्त नहीं होता, वैसे ही स्वर्ग में भी विषयों से कोई तृप्त नहीं होता और उसका कर्मफल समाप्त होने पर फिर यहाँ लौटा दिया जाता है। इसलिए श्रीराम ने कहा कि पंच विषयों को, जो पंच ज्ञान-इन्द्रियों से ग्रहण होते हैं, उनको छोड़ो। ये सुख पूर्ण नहीं हैं, अल्प सुख हैं। इन्द्रिय-ज्ञान के परे के सुख को पूर्ण सुख कहते हैं। इन्द्रिय-ज्ञान के परे के सुख को विषय सुख नहीं कहते हैं। इन्द्रिय-ज्ञान से विशेष सुख वह है, जो चेतन-आत्मा से प्राप्त होता है।
 वह पूर्ण आत्मज्ञान का सुख है। उसी को निर्विषय सुख कहते हैं। श्रीराम ने इसी सुख की तरफ संकेत किया था अर्थात् 'नर तन कर फल निर्विषय भाई।‘ यह इन्द्रिय-ज्ञान में आने योग्य नहीं है। यह तुम्हारा शरीर है, इस शरीर में उस निर्विषय सुख को पाने के लिए तुम कोशिश कर सकते हो, अन्य शरीरों में नहीं। 
ईश्वर की विशेष कृपा होती है, तब मनुष्य-शरीर मिलता है।
 इसमें ईश्वर की कृपा है, जो तुमको आगे की ओर बढ़ाती है। मनुष्य-शरीरधारी उस सुख को पा सकता है, जो सुख संसार-समुद्र को पार कर मिलाता है। जैसे नाव हो, नदी हो और मल्लाह नहीं हो तो उसको पार कौन लगावे? उसी तरह मनुष्य-शरीर नाव है, संसार समुद्र है, इसमें सद्गुरु मल्लाह चाहिए।
 सद्गुरु उनको कहते हैं जो सद्ज्ञान जानें, उसके अनुकूल अपना आचरण करें और औरों को भी इसकी शिक्षा-दीक्षा दें। मल्लाह ठीक होता है तो नाव को खतरे से बचाता है। जो इस मनुष्य शरीर-रूप नाव को चलावें, वे सद्गुरु मल्लाह हैं। 
मनुष्य शरीर-रूपी नाव को ईश्वर की कृपारूप अनुकूल वायु प्राप्त है, अब चाहिए सद्गुरु।
 सद्गुरु पहले भी थे, अब भी हैं, सदा से होते आए हैं और होते रहेंगे। शरीरधारी सद्गुरु होते हैं, उनकी जो कोई खोज करता है, वह सत्संग के अंदर जाकर खोज करता है। कहीं संत-महात्मा का नाम सुनता है, वहाँ जाता है - खोज करता है, तो कहीं-न-कहीं मिल ही जाते हैं।
 जो उनकी बताई हुई युक्ति से कोशिश करता है, वह मोक्ष को पाता है।
श्रीराम ने कहा था - ‘यह शरीर साधन का धाम और मोक्ष का द्वार है।
मन्दिर के बड़े-बड़े छिद्रों को द्वार और छोटे-छोटे छिद्रों को खिड़कियाँ कहते हैं। हमलोगों के शरीर में नौ बड़े-बड़े छिद्र हैं, ये द्वार हैं। संत लोग कहते हैं कि नौ द्वारों में रहोगे तो संसार में भटकते रहोगे।
 नौ द्वारों के अतिरिक्त और भी द्वार है, वह बाहर में नहीं है, अन्दर में है। स्वप्न में नौ द्वार से जो अन्दर होते हो, वह थोड़ा अन्दर जाते हो और यदि उस दशवे द्वार में जाओ, तो अधिक अंदर जा सकते हो। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से भी विशेष तुरीय में जाओगे। स्वभावतः जैसे नौ द्वारों में लोग बरतते हैं अर्थात् उनमें आते-जाते रहते हैं, वैसे ही इस दशवें में जाना नहीं होता, इसके लिए क्रिया की जाती है और तब उसमें जाना होता है। और तब श्रीराम के कहे अनुकूल निर्विषय की ओर होता है। यह साधन द्वारा होता है।
 अपने देश में यह विद्या बहुत प्राचीन है। यही विद्या है जो सारे संसार को चकित करती है। सारे संसार में यहाँ से यह ज्ञान गया है। 
यह विद्या डरपोक नहीं बनाती। कमजोर को भी बलवान बनाती है। इस विद्या का जानकार किसी से डरता नहीं है।
श्रीराम ने यह जानकर ही प्रजा को अध्यात्म-ज्ञान दिया था और यह कि विषय-सुख में लिपटकर कमजोर न हो जाय। यह विद्या कहीं खो नहीं गई है। सभी इस विद्या को जानें, करें और सीखें।
अभी देश को जो जरूरत है, वह यह है कि लोग साहसी बनें।
देश की मांग के मोताबिक देश के लिए तन, मन और धन की कुर्बानी करें। 
बिना आध्यात्मिक विद्या के कमजोर होंगे।
 शरीर के बलवान होने पर भी अध्यात्मज्ञान के बिना मनुष्य कमजोर रहता है। 
आध्यात्मिक ज्ञान संसार के सुखों में लट्टू नहीं होने देता, मितभोगी बनाता है। जैसे मात्रा के मोताबिक औषधि लेते हैं, उसी तरह मात्रा के अनुकूल विषयों को लेना चाहिए, क्योंकि बिना विषय के कोई रह नहीं सकता।
🙏🙏🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏🙏🙏🌷🌷
सत्संगी बंधुओं आपसे एक अपेक्षा है कि कमेंट्स में जयगुरू  जरूर लिखें ।जिससे हम भी जान पायेगें की आप तक पहुँच रहा है ।
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