संत सतगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की वाणी हमारी इन्द्रियाँ बिल्कुल स्थूल हैं। आइये पूरा विस्तार से पढ़ें 👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇👇
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
संतों के मत में यह अत्यंत आग्रह है कि सब लोगों को ईश्वर से मिलना चाहिए। पहले ईश्वर-स्वरूप का निर्णय जानना चाहिए। फिर ईश्वर से मिलने का यत्न जानना चाहिए और उनसे मिलने का यत्न करना चाहिए तथा जो आचरण अपेक्षित है, वह आचरण करना चाहिए। इसके लिए पहले श्रवण और मनन करना चाहिए। फिर निदिध्यासन करना चाहिए और अंत तक पहुँचकर उसकी प्राप्ति करनी चाहिए।
परमात्मा के स्वरूप के विषय में ऐसी बात है कि जैसे कोई पूछे कि रूप क्या है? तो उसका उत्तर होगा - जो आँखों से देखा जाय। उसी तरह ईश्वर क्या है? तो उसके लिए यही कहना बिल्कुल ठीक-ठीक है कि जिसको आप अपने से यानी चेतन आत्मा से, न कि इन्द्रियों से, पहचानें; वह ईश्वर है।
सबलोगों को यह जानना चाहिए कि यह समझ में आना कोई कठिन नहीं है कि जीवात्मा शरीर में है, किंतु शरीर जीवात्मा नहीं है। लोग जानते हैं कि मृत्यु होती है, शरीर से जीव निकल जाता है। शरीर को जला देते हैं। हमलोगों के यहाँ लोग श्राद्ध-किया करते हैं। यह क्रिया इस बात कों दृढ़ कर देती है कि शरीर छूटने पर जीवात्मा रहता है। शरीर से चेतन आत्मा निकल गई है। शरीर सड़ जाएगा, दुर्गन्ध होगी, इसलिए शरीर को जला देते हैं। जीवात्मा इससे चला गया, इसलिए श्राद्ध-क्रिया करते हैं। यदि शरीर के साथ चेतन आत्मा भी नष्ट हो जाती, तब श्राद्ध किसके लिए किया जाता? शरीर छोड़कर जीवात्मा कहीं चला गया है, उसके लिए श्राद्ध क्रिया करते हैं। *शरीर में चेतन आत्मा है। शरीर में रहकर यह दु:ख-सुख भोगती है। इन दुःखों से बचने के लिए सभी संतों ने उपदेश दिया है।
शरीर के भीतर और बाहर की सभी इन्द्रियाँ यंत्र हैं, जिनके द्वारा देखते, सुनते, रस चखते हैं; संकल्प-विकल्प करते हैं, अहं भाव लाते हैं आदि। इन सबको छोड़कर चेतन आत्मा अकेले रहकर क्या करती है - लोग नहीं जानते हैं। किसी भी इन्द्रिय में यह शक्ति नहीं है कि वह ईश्वर को पहचाने।
चेतन आत्मा अपने ही ज्ञान से परमात्मा को पहचानेगी।* इसको समझने के लिए ऐसा जानना चाहिए कि जो वस्तु जिस तरह की होती है, उसी किस्म का यंत्र हो, तभी उसका ग्रहण किया जाना संभव हो सकता है। पेचकश, सँड़सी - लोहार के पास में है और घड़ीसाज के भी पास में है। जैसे-जैसे महीन यंत्र होते हैं, उसी तरह की उनके पास में सँड़सी और पेचकश भी होता है; किंतु बढ़ई की सँड़सी, पेचकश से घड़ी के कल पूर्जा का ग्रहण होना असम्भव है।
परमात्मा आदि-अंत-रहित असीम है।
इससे अधिक और सूक्ष्म क्या हो सकता है? एक सेर बर्फ के ढेले को देखिए, कितनी दूर व्यापक है। फिर एक सेर पानी को देखिए, वह कितना व्यापक है। जो पदार्थ जैसे-जैसे फैला, उसी तरह सूक्ष्म भी हुआ। जो सबसे विशेष व्यापक है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। हमारी इन्द्रियाँ बिल्कुल स्थूल हैं। ये हमारी मोटी-मोटी इन्द्रियाँ परमात्मा को ग्रहण करें, सम्भव नहीं है। मन-बुद्धि से भी ग्रहण नहीं हो सकता।
परमात्मा को चेतन आत्मा ग्रहण करे, यही सम्भव है। यह बाहर-बाहर का काम नहीं है। चेतन आत्मा इन्द्रियों के संग में है, इसलिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म को इन्द्रियों से नहीं पा सकती। मन और चेतन आत्मा इस तरह संग-संग हैं, जैसे दूध में घी रहता है। जिस साधन, अभ्यास से यह काम हो सके, वह काम करो। अंतर्मुख ध्यान करो। यही ईश्वर की असली भक्ति है। अंतर्मुख भजन करने के लिए अंदर-अंदर चलना होगा और तभी मायिक सब आवरणों को पार करना होगा।
जाग्रत अवस्था से स्वप्न में जाने से पहले तन्द्रा में जाना पड़ता है और उस समय कुछ-कुछ ज्ञान भी रहता है और कुछ-कुछ भूलते भी जाते हैं। ऐसी अवस्था में कोई जगा दे, तो दुःख होता है; क्योंकि उसमें चैन-आराम मिलता है। अंतर के सरकाव में सुख है। यह प्रत्यक्ष नमूना है कि अंदर में सरकाव होता है।
इसमें स्वाभाविक बात है कि अंदर के सरकाव में सुख मिलता है। चिंताओं को छोड़ो। अवश्य ही गुरु महाराज ने जो बताया है, वह याद रखो और सब कुछ भूल जाओ। ध्यान अंतर्मुख होकर करो।
शरीर के जिस तल पर मन रहता है, सिमटाव होने से वहीं से उसकी ऊर्ध्वगति होगी।
ऊर्ध्वगति होने से अंधकार से प्रकाश में जाएगा।
वहाँ शब्द का सहारा मिलने पर विशेष ऊर्ध्वगति होगी। तब चेतन आत्मा के ऊपर जो इन्द्रियों की पट्टी लगी है, इससे वह मुक्त हो जाएगी। तब वह अपने को और परमात्मा को भी पहचान लेगी।
ऐसा ध्यान करो कि पूर्ण सिमटाव हो और सिमटाव में ऊर्ध्वगति हो। ऊर्ध्वगति में आवरण भेदन होगा, फिर परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति होगी।
स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण - इन चारों जड़ावरणों से पार उतरने पर तब वह स्वयं रहता है। सूक्ष्म रूप-रंग में वह देखा नहीं जा सकता। चारों खोलों के उतर जाने पर परमात्मा की प्राप्ति होती है।
जहाँ अपनी पहचान होती है, वहीं पर परमात्मा की भी।
स्थूल मण्डल का रूप अंधकार है। अंधकार से पार गुजरने पर प्रकाश पाता है। ब्रह्म के प्रकाश की ओर खींच जाता है। इसमें ज्योति का बड़ा आग्रह है। पहले ब्रह्मज्योति का, फिर ब्रह्मनाद का सहारा होता है। संतों के ज्ञान का यही रहस्य है।
संतों ने मनोनिरोध के लिए जो बतलाया, वह बड़ा ही सरल है। नैति-धौति करने की जरूरत नहीं है। भोजन उतना करो, जितना पच सके। न बेशी खाओ, न कम खाओ। न बेशी सोओ, न बेशी जगो। मध्य में रहकर जगो, बैठो, ध्यान करो। किसी नाम में विशेष महत्त्व है, किसी में कम - ऐसा नहीं। राम, कृष्ण, गॉड, अल्लाह - सब एक ही हैं। जप के लिए ऐसा शब्द अवश्य होना चाहिए, जो गुरु बतलावे। ऐसा जप करो कि मन भागे नहीं। एकाग्र मन से जप हो, तो समझो कि मन बहुत बहका नहीं, तब जप हुआ।
फिर उसके एक रूप का ध्यान करो। जो जिस शरीर में रहता है, उसके शरीर का ध्यान करो। पहले किसी एक पर श्रद्धा रखकर उसका ध्यान करो। कोई एक रूप बिना अंग-प्रत्यंग के नहीं रहता। इससे ऐसा ध्यान करो, जो अंग-प्रत्यंग के बिना हो, वही है विन्दु। यह भगवान का सूक्ष्म रूप है। पेन्सिल की नोक जहाँ पड़े, वहीं विन्दु होता है। स्थूल में पूर्ण सिमटाव होने से स्थूल ज्ञान से ऊपर उठ जाता है। भेद की बात किसी जानकार से जानो। वे जो कहें, जैसा ध्यान करने के लिए बतलावें, वैसा करो।
गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोइ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न होई।।
- संत कबीर साहब
जो गुरु स्वयं ध्यान करते हों और दूसरों को बताते हों, वे जिन कर्मों की मनाही करें, उन कर्मों को छोड़ो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार मत करो।
मत्स्य-मांस का भोजन नहीं करो। मछली पानी में रहती हुई दुर्गन्धित रहती है। स्नान करने से जो पवित्रता होती है,
ध्यान में उससे विशेष पवित्रता होती है।
खुजलाहट होने पर नोचने से कीड़े मरते हैं। यह अनिवार्य हिंसा है। खेती करने, औषधि-सेवन करने में जो हिंसा होती है, वह अनिवार्य हिंसा है। आक्रामक के साथ युद्ध करना - यह अनिवार्य हिंसा है।
🙏🙏🙏🙏🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏🙏🙏🙏
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