Satguru mehi
Satguru mehi baba ka pravachan
बीसवीं सदी के महान संत सतगुरु महर्षि में हीं परमहंस जी महाराज की वाणी को पढें
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🙏🙏🙏।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🙏🙏🙏🙏
यद्यपि शरीर बहुत प्यारा होता है और सुन्दर भी होता है, फिर भी यह अवश्य छूट जाता है और इसके हाड़-मांस अलग-अलग हो जाते हैं या जल जाते हैं।
संतों का उपदेश है कि ऐसे शरीर में आसक्त मत होओ। शरीर में आसक्त न होने का मतलब है कि शरीर-सुख में लिप्त मत होओ।
शरीर बनता है और बिगड़ता है। संसार में यह उत्पन्न होता है, देखा जाता है और फिर नहीं देखा जाता है। अंत का फल लोग प्रत्यक्ष देखते हैं कि यह सड़ जाता है इसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, जला देने से यह भस्म हो जाता है; किंतु इसमें जो रहता था, वह जलता और सड़ता नहीं। वह जलने-सड़ने से बचा रहता है। इस शरीर को छोड़कर जब वह चला गया, तभी यह शरीर जला और सड़ा। कितनी बार ऐसा हुआ, इसका ठिकाना नहीं।
बहुत जन्मों से जीवात्मा शरीर को पहनती हुई चली आयी है, जैसे आप अपने जीवन में कितने कपड़ों को बदल देते हैं।
पुराने कपड़े बिगड़कर खराब हो जाते हैं और छोड़ दिए जाते हैं; उसी तरह जीवात्मा शरीरों को पहनती है और छोड़ती है। इसलिए शरीर के सुख में आसक्त होना दानवी स्वभाव है और शरीर को अनित्य समझकर इसके सुख को नाशवान समझकर उसमें आसक्त न होना दैवी स्वभाव है।
उपनिषद्-कथा है कि देवताओं के राजा इन्द्र और दानवों के राजा विरोचन ने आपस में आत्मज्ञान प्राप्त करने की बातचीत की। दोनों मिलकर ब्रह्मा के पास गए और उनसे आत्मज्ञान देने की प्रार्थना की। ब्रह्मा ने उन दोनों को कहा - ‘तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन कर मेरे पास आओ, तब बताऊँगा।' दोनों तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन कर ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा - ‘तुम्हारे पास पहनने के जितने वस्त्राभूषण हैं, पहनकर आओ और जल में अपने-अपने रूप को देखो।' जल में उन दोनों ने अपने-अपने रूप को देखा। ब्रह्मा ने कहा - ‘पानी में जो रूप देखते हो, वही ब्रह्म है। बहस करने का साहस नहीं हुआ। जो कहा गया, उसे सुन लिया। उन्हें कुछ कहने की युक्ति भी नहीं आई। दोनों चले गए। विरोचन दानव था। उसने समझा - ‘शरीर ही आत्मा है। खूब खाओ, पीओ और इसी के विलास में रहो।' इन्द्र ने सोचा - ‘पितामह ने इस शरीर की छाया को आत्मा बताया। यदि शरीर में हाथ टूट जाय, तो छाया में भी हाथ टूटा हुआ मालूम होगा। रूप जैसा बनाएँगे, वैसी छाया देखने में आएगी। तो ब्रह्म या आत्मा के भी कई रूप हो जाएँगे।' ऐसा विचारकर वे फिर लौटकर ब्रह्मा के पास गए और बोले - ‘मुझे सन्देह है। अपना सन्देह प्रकट करने पर ब्रह्मा ने उन्हें तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन करने कहा। दूसरे तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के बाद इन्द्र पुनः ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा - ‘आँख में सबका चित्र देखा जाता है, वही आत्मा या ब्रह्म है।' फिर इन्द्र ने विचारा - ‘यदि आँख फूट जाय तो उसमें कुछ नहीं दीख पड़ेगा। फिर तो वही बात हुई। यह सोचकर इन्द्र फिर ब्रह्मा के पास लौटे और उन्होंने फिर अपना सन्देह प्रकट किया। पुनः ब्रह्मा ने कहा - ‘तीस वर्ष तक फिर ब्रह्मचर्य पालन करके आओ।' इन्द्र फिर तीस वर्ष के बाद ब्रह्मा के पास उपस्थित हुए। तब ब्रह्मा ने कहा - 'तुम्हारे शरीर की जो छाया है, वही आत्मा है।' फिर इन्द्र को सन्देह हुआ तो वह पुनः लौटा और ब्रह्मा से अपना सन्देह प्रकट किया। ब्रह्मा ने पुनः पाँच वर्ष ब्रह्मचर्य पालन करने कहा। पाँच वर्ष ब्रह्मचर्य का पालन कर इन्द्र ब्रह्मा के पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा -
आत्मा शरीर नहीं, शरीर में जो रहता है, वही आत्मा है। ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया।
शरीर के सुखों में लिप्त होना दानवी स्वभाव है। जो शरीर-सुखों के भोग में नहीं फँसता, दुःखों को सहता है, वह दैविक स्वभाव का है।
आपलोगों को क्या चाहिए? दानवी बुद्धि की प्रशंसा नहीं की जाती। सबों को दैविक बुद्धि चाहिए। उपर्युक्त कथा से सब लोगों को जानना चाहिए कि आत्मतत्त्व क्या है? केनोपनिषद्, खण्ड 1 में है -
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।।
तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
अर्थात् मन से जो नहीं जाना जाता और जो आपके पास में है यानी जिसका ज्ञान इन्द्रियों से होता है; वह ब्रह्म नहीं है।
साधारणतः हम इन्द्रियों से जिसे नहीं जानते, उसके लिए कहते हैं कि वह नहीं है। जैसे वायु में अनेक पदार्थ मिले हैं, किंतु इस आँख से नहीं देख सकते, यंत्र से देख सकते हैं। घर में खिड़की या छिद्र होकर सूर्य की रोशनी आती है, तो उसमें बहुत टुकड़े देखने में आते हैं; किंतु युक्ति और यंत्र से नहीं देखने पर - केवल हवा है, ऐसा कहते हैं। उसमें और क्या है, नहीं जानते।
कैसा भी सुन्दर और पवित्र शरीर क्यों न हो, जिसको हम प्रणाम करते हैं, किन्तु यह शरीर परमात्मा या ब्रह्म नहीं है; चाहे वह शरीर इष्ट या गुरु आदि का ही क्यों न हो। कोई भी इन्द्रिय-गोचर पदार्थ ब्रह्म नहीं हो सकता है।
इस तरह से आपका यह शरीर इन्द्रिय-गोचर है, अतएव यह ब्रह्म नहीं है। कोई भी शरीर - पवित्र-अपवित्र, सुन्दर-असुंदर, जिस शरीर से अद्भुत कार्य ही क्यों न होता हो, चमकीला हो, दिव्य हो, फिर भी वह परमात्मा नहीं।
वह परमात्मा की माया है।
इन्द्रिय-गोचर पदार्थ निर्माया - ईश्वर नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है –
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।
- रामचरितमानस
इस कसौटी पर कसिए तो जो मन से या इन्द्रियों से जानते हैं, माया है। जो बदलता जाय, एक तरह नहीं रहे, वह माया है। जो किसी प्रकार के भ्रमवश मालूम हो, परन्तु यथार्थतः वह वैसा नहीं हो, वह माया है। जैसे, धुँधली रोशनी में रस्सी को साँप समझने का भ्रम होता है, उसको देखकर लोग डर भी जाते हैं, लेकिन वह साँप नहीं है - माया है। माया को भ्रम भी कहते हैं। सीपी में सूर्य की किरण लगने से चाँदी-सी भासती है, किंतु चाँदी नहीं है; उसी को माया कहते हैं। हमारा शरीर मांसपिण्ड था, वह फिर बच्चा, जवान और बूढ़ा हुआ यह माया है। एक वृक्ष कभी अंकुर था, वह बढ़ा, फूला, फिर सूख गया - यह माया है। इस प्रकार सब इन्द्रिय-गोचर पदार्थ सत्य ब्रह्म परमात्मा नहीं, माया है। केनोपनिषद् खण्ड 2 में लिखा है –
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
अर्थात् इस जन्म में यदि ब्रह्म को जान लिया तब तो बहुत ठीक है, नहीं तो बड़ी भारी हानि होगी। बुद्धिमान लोग उसे समस्त प्राणियों में उपलब्ध करके इस लोक से जाकर (मरकर) अमर हो जाते हैं।
जानना दो तरह से होता है। एक जाना है, परंतु पहचाना नहीं है; यह परोक्ष ज्ञान है। जिसको पहचान कर जाना है, वह अपरोक्ष ज्ञान है।
जिसको परमात्मा का अपरोक्ष या परोक्ष, कुछ भी ज्ञान नहीं हुआ, उसके लिए बहुत बड़ी हानि हुई। परोक्ष ज्ञान भी मनुष्य को ही होता है - बैल, कुत्ते आदि अन्य शरीरधारियों को नहीं। जो मनुष्य परोक्ष ज्ञान भी प्राप्त करके मर गया है, तो उसके लिए भी उतना अच्छा नहीं, किंतु उसका जन्म होगा तो मनुष्य योनि में ही होगा; क्योंकि ब्रह्म-सम्बन्धी परोक्ष ज्ञान के संस्कार को धारण करने और बढ़ानेवाला और दूसरा शरीर नहीं है। एक वृक्ष के अंकुर के लिए यदि उसे ठीक हवा, प्रकाश और अवकाश न हो तो वह अंकुर ठीक-ठीक नहीं बढ़ सकता। किन्तु जहाँ ये सब चीजें हैं, वहाँ अंकुर बढ़ते-बढ़ते वृक्ष होगा। उसी प्रकार मनुष्य शरीर के अतिरिक्त दूसरा अनुकूल शरीर नहीं है, जिसमें यह संस्कार बढ़े। इसलिए मनुष्य देह में जब यह बीज उगेगा, तब ब्रह्मज्ञान-संबंधी संस्कार पूर्ण रूप से उन्नत दशा को प्राप्त होगा।
तब इसको कुल और मूल की अपेक्षा नहीं होगी।
मैंने एक हरिजन (मेहतर) को संभवतः 1910 ई० में छपरा शहर में देखा था, जिनका नाम तहबल दास था। उनको सत्संग सुनने का बड़ा अच्छा शौक था। वे मांस, मछली तथा मद्यादि नहीं खाते-पीते थे। उन्होंने अपने टोले को सुधार दिया था। वे जगजीवन साहब के पंथ के महन्थ सियाराम दासजी के शिष्य थे। वे अपने टोले भर को पवित्र किए हुए थे। उस टोले में एक सत्संग घर भी था। उसमें उस टोले के सब हरिजन सत्संग करते थे।
एक बार श्रीतहबल दासजी ने दो बड़े विद्वान संन्यासियों से आत्मज्ञान दान के लिए प्रार्थना की थी। उनको (श्रीतहबल दासजी को) हाथ में झाड़ू लिए हुए देखकर उन्हें मेहतर जानकर दोनों संन्यासियों ने आश्चर्यचकित हो उनसे पूछा - ‘क्या तुम आत्मज्ञान समझ सकोगे?' श्रीतहबल दासजी ने कहा - 'यदि सरकार समझा दीजिएगा तो मैं समझ सकूँगा।' संन्यासियों ने कहा – ‘क्या इस विषय में कभी कुछ सुना है?' तहबल दासजी ने कहा - ‘हाँ, सरकार! श्रीगुरुजी के सत्संग में थोड़ा सुना है।' संन्यासियों ने कहा - 'हमलोगों को ज्ञात नहीं था कि तुमलोगों में भी इस ज्ञान की खोज है। अच्छा, हमलोग अभी अमेरिका जा रहे हैं, लौट आने पर तुमलोगों के दरजे के लोगों में प्रचार करेंगे। अभी तुम अपने गुरु के सत्संग में सुनो और समझो।'
ईश्वर संबंधी ज्ञान के लिए जाति-पाँति की कोई विशेषता नहीं है। मनुष्य जाति के किसी भी कुल के शरीर में आने पर उस ज्ञान का संस्कार मिटता नहीं।
भक्ति बीज बिनसे नहीं, आय पड़े जो चोल।
कंचन जौं बिष्ठा पड़े, घटै ना ताको मोल।।
- कबीर साहब
यह ज्ञान जब किसी एक जन्म में आरम्भ हो जाता है, तो उस ज्ञान को धारण करने और बढ़ाने के लिए पुनः-पुनः मनुष्य शरीर होता है। मनुष्य-शरीर के अतिरिक्त कोई दूसरा शरीर इसको धारण करनेवाला नहीं है।
जो परोक्ष आत्म-ब्रह्म-ईश्वर-ज्ञान में भी रत रहता है, वह बारम्बार मनुष्य-शरीर पाते हुए एक दिन अपरोक्ष ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। तब उसका काम समाप्त हो जाता है। वह संसार में नहीं लौटता, उसको मोक्ष हो जाता है।
आत्मज्ञान से विहीन केवल शरीर-ज्ञान में रहने के कारण पशुवृत्ति रहती है, इसलिए वह पशु-योनि में जन्म लेता है। जो श्रवण-मनन द्वारा परोक्ष तथा निदिध्यासन और अनुभव द्वारा अपरोक्ष ज्ञान नहीं प्राप्त करता है, उसको मरने पर मुक्ति होगी, इसका विश्वास नहीं करना चाहिए। जीवन-काल की मुक्ति को ही संतलोग मानते हैं।
कोई कितना ही वेद-वाक्य जानता हो, ज्ञान का विषय बहुत कण्ठस्थ हो, स्मरण-शक्ति विशेष हो; परंतु इससे ब्रह्म को नहीं प्राप्त कर सकता।
जिनको सांसारिक चाहना नहीं है, केवल परमात्म-प्राप्ति की जिनको चाहना है, वह परमात्मा को प्रत्यक्ष पाता है।
यह जानना चाहिए कि आत्मा से ही परमात्मा का ज्ञान होता है। आँख से कोई शब्द को नहीं सुनता तथा कान से कोई रूप नहीं देखता; उसी तरह एक चेतन-आत्मा के सिवाय और किसी से ब्रह्म को ग्रहण नहीं कर सकते। एक-एक इन्द्रिय के लिए एक-एक विषय है, उसी भाँति चेतन-आत्मा का विषय परमात्मा है।
मन संकल्प-विकल्प उसका करता है, जिसको उसने कभी देखा-सुना है। जिससे और जिसके सम्बन्ध में कभी कुछ देखा-सुना नहीं है, उसका संकल्प-विकल्प वह नहीं करता। भ्रमवश रस्सी में साँप का देखना तब हो सकता है, जब पहले साँप देखा हो। पहले साँप नहीं देखा हो तो सर्प होने का भ्रम नहीं हो सकता।
आप इन्द्रिय से काम करते हैं, मन से काम करते हैं। उनमें आप रहते हैं, तब इन्द्रियाँ या मन काम करता है; किन्तु आपका निज काम क्या है? वह अपना निज काम है - ईश्वर या ब्रह्म की पहचान। किंतु शरीर और इन्द्रियों को पहनकर आपका निज काम नहीं होगा। सब ख्याल छूटकर केवल परमात्म-दर्शन की लालसा जिनकी रहती है, उनके मन और बुद्धि का काम छूट जाता है और उनका उपर्युक्त निज काम तभी होता है। मन-बुद्धि से छूटने के लिए अंदर-अंदर चलना होता है। मन-बुद्धि के अंदर ब्रह्म है, किंतु उसे पहचान नहीं सकते।
उस ब्रह्म को जना देने के लिए उसकी प्राप्ति का उपाय बताने के लिए सत्संग का प्रचार है केवल कथा कहने के लिए नहीं। फिर मैं इसकी आवश्यकता नहीं समझता कि इसके लिए किसमें योग्यता है या नहीं है?
सुग्गा पक्षी होते हुए भी मनुष्य की भाषा - राम-राम बोलता है; उसी प्रकार सत्संग में सुनते-सुनते अयोग्यों में योग्यता हो जाएगी। लोग कहते हैं कि जिसको योग्यता नहीं, उसे यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए किंतु जिसको योग्यता नहीं, उसकी योग्यता को कौन बतावेगा।
आप (अयोग्यों) को योग्य बना दीजिए।
पलटू ऊँची जाति का मत कोइ करै हंकार।
साहब के दरबार में केवल भगति पियार।।
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